दर-दर भटकसु रामजी, रावन बड़हन पेट - सौरभ पाण्डेय

नमस्कार

सन 2010 में अन्तर्जाल पर साहित्य-सेवार्थ जब आया था तो पता ही नहीं था कि दरअसल जाना किस तरफ़ है, किस के साथ संगत होगी, क्या और कैसे करना होगा....कुछ भी स्पष्ट नहीं था। ठीक वैसे ही जैसे आसमान से गिरती बूँद को अपना मुस्तक़्बिल पता नहीं होता। शनै: शनै: संयोग बनते गये, साथी मिलते गये और अब लग रहा है कि शायद गंतव्य की ओर जाता रास्ता मिल जाना चाहिये।

तीन साल पहले यानि 9 अक्तूबर को ठाले-बैठे पर पहली पोस्ट आयी थी, मत्तलब इस अन्तर्जालीय ब्लॉग यात्रा को आज तीन साल पूरे हो गये। जो कुछ भी थोड़ा कुछ हो पाया है, आप सभी के स्नेह और सहकार से ही हो पाया है, इस में ख़ाकसार का योगदान नगण्य जैसा ही है। तीन साल पूरा होने पर आप लोगों से सुझाव देने की प्रार्थना की गयी है। इसी पेज पर आप के लेफ्ट हेंड पर जो स्क्रॉल है वहाँ कुछ विकल्प दिये गये हैं, आप के बहुमूल्य समय में से थोड़ा सा वक़्त निकाल कर ठाले-बैठे की आगामी स्वरूप-संरचना में मददगार बनें। मुक्त हृदय से ठाले-बैठे से संबन्धित अपने विचार पटल पर रखने की कृपा करें, आप के विचार हमें आगे का रास्ता दिखाएंगे। 

कुछ आँकड़े :- 
  • यह 499 वीं पोस्ट है, यानि चौथे वर्ष में पदार्पण 500 वीं पोस्ट के साथ होगा। आने वाले समय में पोस्ट्स की घट-बढ़ के साथ यह संख्या परिवर्तित हो सकती है। 
  • पोस्ट लिखे जाने तक 5073 टिप्पणियाँ [इस में समस्या-पूर्ति तथा वातायन की ठाले-बैठे में मर्ज होने से पहले की टिप्पणियाँ शामिल नहीं]
  • वातायन में अब तक 92 रचनाधार्मियों की रचनाओं का प्रकाशन
  • समस्या-पूर्ति आयोजनों में अब तक 46 रचनाधार्मियों की रचनाओं का प्रकाशन
  • एक लाख से अधिक पोस्ट व्युस 
  • फ्लेग काउंटर के ज़रिये क़रीब 69 देशों के 102 फ्लेग्स 
  • अब तक 38 प्रकार के छंदों पर जानकारी एवं चर्चा 
  • अब तक 20 प्रकार की ग़ज़ल की बह्रों पर जानकारी   
आप के प्रयासों की उपलब्धियों पर पहला अधिकार आप का है, इस लिये उपरोक्त जानकारियाँ पटल पर रखना ज़ुरूरी लगा। 

छन्द-साहित्य को समर्पित ठाले-बैठे के तीन साल पूरे होने के उपलक्ष्य में आने वाली पोस्ट भी किसी छन्द से बेपनाह मुहब्बत करने वाले की हो, ऐसा मन में था। आदरणीय सलिल जी की पोस्ट आनी थी, परन्तु आचार्य जी एक विशेष पोस्ट पर मशक़्क़त कर रहे हैं इसलिये हम अपने अन्य सहधर्मी भाई श्री सौरभ पाण्डेय जी के दोहों से नवाज़ते हैं आज की पोस्ट को। संयोग वश दोहे भी भोजपुरी वाले हैं, अतएव मेरे भोजपुरी वाले सभी मित्रों का आभार-ज्ञापन स्वरूप भी है आज की पोस्ट। तो आइये पढ़ते हैं सौरभ जी के भोजपुरी दोहे :-  

