30 अप्रैल 2013

मेरे बच्चो ! इस धरती पर प्यार की गंगा बहती थी - आलम ख़ुर्शीद

जीवन तो है खेल तमाशा , चालाकी, नादानी है
तब तक ज़िंदा रहते हैं हम जब तक इक हैरानी है

आग हवा और मिटटी पानी मिल कर कैसे रहते हैं
देख के खुद को हैराँ हूँ मैं , जैसे ख़्वाब कहानी है

इस मंज़र को आखिर क्यूँ मैं पहरों तकता रहता हूँ
ऊपर ठहरी चट्टानें हैं , तह में बहता पानी है

मेरे बच्चो ! इस धरती पर प्यार की गंगा बहती थी
देखो ! इस तस्वीर को देखो ! ये तस्वीर पुरानी है

आलम ! मुझको बीमारी है नींद में चलते रहने की
रातों में भी कब रुकता है मुझ में जो सैलानी है
:- आलम ख़ुर्शीद

28 अप्रैल 2013

पाँच हाइकु - कैलाश शर्मा

दुर्गा की पूजा
कन्या की भ्रूण हत्या
दोगलापन.

रात का दर्द
समझा है किसने
देखी है ओस?

न जाने कब
फिसली थी उँगली
यादें ही बचीं

विकृत मन
देखे केवल देह
बालिका में भी.

नयन उठे,
बेरुखी थी आँखों में,
बरस गये
 
:- कैलाश शर्मा

27 अप्रैल 2013

हवस की आग ने पानी से जगमगा दी ज़मीन - नवीन

न जाने कैसी सियाही से लिखते थे कातिब ।
ग़ज़ल के पन्ने अभी तक दमकते हैं साहिब ।।

हवस की आग ने पानी से जगमगा दी ज़मीन ।
ग़लत नहीं है ज़रा भी ये तर्क है वाजिब ।।

मैं बे-गुनाह ज़मानत नहीं जुटा पाया ।
गुनाहगार नहीं हूँ, शरीफ़ हूँ साहिब ।।

मैं अपनी चाह की जानिब कभी न चल पाया ।
रवाँ है मौत की जानिब हयात का तालिब ।।

"कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है" ।
कि शेर कह के ‘तख़ल्लुस’ में टाँक दूँ ‘ग़ालिब’ ।।

- कातिब - लिखिया, पुराने समय में पैसा ले कर चिट्ठी, अर्ज़ी आदि लिखने वाले लोग
- वाजिब - उचित
- रवाँ है - जा रहा है, गतिमान है
जानिब - तरफ़, ओर, दिशा (में)
हयात का तालिब - जीवन को खोजने वाला

दूसरे शेर में पानी से बिजली बनाने का सन्दर्भ है 

नवीन सी. चतुर्वेदी 

21 अप्रैल 2013

चन्द अशआर - मयंक अवस्थी

तारों से और बात में कमतर नहीं हूँ मैं
जुगनू हूँ इस लिये कि फ़लक पर नहीं हूँ मैं

मियाँ मजबूरियों का रब्त अक्सर टूट जाता है
वफ़ाएँ गर न हों बुनियाद में, घर – टूट जाता है

इस तरह हमने समन्दर को पिलाया पानी

19 अप्रैल 2013

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी - तुलसीदास

राम जन्म

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी . 
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी .. 
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी . 
भूषन वनमाला नयन बिसाला सोभासिन्धु खरारी .. 

कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी किहिं बिधि करौं अनंता .

आँसू टपका और फिर यूँ उस के पैकर पर बैठ गया - नवीन


आँसू टपका और फिर यूँ उस के पैकर पर बैठ गया
जैसे इक पानी का क़तरा अस्ल गुहर पर बैठ गया
पैकर - देह / आकृति, गुहर - मोती
 
भोर हुई, चिड़ियाँ चहकीं, कलियों पर भँवरे बैठ गये
दीवाना दिल क्या करता, यादों के खँडर पर बैठ गया

उम्मीदों को मायूसी में ढलते देख रहा हूँ रोज़
हाय! दिलेनादाँ!! किस पत्थरदिल के दर पर बैठ गया

झूठ की बीन बजाएँ कब तक सच आख़िर सच होता है
जिसे भी थोड़ी इज़्ज़त दे दी वो ही सर पर बैठ गया
 
