
चले आओ किसी का डर नहीं है|
ये मेरा है तुम्हारा घर नहीं है|1|
पहुँच ही जाएगी कानों में तेरे|
मेरी आवाज अब बे-पर नहीं है|2|
यहाँ सब काम लेते हैं नजर से |
किसी के हाथ में खंजर नहीं है|3|
हुए हैं रहनुमा राहों के पत्थर |
मुझे अब ठोकरों का डर नहीं है|4|
हैं चेहरे पर यहाँ चेहरे हजारों |
हया आँखों में रत्ती भर नहीं है |5|
:- सुनील टाँकSuniltaank8@gmail.com
हुए हैं रहनुमा राहों के पत्थर |
जवाब देंहटाएंमुझे अब ठोकरों का डर नहीं है|4|
बहुत खूब।
जो राहों के पत्थरों से ही दोस्ती कर ले उसे पत्थरों का सख्त और नुकीलापन भी वरदान हो जाता है।
पहुँच ही जाएगी कानों में तेरे|
जवाब देंहटाएंमेरी आवाज अब बे-पर नहीं है|....
बहुत उम्दा शेर...वैसे पूरी ग़ज़ल भी कम नहीं है...
बधाई।
हुए हैं रहनुमा राहों के पत्थर |
जवाब देंहटाएंमुझे अब ठोकरों का डर नहीं है|4|
बहुत ख़ूब !
बहुत ही सुंदर ग़ज़ल है, हर एक शे’र शानदार, सुनील जी को बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंSUNIL SAHIB.....aksar kisi bhi ghazal men ek ya do sher hi haasile-ghazal hote hain..lekin aapki ghazalen iska apwaad hain..sher sher behad qeemati aur umdah ! - Manoj Azhar.
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