जोन्ही भर के जोर पर, चिहुँकल छनकि अन्हार
ढिबरी भर के आस ले, मनवाँ सबुर सम्हार

रहि-रहि मन अकुतात बा, दुअरा लखन-लकीर
सीता सहमसु चूल्हि पर, बाया-बाया पीर

दर-दर भटकसु रामजी, रावन बड़हन पेट
चहुँप अजोध्या जानकी, भइली मटियामेट

तुलसी देई पूरि दऽ, भाखल अतने बात
बंस-बाँस के सोरि पर, कसहूँ नति हो घात

हमरो राजाराम के, लछमन भइले लाल
अँगना-दुअरा-खेत पर, सहमत लागो चाल

शब्दों का भावार्थ 
[जोन्ही - सितारे चिहुँकल - चौंकना छनकि - चट् से, छिनक कर अन्हार - अँधेरा सबुर - धीरज अकुताना - चंचल होना दुअरा - द्वार पर लखन-लकीर - लक्ष्मण-रेखा सहमसु - सहमती हैं चूल्हि - चूल्हा बाया-बाया - रोम-रोम पीर - दर्द, पीड़ा बड़हन - बहुत बड़ा चहुँप - पहुँच देई - देवी पूरि दऽ - पूरा कर दो भाखल -  भाखा हुआ, मनता माना हुआ अतने - इतना ही सोरि - जड़, मूल नति हो - मत हो घात - षड्यंत्र, आघात सहमत लागो चाल - मतैक्यता बनी रहे ]

शब्दों के भावार्थ से दोहों की भावदशा को समझ पाना सुगम हो सकेगा ऐसा विश्वास है. भोजपुरी भाषा की महत्ता किसी अंचल विशेष की भाषा होने के कारण नहीं है, बल्कि यह भाषा अपनी ठसक और अपने लालित्य दोनों के लिए जानी जाती है. कहना न होगा ऐसा अद्वितीय आचरण और अन्य भाषाओं में विरले मिलें. हाँ, दो भाषाएं अवश्य ही ऐसा आचरण निभाती दीखती हैं. उनमें से एक इसकी सहोदरा है, यानि, काशिका (बनारसी), तो दूसरी इसकी समभावी, यानि, अवधी. भोजपुरी भाषा का इतिहास जुझारुओं का इतिहास रहा है. जिजीविषा के परम भाव से आप्लावित जनों की भाषा ! और, इसके बाह्य और आंतरिक रूपों की प्रत्यक्ष भिन्नता और उनका प्रच्छन्न वैविध्य जानकारों तक को चकित करता है. प्रस्तुत दोहों के माध्यम से भोजपुरी भाषा के आंतरिक रूप के इसी लालित्यपूर्ण आचरण को समक्ष लाने का प्रयास हुआ है.  : [सौरभ पाण्डेय]

शर्ट-पेण्ट पहनना ग़लत नहीं है, कुर्सी टेबल पर बैठ कर खाने से भी कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ता, रोज़मर्रा की बातचीत में अङ्ग्रेज़ी गिट-पिट कर लेने से भी कोई भूकम्प नहीं आ जाता......... परन्तु यदि हम अपनी माँ-बोलियों को भूल गये तो कलेज़े को ज़िन्दगी भर ठण्डक के लिये तरसना पड़ेगा। अपनी बोलियों को न भूलें मेरे भाई, यदा-कदा जब भी मौक़ा मिले उसे कलम-बद्ध करते रहें।

सौरभ भाई आप के दोहों की तारीफ़ में बस इतना ही कहूँगा कि इन्होंने पोस्ट की शान बढ़ा दी। जियो भाई, ख़ुश रहो और ख़ूब साहित्य-सेवा करो। साथियो सौरभ जी चमत्कृति के बनिस्बत संदेश पर अधिक ध्यान देते हैं, जो कि साहित्य का बहुत ही महत्वपूर्ण अङ्ग है। आज कल चारों तरफ़ हम देख पा रहे हैं कि चटपटे शब्दों और अभिनव प्रतीकों की लाली-लिपिस्टिक लगा के कविता-माई को बड़ी ही ख़ूबसूरत-नचनिया बना के पेश किया जा रहा है, और उस के पक्ष में ढ़ोल-नगाड़े बजाते हुये काफ़ी कुछ शोर-शराबा भी किया जा रहा है। ऐसे में शांति से अपना संदेश देने में सक्षम कविता का भरपूर मान होना चाहिये। सौरभ जी आप के इन दोहों के सम्मान में मैं अपना एक शेर पेश करना चाहूँगा 