बहुत नचाता था सब को फिर उस का हश्र हुआ कुछ यूँ
चढ़ी नदी में बहता एक दरख़्त भँवर पर बैठ गया
दरख़्त - बड़ा पेड़
 
जब देखो तब सिर्फ़ अँधेरों की ही बातें करते हैं 
जाने किस मनहूस का साया अहलेनज़र पर बैठ गया

हम जैसे नादाँ अब तक नक्शे में ढूँढ रहे हैं राह   
उस को उड़ कर जाना था वो उड़ती ख़बर पर बैठ गया

ग़ज़ल रवानी की मुहताज़ नहीं, पर क्या कीजै हज़रत
ग़ज़ल का हरकारा ही जब अंतिम अक्षर पर बैठ गया

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

17 अप्रैल 2013

अज़्म ले कर जब सफ़ीने छूटते हैं - नवीन


अज़्म ले कर जब सफ़ीने छूटते हैं।
जलजलों के भी पसीने छूटते हैं॥
 अज़्म - संकल्प सफ़ीना - नाव,  जलजला - विकट तूफान

छुट नहीं पायेंगे यादों से मरासिम।
औरतों से कब नगीने छूटते हैं॥
 मरासिम - सम्बंध

झूठ-मक्कारी-दग़ा-रिश्वत-ख़ुशामद।
कितने लोगों से ये ज़ीने छूटते हैं॥
 ज़ीना - ऊपर जाने की सीढ़ियाँ

टूट ही जाती है बेऔलाद औरत।
ज्यों ही बछड़े दूध पीने छूटते हैं॥

चाँद जब खिड़की से बाहर झाँकता है।
बेढ़बों से भी क़रीने छूटते हैं॥
 क़रीना - यहाँ style मारने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है



:- नवीन सी. चतुर्वेदी

जिस के दिल में प्यार है, सीना उसी का चाक है - नवीन


जिसके दिल में प्यार है, सीना उसी का चाक है।
वरना तो माहौल काफ़ी ख़ुशगवार-ओ-पाक है॥


हमने अपने पाँव से काँटा निकाला है फ़क़त।
राह रुसवा हो गई, ये बात हैरतनाक है॥


सौ थपेड़े झेल कर भी बढ़ रहा है दम-ब-दम।
आदमी बहरे-फ़ना का अव्वली तैराक है॥


शौक़ से फिर छेड़ देना जंग लेकिन एक बार।
देख तो लें घर में कितने रोज़ की ख़ूराक है॥


क़ायदा बनने से पहले तोड़ना तय हो गया।
सारा सब तो दिख रहा है कैसी ये पोशाक है॥

क्या बतायें आप को मिलता है क्या बैराग में - नवीन


क्या बतायें आप को मिलता है क्या बैराग में
ख़ुशबुओं के सिलसिले बहते हैं ठण्डी आग में



बीस घण्टे जागती इस नस्ल को समझाये कौन
ज़िन्दगी बरबाद हो जाती है भागमभाग में



ये गुलो-बुलबुल तमाशे आप के सदके हुज़ूर
हम फ़क़ीरों को भला मिलना है क्या खटराग में



हाय अपने शह्र में भूखे पड़े हैं अज़नबी
आइये कुछ रत्न जड़ लें ज़िन्दगी की पाग में



और सब लमहे तो आयेंगे गुजर जायेंगे बस
चन्द घड़ियाँ ही पगेंगी वक़्त के अनुराग में



गर न मानो प्यार के पानी को छू कर देख लो
दिल की मिट्टी घुल नहीं पाती हवस के झाग में



झूठ-मक़्क़ारी की रबड़ी आप ही खायें 'नवीन'
हमको तो दिखते हैं छप्पन भोग रोटी-साग में 




:- नवीन सी. चतुर्वेदी

14 अप्रैल 2013

मैं दिल की स्लेट पे जो ग़म तमाम लिख देता - नवीन

मैं दिल की स्लेट पे जो ग़म तमाम लिख देता
कोई न कोई वहीं इन्तक़ाम लिख देता
इंतक़ाम - प्रतिशोध / बदला
 
ख़मोशियों को इशारों से भी रहा परहेज़
वगरना कैसे कोई शब को शाम लिख देता
शब - रात

मेरे मकान की सूरत बिगाड़ने वाले
तू इस मकान पे अपना ही नाम लिख देता

वहाँ पहुँच के भी उस की तलाश थी कुछ और
फ़क़ीर कैसे खँडर को मक़ाम लिख देता
मक़ाम - मंज़िल 

