आँसू
टपका और फिर यूँ उस के पैकर पर बैठ गया
जैसे
इक पानी का क़तरा अस्ल गुहर पर बैठ गया
पैकर - देह / आकृति, गुहर - मोती
भोर
हुई, चिड़ियाँ चहकीं, कलियों पर भँवरे बैठ गये
दीवाना
दिल क्या करता, यादों के खँडर पर बैठ गया
उम्मीदों
को मायूसी में ढलते देख रहा हूँ रोज़
हाय!
दिलेनादाँ!! किस पत्थरदिल के दर पर बैठ गया
झूठ की बीन बजाएँ कब तक सच आख़िर सच होता है
जिसे
भी थोड़ी इज़्ज़त दे दी वो ही सर पर बैठ गया
बहुत नचाता था सब को फिर उस का हश्र हुआ कुछ यूँ
चढ़ी
नदी में बहता एक दरख़्त भँवर पर बैठ गया
दरख़्त - बड़ा पेड़
जब
देखो तब सिर्फ़ अँधेरों की ही बातें करते हैं
जाने
किस मनहूस का साया अहलेनज़र पर बैठ गया
हम
जैसे नादाँ अब तक नक्शे में ढूँढ रहे हैं राह
उस
को उड़ कर जाना था वो उड़ती ख़बर पर बैठ गया
ग़ज़ल
रवानी की मुहताज़ नहीं, पर क्या कीजै हज़रत
ग़ज़ल
का हरकारा ही जब अंतिम अक्षर पर बैठ गया
:- नवीन सी. चतुर्वेदी
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