हमने गर हुस्न और ख़ुशबू ही को तोला होता
फिर तो हर पेड़ गुलाबों से भी हल्का होता 

नमस्कार


विशेष निवेदन :- कृपया जिन लोगों ने दोहे भेजने हैं वे सभी प्लीज कल [बुधवार, 9 अक्तूबर] तक भेज दें, ताकि दशहरा तक उन दोहों को शामिल किया जा सके। यह आयोजन सिर्फ़ दशहरा तक ही चलना है। 

मान बढ़ाओ देश का, कर नारी का मान - कल्पना रामानी

नमस्कार

खुर्शीद खैराड़ी भाई के दोहों ने माहौल में रंग जमा दिया है। उसी रंगत को और अधिक चटख बनाते दोहा मुक्तक ले कर आ रही हैं आदरणीया कल्पना रामानी जी। मञ्च के विशेष अनुरोध पर आप ने दोहा मुक्तकों की रचना की है, जिस के लिये मञ्च आप का आभारी है। दोहा मुक्तक आज कल अपने फ्लेवर के चलते कई रचनाधर्मियों को आकर्षित कर रहे हैं। दोहा मुक्तक में चार चरण होते हैं। चारों चरण बिलकुल दोहे के शिल्प के मुताबिक़ ही होते हैं। पहले, दूसरे और चौथे चरण की तुक समान और तीसरे चरण की तुक अ-समान होना अनिवार्य है। शेष इन मुक्तकों को देख कर भी आइडिया लगाया जा सकता है। दोहा मुक्तकों का ज़ायका आप को कैसा लगा, बताइएगा अवश्य:-

मेला है नवरात्रि का, फैला परम प्रकाश।
देवी की जयकार से, गूँज उठा आकाश।
माँ प्रतिमा सँग घट सजे, चला जागरण दौर।
आलोकित जीवन हुआ, कटा तमस का पाश।।

आस्तिकता, विश्वास में, भारत देश कमाल।
गरबा उत्सव की मचीचारों ओर धमाल।
शक्तिमान, अपराजिता, माँ दुर्गा को पूज।
अर्पित कर भाव्याञ्जलि , जन-जन हुआ निहाल।।

बड़े गर्व की बात है, भारत इक परिवार।
आता है जब क्वार का, शुक्ल पक्ष हर बार।
जुटते पूजा पाठ में, भेद भूल सब लोग।
दुर्गा मातु विराजतीं, घर-घर मय शृंगार।।

भक्ति-पूर्ण माहौल का, जब होता निर्माण।
दुष्ट-दुष्टतम रूह भी, बने शुद्धतम प्राण।
जीवन भर हों पाप में, रत चाहे ये लोग।
पर देवी से माँगते, मृत्यु-बाद निर्वाण।।

रमता मन नवरात में, त्याग, भोग-जल-अन्न।
इस विधि होता पर्व येनौ दिन में सम्पन्न।
मेले, गरबे, झाँकियाँ, सजते सारी रात।
देवी के आह्वान सेहोते सभी प्रसन्न।। 

दनुज नहीं तुम हो मनुज, मत भूलो इनसान।
नारी से ही बंधुवर, है आबाद जहान।
देवि-शक्ति माँ रूप है, नारी भव का सार।
मान बढ़ाओ देश का, कर नारी का मान।।

"मान बढ़ाओ देश का, कर नारी का मान"। काश यह बात उन दरिंदों को भी समझ आ जाती जिन्होंने पिछले साल राजधानी को शर्मसार किया था। आ. कल्पना दीदी, आप ने मेरी प्रार्थना स्वीकार की, उस के लिये पुन: आप का बहुत-बहुत आभार। तो साथियो, आनन्द लीजिये इन दोहा मुक्तकों और इन्हें नवाज़िए अपने सुविचारों के साथ। मैं तैयारी करता हूँ अगली पोस्ट की। 

नमस्कार  

विशेष निवेदन :- जिन साथियों ने अपने दोहे / दोहा मुक्तक भेजने हों, लास्ट में लास्ट बुधवार [9 अक्तूबर] तक भेजने की कृपा करें। 