मेरे भी आगे कई पगड़ियाँ फिसल पड़तीं
जो अपने नाम के आगे इमाम लिख देता
इमाम - पंडित / मौलवी / पादरी वग़ैरह 

बहार आती है मुझ तक, मगर बुलाने पर
तो फिर मैं कैसे उसे फ़ैज़-ए-आम लिख देता  
 फ़ैज़-ए-आम - वह प्रगति / सुविधा / सुख जो जन-साधारण को सहज उपलब्ध हो 

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन  
1212 1122 1212 22 

बहरे मुजतस मुसमन मखबून

12 अप्रैल 2013

मयंक अवस्थी जी को श्रीमती सरस्वती सिंह स्मृति श्रेष्ठ सृजन सम्मान

साहित्य-सृजन हालाँकि किसी सम्मान का मुहताज़ नहीं होता फिर भी "एकनौलेजमेंट इज एकनौलेजमेंट"। समाज के द्वारा मिलने वाली प्रशस्ति बहुत उत्साह प्रदान करती है। विगत दिनों लखनऊ में 'तीसरी-आँख' के वार्षिक समारोह के दौरान भाई श्री मयंक अवस्थी जी को "श्रीमती सरस्वती सिंह स्मृति श्रेष्ठ सृजन सम्मान" प्रदान किया गया। मयंक अवस्थी जी के रचना संसार में ग़ज़ल, छंद के अलावा कवितायें और आलेख भी शामिल हैं। समीक्षा के क्षेत्र में उन्होंने नई राहें खोली हैं। सत्तर के दशक के आख़िरी वर्षों से उन का साहित्यिक सृजन अबाध रूप से ज़ारी है। विभिन्न पत्र पत्रिकायेँ उन्हें स-सम्मान छापती हैं। विभिन्न स्तरीय मंचीय कार्यक्रमों का हिस्सा भी बनते रहते हैं वह। पुरस्कार जिस रचना को मिला, पहले उसे पढ़ते हैं और फिर कार्यक्रम की कुछ झलकियाँ फ़ोटोस के माध्यम से 

