न जाने कैसी सियाही से लिखते थे कातिब ।
ग़ज़ल के पन्ने अभी तक दमकते हैं साहिब ।।
हवस की आग ने पानी से जगमगा दी ज़मीन ।
ग़लत नहीं है ज़रा भी ये तर्क है वाजिब ।।
मैं बे-गुनाह ज़मानत नहीं जुटा पाया ।
गुनाहगार नहीं हूँ, शरीफ़ हूँ साहिब ।।
मैं अपनी चाह की जानिब कभी न चल पाया ।
रवाँ है मौत की जानिब हयात का तालिब ।।
"कभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है" ।
कि शेर कह के ‘तख़ल्लुस’ में टाँक दूँ ‘ग़ालिब’ ।।
- कातिब - लिखिया, पुराने समय में पैसा ले कर चिट्ठी, अर्ज़ी आदि लिखने वाले लोग
- वाजिब - उचित
- रवाँ है - जा रहा है, गतिमान है
जानिब - तरफ़, ओर, दिशा (में)
हयात का तालिब - जीवन को खोजने वाला
दूसरे शेर में पानी से बिजली बनाने का सन्दर्भ है
नवीन सी. चतुर्वेदी
सच है, सब लील लेगा अब यह..
जवाब देंहटाएंकभी कभी मेरे दिल में ख़याल आता है
जवाब देंहटाएंमैं शेर कह के ‘तख़ल्लुस’ में टाँक दूँ ‘ग़ालिब’
बहुत सुंदर!!
बहुत सुंदर.....
जवाब देंहटाएंग़ज़ल तुम कहो, लिखेंगे हम अपनी स्याही से,
जवाब देंहटाएंज़माने का क्या तब भी चलन यही था कातिब |
लिखी जाती है जब ग़ज़ल औरों की स्याही से,
वो पन्ने कुछ अधिक ही चमकदार होते हैं|
बज़ाहिर तो सियाही ही वरक़ पे हर्फ़ लिखती है।
जवाब देंहटाएंमशक़्क़त चीज़ क्या है, ये तो जो करता हो वो जाने।।