मूरत को गलहार है, औरत को क्यूँ तौख - खुर्शीद खैराड़ी

नमस्कार

गरबा-डाण्डिया के साथ झूम-झूम जाने को आतुर सपनों की नगरी मुम्बई से आप सभी को सादर प्रणाम। हिन्दुस्तान यानि कोस-कोस पे पानी बदले तीन कोस पे बानी। अनेक भाषा-बोलियों से सम्पन्न है वह धरातल जहाँ पैदा होने का सौभाग्य मिला हम लोगों को। ये वह धरती है जहाँ तमाम अन्तर्विरोधों, असमञ्जसों और अराजकताओं के बावजूद आज भी गङ्ग-जमुनवी संस्कृति की जड़ें गहरे तक पैठी हुई हैं। इसी गङ्ग-जमुनवी संस्कृति की शोभा बढ़ाने आज हमारे बीच उपस्थित हो रहे हैं भाई खुर्शीद खैराड़ी फ़्रोम जोधपुर। आपने अपनी माँ-बोली खैराड़ी में भी दोहे भेजे हैं। तो आइये श्री गणेश करते हैं आयोजन का :-

राम घरों में सो रहे ,रावण है मुस्तैद
भोग रही है जानकी, युगों युगों से कैद

जगजननी जगदम्ब की, क्यूँ है मक़तल कोख
मूरत को गलहार है, औरत को क्यूँ तौख 

दीप जलाकर रोशनी, घर घर होती आज
फिर भी क्यूँ अँधियार का, घट-घट में है राज

सदियों से रावण दहन की है अच्छी रीत
फिर भी होती है बुरे लोगों की ही जीत

रोशन सारा देश है, जगमग जलते दीप
लेकिन अब भी गाँव हैं, अँधियारे के द्वीप

घर घर में आराधना, जिसकी करते लोग
उस देवी की दुर्दशा, देख हुआ है सोग

भूखे नंगे लोग है, गूँगी हर आवाज़
ग़ुरबत रावण हो गई, कौन करे आगाज़

दुर्गा दुर्गति नाशती, देती है सद्ज्ञान
फिर भी हम बन कर महिष,करते हैं अपमान

अँधियारे को जीतना, तुझको है 'खुरशीद'
जगमग करती भोर ही, तव दीवाली-ईद

तौख [तौक़] - कैदियों के गले में डालने की हँसली

खैराड़ी दोहावली

खांडा ने दे धार माँ, हाथां में दे ज़ोर
दुबलां रे हक़ लार माँ, सगती दूं झकझोर

चामुण्डा धर शीश पर, आशीसां रो हाथ
सामी रूं अन्याव रे, नीत-धरम रे साथ

जगमग जगमग दीवला, मावस में परभात
गाँव-गुवाङी चाँदणौ, कद होसी रुघनाथ

मंस-बली ना माँगती, सब जीवाँ री मात
दारू माँ री भेंट रो, भोपाजी गटकात

तोक लियो कैलास ने, रावण निज भुजपाण
नाभ अनय री भेद दी, एक राम रो बाण

कलजुग में दसमाथ रा,होग्या सौ सौ माथ
राम कठै घुस्या फरै, सीता इब बेनाथ

बरसां जूनी रीत है, बालां पुतलो घास
रावण मन रो बाळ लां, चारुं मेर उजास

जसयो हूं आछो बुरो, थारो हूं मैं मात
पत म्हारी भी राखजे, उजळी करजे रात

बायण थारे देवले, शीस  झुकाऊं आर
सब पर किरपा राखजे, बाडोली दातार

शब्दार्थ-खांडा-तलवार,दुबलां -कमज़ोर, रे-के, लार-साथ, सगती-शक्ति
सामी-सामने/विरुद्ध,रूं-रहूं,मावस-अमावस,गाँव-गुवाङी-गाँव तथा बस्ती
चाँदणौ-उजाला,कद-कब,रुघनाथ-रघुनाथ,मंस-माँसभोपाजी-पुजारी
चारुं मेर -चारों तरफ़,बायण-एक लोक देवी ,आर-आकरबाडोली -क्षेत्र विशेष की लोकदेवी

जे अम्बे
खुरशीद'खैराड़ी' , जोधपुर


मज़ा आ गया भाई। कुछ भी कहो देशी टेस्ट की बात ही अलग है। खैराड़ी भले ही हमारी माँ-बोली नहीं है पर ऐसा लाग्या खुर्शीद सा जी की आपणाँ मायड-बोली माँ ई बोल रया सी। भाई आप का बहुत-बहुत आभार, आप ने आयोजन का क्या ख़ूब श्री-गणेश किया है, जियो भाई, ख़ुश रहो।