 सितारा एक भी बाकी बचा क्या
निगोड़ी धूप खा जाती है क्या-क्या

फ़लक कंगाल है अब, पूछ लीजै
सहर ने मुँह दिखाई में लिया क्या

सब इक बहरे-फ़ना के बुलबुले हैं
किसी की इब्तिदा क्या इंतिहा क्या

जज़ीरे सर उठा कर हँस रहे हैं

10 अप्रैल 2013

संकलन - गुढ़ी पड़वा / सम्वतसर / नव-वर्ष के दोहे

बौर बौर है रसभरी,
ठौर-ठौर उत्कर्ष।
इसका मतलब आ गया,
नैसर्गिक-नव-वर्ष।।

मनुष्य महज एक सामाजिक प्राणी ही नहीं वरन बड़ा ही विलक्षण एवं मेधावी धावक है। जब भी मानव सभ्यता ने पहली साँस ली होगी, अवचेतन ने तुरंत भाँप लिया होगा कि बहुत लम्बे तक जाना है। इस यात्रा की गणना वग़ैरह सुचारु रूप से उपलब्ध रहे इसलिए दिन-घड़ी-वर्ष वग़ैरह का निर्धारण हुआ और यह सफ़र उबाऊ न हो जाये इसलिए पर्वों की स्थापना हुई। पर्व आज भी विभिन्न स्वरूपों में हमारे बीच विद्यमान हैं। होली-दिवाली-ईद-क्रिसमस जैसे तमाम त्यौहारों के अलावा कुछ और भी छोटे-मोटे पर्व हम सभी व्यक्तिगत स्तर पर मनाते रहते हैं, यथा - आज के दिन हमने घर लिया, आज के दिन हमारा बच्चा पहली बार बोला, आज के दिन पहली बार मिले वग़ैरह....  वग़ैरह.... । वर्षों का निर्धारण हो गया तो उन की गणना सुचारु रूप से विधिवत चलती रहे इस लिये नव-वर्ष मनाने की प्रथा शुरू हुई होगी जो कि विभिन्न स्थानकों / मान्यताओं के अनुसार आज भी जारी है। इस बार हमने सोचा क्यूँ न विक्रम संवत / नव-वर्ष / गुढ़ी पड़वा को केंद्र में रख कर एक आयोजन रखा जाये। होली के दोहे, दिवाली के दोहे के बाद नव-वर्ष के दोहे वाले आयोजन की नींव इस प्रकार रखी गयी। एक महत्वपूर्ण आलेख भी पोस्ट किया गया। दोहों को ले कर इस बार लोगों में उत्साह बहुत कम दिखने में आया है, सब के अपने-अपने कारण हो सकते हैं, ख़ैर..... । इस आयोजन में भी छन्द संदर्भित सम्पादन की बजाय पर्व को वरीयता दी गई है और सभी से विनम्र निवेदन है कि इन दोहों का पर्व के आनंद के रूप में ही रसपान करने की कृपा करें। हालाँकि सीनियर्स / जानकार इन दोहा संबन्धित त्रुटियों पर संबन्धित दोहाकार का ई-मेल के द्वारा ध्यानाकर्षण कर सकते हैं। यदि संबन्धित दोहाकार को आपत्ति न हो तो वह चर्चा यहाँ भी की जा सकती है ताकि अन्य व्यक्ति भी लाभान्वित हो सकें। सारांश में बस इतना ही कहना है कि उक्त 'ज्ञानवर्धक चर्चा' पर्व के आनंद पर भारी न पड़ जाये। तो आइये पढ़ते हैं हम सब के चहेते भाई आ. मयंक अवस्थी जी की टिप्पणियों के आलोक में नव-वर्ष आधारित दोहे 

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नव-वर्ष दोहा संकलन : प्रस्तुति : साहित्यानुरागी भाई श्री मयंक अवस्थी जी 


नवीन जी सदैव ही कुछ नवीन करने के लिये प्रयासरत रहते हैं, यही उनकी पहचान भी है। वो साधुवाद तथा प्रशंसा दोनो के हकदार है क्योंकि उनकी नशिस्त स्तरीय भी होती है, युगबोध के समस्त आयाम समेटे रहती है तथा प्रयोगवाद के लिये इसमे बड़ी गुंजाइश होती है। नवीन जी के आह्वान पर जो रचनाधर्मी अपनी रचनाओं से इन आयोजनों में शिरकत करते हैं वो ही इन आयोजनों के स्तम्भ भी हैं – पिछले तथा इस दोहा आयोजन में बेहद सशक्त स्रजन से हमारा साक्षात्कार हुआ।

डा. श्याम गुप्त

सृष्टि रचयिता ने किया, सृष्टि सृजन प्रारम्भ
चैत्र  शुक्ल  प्रतिपदा से, संवत्सर  आरम्भ

ऋतु बसंत  मदमा रही, पीताम्बर को ओढ़
हरियाली  साड़ी पहन,  धरती हुई विभोर

स्वर्ण थाल सा नव, प्रथम, सूर्योदय मन भाय
धवल  चांदनी  चैत की, चांदी सी बिखराय

फूले फले नयी फसल, नवल अन्न  सरसाय
सनातनी  नव-वर्ष  यह, प्रकृति-नटी हरषाय

शुभ शुचि सुन्दर सुखद ऋतु, आता यह शुभ वर्ष
धूम -धाम  से  मनाएं ,  भारतीय  नव-वर्ष

पाश्चात्य  नववर्ष  को, सब त्यागें श्रीमान
भारतीय  नववर्ष  हित, अब छेड़ें अभियान


श्याम जी के समर्थ कलम के हम अरसे से शाहिद रहे हैं –इस बार भी उनका प्रभावी और समर्थ सृजन इन दोहों के रूप में हमारे सम्मुख है। पहला दोहा बहुत मोहक है अपनी संस्कृति और अपनी मान्यतायेँ सर्वोपरि हैं –इस आत्मगौरव से ओतप्रोत है ये दोहा। दूसरे तीसरे और चौथे दोहे में श्याम जी वासंती क्षणो को जी रहे हैं पाँचवें में आह्वान है और उल्लास है तथा अंतिम में मश्वरा है –ये एक सुसंस्कृत और परिष्कृत भारतीय मानस की अभिलाषा और उद्गार हैं –उनके कलम को नमन !!!!