दोस्तो ये वही दोहे हैं जो मैं कहना चाहता हूँ आप कहना चाहते हैं या कोई भी ललित कला प्रेमी कहना चाहेगा। यह विशेषता है इन दोहों की। इन में कुछ दोहे कुछ ज़ियादा ही ख़ास हैं, मुझे ख़ुशी होगी यदि उन दोहों को आप लोग कोट करें। तो साथियो आप आनन्द लीजिये इन दोहों का और मैं बढ़ता हूँ अगली पोस्ट की तरफ़। मुझे ख़ुशी होगी यदि आप लोग अपनी-अपनी माँ-बोली में कम से कम एक दोहा लिख कर भेजने की कृपा करें। 


विशेष निवेदन :- हाथ में पीलू की बेंत लिएँ घूमत भए मास्साब इधर आउते चीन्हौ तो कै दीजो कि जै बच्चन की किलास ए। 

नमस्कार।

हिन्दी ग़ज़ल सम्बन्धित प्रयोग - नवीन

आदरणीय विद्वत्समुदाय, सादर प्रणाम 

शायद मैं अभी तक ठीक से नहीं समझ पाया हूँ कि हिन्दी ग़ज़ल होती भी है या नहीं? और अगर होती है तो आख़िर होती क्या है? हिन्दी ग़ज़ल के बाबत अब तक जो कुछ पढ़ने-सुनने को मिलता रहा है, उस से अभी तक न तो पूर्णतया संतुष्टि मिल पाई है और न ही इस असंतुष्टि का कोई स्पष्ट कारण बताना ही सम्भव हो पा रहा है। ये कुछ-कुछ ऐसा है कि गूँगे को मिश्री का स्वाद। बस, मन में आया चलो तज़रूबा  कर के देखें, सो किया। दूसरी बात, मैंने कभी अपने एक भ्रातृवत मित्र, जिन की मैं बहुत इज्ज़त करता हूँ और उन का स्नेह भी मुझे सहज ही उपलब्ध है, से एक बार मैं ने हर्फ़ गिराये बग़ैर ग़ज़ल कहने के लिये गुजारिश की थी – बस तभी से मन में था कि ख़ुद मैं भी तो यह कोशिश कर के देखूँ!!!!! बस इन्हीं वज़्हात के चलते एक कोशिश की है। उमीद करता हूँ इसे अदीबों की मुहब्बतें मिलेंगी। विद्वत-समुदाय के तार्किक, उपयोगी और स्पष्ट सु-विचारों का सहृदय स्वागत है 


सतत सनेह-सुधा-सार यदि बसे मन में 
मिले अनन्य रसानन्द स्वाद जूठन में

समुद्र-भूमि, तटों को तटस्थ रखते हैं 
उदारवाद भरा है अपार, कन-कन में

विकट, विदग्ध, विदारक विलाप है दृष्टव्य
समष्टि! रूप स्वयम का निहार दरपन में

विचित्र व्यक्ति हुये हैं इसी धरातल पर   
जिन्हें दिखे क्षिति-कल्याण-तत्व गो-धन में

ऋतुस्स्वभाव अनिर्वाच्य हो गया प्रियवर  
शरीर स्वेद बहाये निघोर अगहन में


सतत – लगातार, सनेह = प्रेम, सुधा – अमृत, अनन्य – बेजोड़, रसानन्द – रस+आनन्द, जूठन – जूठा खाना [यहाँ, शबरी ने राम को जो जूठे बेर खिलाये थे उस प्रसंग के सन्दर्भ के साथ] समुद्र-भूमि – समन्दर और ज़मीन, तट – साहिल, तटस्थ – न्यूट्रल, उदारवाद – ऐसे हालात जहाँ दूसरों के लिये गुंजाइश हो [यहाँ मुरव्वतों की तरह भी समझा जा सकता है], अपार – अत्यधिक, काफी, विकट – भीषण, विदग्ध – जलन भरा [कष्ट-युक्त, विदारक – फाड़ने वाला / तकलीफ़देह यानि पीड़ादायक के सन्दर्भ में , विलाप – रुदन, रोना-धोना, [है] दृष्टव्य – दिखाई पड़ रहा हैसमष्टि – ब्रह्माण्ड के लिये प्रयुक्त, विचित्र व्यक्ति – अज़ीब लोग, धरातल – धरती, क्षिति – धरती, क्षिति कल्याण तत्व – धरती की भलाई की बातें, गो-धन – गायों के लिये इस्तेमाल किया है, ऋतुस्स्वभाव – ऋतु:+स्वभाव=ऋतुस्स्वभाव यानि मौसम का मिज़ाज, अनिर्वाच्य – न कहे जाने लायक, स्वेद – पसीना, निघोर अगहन में – घोर अगहन के महीने में [अमूमन नवम्बर, दिसम्बर]


बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ. 
मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन. 
1212 1122 1212 22


कल नवरात्रि का पहला दिन है, कल से नवरात्रि / नवदुर्गा / दशहरा आधारित दोहों वाला कार्यक्रम आरम्भ हो जायेगा। 

नाम उसका नहीं फ़साने में - अभिनव अरुण

नाम उस का नहीं फ़साने में,
मैं ही रुसवा हुआ ज़माने में ॥

उन चराग़ों को सौ दुआएँ दो,
ख़ुद जले तुम जिन्हें जलाने में ॥

इक भरम हैं चमन के रंगों-बू ,
है मज़ा तितलियाँ उड़ाने में ॥

जाने किस जाल में फँसे पंछी ,
बच्चे भूखे रहे ठिकाने में ॥

कैसे कह दूँ मकान छोटा है ,
उम्र गुज़री इसे बनाने में ॥

दर्द कब देखा तुम ने गंगा का ,
तुम तो मशगूल थे नहाने में ॥

ताज में वे भी दफ्न हैं 'अभिनव',
हाथ जिनके कटे बनाने में ॥

--- अभिनव अरुण

बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून.
फ़ाएलातुन मुफ़ाएलुन फ़ालुन.

2122 1212 22

तेरा हो या न हो, मेरा है वास्ता - आदित्य चौधरी

तेरा हो या न हो, मेरा है वास्ता
जाना पहचाना लगता है ये रास्ता

उसके खेतों से और उसके खलिहान से
छोटे जुम्मन की फूफी की दूकान से
उसके कमज़ोर काँधों के सामान से

है मेरा वास्ता, मेरा है वास्ता

माँगते भीख इंसान इंसान से
सर्द रातों से लड़ती हुई जान से
और हर गाँव में बनते वीरान से

है मेरा वास्ता, मेरा है वास्ता

आँख से जो न टपकी हो उस बूँद से
कसमसाते हुए दिल की हर गूँज से
बिन लिखे उन ख़तों के मज़मून से

है मेरा वास्ता, मेरा है वास्ता

करवटों से परेशान फ़ुटपाथ से
उस मुहल्ले के बिछड़े हुए साथ से
और हँसिए को थामे हुए हाथ से

मेरा है वास्ता, है मेरा वास्ता

उसके अल्लाह से और भगवान से
उसके भजनों से भी, उसकी अज़ान से
और दंगों में जाती हुई जान से

है मेरा वास्ता, मेरा है वास्ता

उसके चूल्हे की बुझती हुई आग से
उस हवेली की जूठन, बचे साग से
टूटी चूड़ी के फूटे हुए भाग से

है मेरा वास्ता, मेरा है वास्ता

कम्मो दादी की धोती के पैबंद से
और पसीने की आती हुई गंध से
उसके जूआ छुड़ाने की सौगंध से

है मेरा वास्ता, मेरा है वास्ता

उसकी छत से टपकती हुई बूँद से
सरहदों पर बहाए हुए ख़ून से
ज़ुल्म ढाते हुए स्याह क़ानून से

तेरा हो या न हो, तेरा हो या न हो, मेरा है वास्ता
जाना पहचाना लगता है ये रास्ता
कितना अपना सा लगता है ये रास्ता

मेरा है वास्ता, मेरा है वास्ता
मेरा है वास्ता, मेरा है वास्ता

: आदित्य चौधरी 
[संस्थापक - भारत कोष व ब्रज डिस्कवरी]