सौरभ पाण्डेय

वेला भावोदय शुभम्, तजें द्वेष आलस्य
संवत्सर नव कामना, भक्ति तुष्टि तापस्य

सार्थक यदि साधन सुलभ तथा सत्य आराध्य
शक्ति-ओज प्राकट्य हित जिष्णु भाव शुभ-साध्य

नव संवत की प्रतिपदा, प्रखर सनातन तथ्य
विक्रम वंशज के लिए, मुखर ऐक्य ध्रुव-सत्य

दही, बेल, मट्ठा, कढ़ी, सहिजन, गुड़, सतुआन
धूप, हवा, अमराइयाँ, चैत-रात की तान

थकते पाँव बिवाइयाँ, राह विकट मुँहजोर
पोर-पोर पुलका रही, लेकिन फिरसे भोर


सौरभ जी ने पाँच विविध रंगों से इस विषय को रंजित किया है – एक-एक शब्द इस साहित्यकार के बारे में उनके पाण्डित्य के बारे में तथा उनके कलम के सामर्थ्य के बारे में कुछ न कुछ अवश्य बता रहा है – आओ आलस का त्याग करो – परमात्मा के विभव से परिचित हो – परम्परा से जुड़ो – सात्विक आहार को नियमित करो और परिश्रम की प्रच्छन्न शक्ति को समझो – वाह !! बहुत बहुत दाद आपको !!!



ऋता शेखर मधु

चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा, मिले जगत को प्राण
नवसंवत्सर आज है, हरषित हुए कृषाण
कृषाण - किसान के अर्थ में लिया गया है 

जिमें केशरी भात अरु, बोलें मीठे बोल
गुड़ी पड़वा कहे हमें, मिलें सदा दिल खोल


ऋता जी ने अत्यल्प शब्दों में इस पर्व को सहज  ही बाँध दिया है –भाषा और अभिव्यक्ति पर उनका अधिकार है ही – उनको नमन !!



साधना वैद

मंगलमय हो आपका, गुड़ि पड़वा का पर्व,
विक्रम सम्वत् का करें, स्वागत सभी सगर्व

चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा, कर अम्बे का ध्यान,
जीवन निर्मल हो तेरा, पा ले यह वरदान

विक्रम सम्वत् दौड़ता, सरपट घोड़ा चाल
बाकी सबको छोड़ता, पीछे छप्पन साल

नीम पत्र गुड़ पुष्प का, करते वितरण आज
ध्वज फहराते गोधि का, गुडि पड़वा के काज

भारत के हर प्रांत में, हर जन में उल्लास ,
मना रहे नव वर्ष सब, भर मन में विश्वास


साधना जी का मै पुराना प्रशंसक हूँ उनके दोहे पढने की जिज्ञासा बहुत बार इण्टरनेट पर मुझे सर्च भी करवा चुकी है – ये पाँच दोहे सहज सुन्दर प्रवाहमय और बोधगम्य हैं और झरने जैसे स्वस्फूर्त और गतिमान हैं –ये दोहे भी हैं और शुभकामनायें भी –साधना जी का अभिवादन !!



अरुण कुमार निगम

ब्रम्हाजी ने  सृष्टि  रच , दिया  हमें  संसार
संवत्सर पर विष्णु ने, लिया  मत्स्य अवतार

चैत्र - शुक्ल की प्रतिप्रदा , सूर्योदय के साथ
हुआ जन्म इस सृष्टि का, चलो नवायें माथ

कोमल कोंपल नीम की, लें मिश्री के संग
रोग व्याधियाँ फिर कभी, नहीं करेंगी तंग

नवल-पुष्प नव-कोपलें, नव-जीवन नव-हर्ष
नया-अन्न ले आ गया , नव-संवत्सर वर्ष


अरुण कुमार निगम जी के दोहे पढ कर चित्त हर्षित हुआ –दो दोहे परम्परा पर और दो पृकृति के आलोक में शुभकामनाओं के सन्देश के रूप में उन्होंने कहे हैं –जो कि सशक्त हैं –उनके साहित्यकार के पास विविधता भी है और कशिश भी – ज़दीदियत भी है और शिल्प भी –बहुत बहुत आभार इन चार दोहों के लिये अरुण जी!!