उफ़! मुशायरों की ये हालत - साजिद घायल

दोस्तो, दुबई में एक मुशायरा सुनने का मौक़ा मिला। सही मायनों में यह मेरा पहला एक्सपीरियन्स था। इस से पहले कभी ज़िन्दगी में ऐसा कोई मौक़ा नहीं आया था। बस यू ट्यूब पर ही देखा था बुजुर्गों को शायरी पढ़ते हुये और मस्त सामईन को मस्त होते हुये। बहुत कुछ एकस्पेक्ट कर रहा था इस ख़ूबसूरत महफ़िल से, और जब मुनव्वर राणा भाई मुशायरे की निज़ामत करने वाले हों, इक़बाल अशहर शेर पढ़ने वाले हों तो एक्सपेक्टेशन और भी ज़ियादा बढ़ जाती है। 

पर वहाँ जा कर मैंने जो माहौल देखा, जो मंज़र देखा उस ने मुझे यह फ़ैसला लेने पर मज़बूर कर दिया कि यह मेरा आख़िरी मुशायरा है। आज के बाद मैं ज़िन्दगी में कभी कोई मुशायरा सुनने नहीं जाऊँगा। इस मुशायरे को क़ामयाब मुशायरा बनाने के लिये हमारी असोसियेशन की टीम ने अपनी तरफ़ से कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यह उन की मेहनतों का और नेक-नीयती का ही नतीज़ा था जो यहाँ दूर परदेश में ऐसी महफ़िल सजी थी। शायरों / कवियों का हुजूम भी देखने लायक था। ऐसा लग रहा था मानो आसमान के जगमगाते तारे ज़मीन पर उतर आये हों। 

लेकिन जिस तरह की बेहूदगी और गंदगी से एक बड़ी जमात ने यह मुशायरा सुना है, उस ने मेरी आँखें नम कर दीं। मुनव्वर भाई तक का मज़ाक बनाया जा रहा था, एक बड़ी भीड़ को यह तक पता नहीं था कि मुनव्वर भाई हैं कौन? और उन का मक़ाम क्या है? हर शायर और ख़ास कर शायरा को इस बेदर्दी से जलील किया जा रहा था कि मैं बयान नहीं कर सकता। ऐसे-ऐसे जुमले कसे जा रहे थे मानो हम किसी मुशायरे में नहीं बल्कि किसी तवायफ़ के कोठे पर बैठे हों। अरे मैं तो कहता हूँ कि कोठों पर भी एक अदब होता होगा, यहाँ तो वह भी नहीं था। सारे भाई जो यह तमाशा देख रहे थे वो सब यू. पी. से बिलोंग करते थे। यक़ीन जानिये उन की इतनी बड़ी भीड़ होने के बावजूद मैं यह कहने पर मज़बूर हो गया एक भाई से कि "किसी की बे-इज़्ज़ती कर के आप बड़े नहीं हो जाओगे मेरे भाई " 

मैं तो इसी नतीज़े पर पहुँचा हूँ अगर 10 शेरो-शायरी से मुहब्बत करने वाले लोग हों तो सिर्फ़ वही आपस में बैठें और एक दूसरे को सुनें - सुनाएँ। इस तरह के घटिया और गिरे हुये लोगों को बुला कर मुशायरा करना उर्दू को गाली देना है,  उर्दू को नंगा कर के उस से मुजरा करवाने जैसा है। और क्या-क्या बताऊँ - सीटियाँ बजाई जा रही थीं। एक शायर............. नाम याद नहीं आ रहा ............... उन्होंने गिड़गिड़ा कर कहा भी "भाई उर्दू वैसे ही बुरे दौर से गुजर रही है, प्लीज आप सब से गुजारिश है कि सीटियाँ न बजाएँ , यहाँ कोई नौटंकी नहीं हो रही" .... मगर किसी पर कुछ भी फ़र्क नहीं पड़ा। 

क्यूँ होते हैं यह मुशायरे? क्या मतलब रह गया है ऐसे मुशायरों का? छी: मुझे तो अब घिन आ गयी है। अगर मेरी बातों से किसी के दिल को कोई चोट पहुँची हो तो मुझे माफ़ कर दीजिएगा, यह मेरी और सिर्फ़ मेरी जाती राय है............... मैं ग़लत भी हो सकता हूँ  

आबू धाबी से साजिद घायल via email - sajidghayel@gmail.com