पूर्णिमा वर्मन

दिशा दिशा में दीप रख द्वारे बंदनवार
नया साल खुशियाँ भरे जीवन हो गुलनार

पिछला संवत चल दिया अपनी लाठी टेक
चैत्र कहे शुभकामना नया साल हो नेक


पूर्णिमा जी ने अपनी व्यस्तता से समय निकाल कर  हमारा मन रखा और दो खूबसूरत दोहे कहे !!! गुलनार पर दोहा बाँधना कवि की सामर्थ्य है और दूसरा दोहा भी कथ्य और शिल्प की दृष्टि से विशेष है – पूर्णिमा जी  !! बहुत बहुत आभार इस सहयोग के लिये !!!



राजेन्द्र स्वर्णकार

नव संवत् का रवि नवल, दे स्नेहिल संस्पर्श
पल प्रतिपल हो हर्षमय, पथ पथ पर उत्कर्ष

चैत्र शुक्ल शुभ प्रतिपदा, लाए शुभ संदेश
संवत् मंगलमय ! रहे नित नव सुख उन्मेष

मधु मंगल शुभ कामना, नव संवत्सर आज
हर शिव वांछा पूर्ण हो हर अभीष्ट हर काज

नव संवत्सर पर मिलें शुभ सुरभित संकेत
स्वजन सुखी संतुष्ट हों, नंदित नित्य निकेत

जीव स्वस्थ संपन्न हों, हों आनंदविभोर
मुस्काती हैं रश्मियां, नव संवत् की भोर

हर्ष व्याप्त हो हर दिशा, ना हो कहीं विषाद
हृदय हृदय सौहार्द हो, ना हों कलह विवाद

हे नव संवत् !  है हमें तुमसे  इतनी आस
जन जन का अब से बढ़े आपस में विश्वास


राजेन्द्र स्वर्णकार—जी के बगैर न तो यहाँ  कोई आयोजन सम्पूर्ण होता है और न उनके बगैर कोई आयोजन अच्छा लगता है ---इस पटल पर वो अपने उद्दाम और प्रचंड संवेग के साथ मौजूद हैं –यह कलम जितना चलता है उतना ही अपने सम्मोहन में बाँधता चलता है –किस दोहे की कितनी प्रशंसा की जाय, कम होगी !!! प्रांजल भाषा, उत्कृष्ट शिल्प, वेगमयी काव्य-ऊर्जा और सर्वग्राही भावभूमि –और एक सम्पूर्ण कवि के पास क्या हो सकता है –सरस्वती माँ  का वरदान तो उन पर है ही लेकिन अपने समर्पण से भी उन्होंने साहित्य में गौरव प्राप्त किया है दूसरी बात कि साहित्य को गौरवान्वित भी किया है – मेरी सभी पाठकों से गुज़ारिश है कि उनको बार-बार पढें



डॉ० प्राची सिंह

नवसंवत शुभ आगमन , सृष्टि सृजन त्यौहार
मनस चरित उत्थान ही , मानवता शृंगार

सृष्टि सृजन शुचि पर्व यह, शुभ मुहूर्त नक्षत्र
नाद सनातन रीति का , गूँज उठे सर्वत्र

पुरुषोत्तम श्री राम का, नीर क्षीर सु-विवेक
चैत्र शुक्ल मंगल दिवस, हुआ राज्य अभिषेक

और अंत में प्राची जी आपको नमन !! आपने तयौहार, श्रंगार, नक्षत्र, सर्वत्र, सु-विवेक और अभिषेक जैसे शब्दो पर जो कमाल के दोहे बाँधे हैं उनके लिये मैं आपका आभारी हूँ और अंतिम दोहे ने भगवान राम के बारे में एक बेहद महत्वपूर्ण जानकारी भी दी है –यानी ये तिथि दीगर कारणो से भी शुभ है यानी शुभ्र है।




सभी मोती सुन्दर और भव्य हैं –लेकिन धागे यानी नवीन के बगैर चर्चा अधूरा रहेगा !! नवीन जी आप हैं इस माला के धागे –लेकिन आप अपने दोहे लेकर कहाँ भागे !! आपके दोहे कहाँ  है??!! –हा हा हा हा !! बहरकैफ़ बहुत बहुत मुबारक इस आयोजन के लिये ---- मेरे पास जी भर कर लिखने का समय नहीं है –तुमसे भी दिलफरेब हैं गम रोज़गार के –सभी को नव-वर्ष / गुडी पडवा की असीमित शुभकामनायें –मयंक



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विक्रम संवत आधारित नव-वर्ष की अनेक शुभकामनाओं सहित - आप का अपना - नवीन सी. चतुर्वेदी