तारों से और बात में कमतर नहीं हूँ मैं
जुगनू हूँ इस लिये कि फ़लक पर नहीं हूँ मैं
मियाँ मजबूरियों का रब्त अक्सर टूट जाता है
वफ़ाएँ गर न हों बुनियाद में, घर – टूट जाता है
इस तरह हमने समन्दर को पिलाया पानी
अपनी कश्ती किसी साहिल पे न मोड़ी हमने
तनहाइयों में ऊब रही है मशीनगन
जाने कहाँ फ़रार हुये इन्क़लाब सब
अब इक हक़ीर ही उस से शिनाख़्त माँगेगा
गुज़र के आग से जो बारहा निखर आये
बदन की प्यास वो शै है कि कोई सूरज भी
सियाह झील की बाँहों में डूब जाता है
ये दुनिया क्या सुधारेगी हमें, हम तो हैं दीवाने
हमीं लोगों ने अब तक अक़्ल दुनिया की सुधारी है
सोयी हुई है सुब्ह की तलवार जब तलक
ये शब है जुगनुओं के लिये ढाल की तरह
क्यूँ दौड़ के आती हैं इधर मौजें मुसलसल
क्या कम है समन्दर में जो साहिल में छुपा है
इंतिहा-ए-जब्र करता है वो अब
देख कर करता नज़रअंदाज़ है
मग़रिब की मदभरी हुई रातों में खो गया
इस घर में कोई लख़्तेजिगर रौशनी का था
कई सदियों से उस की मुंतज़िर थी
पर अब नर्गिस फफक कर रो पड़ी है
सीलन को राह मिल गयी दीमक को सैरगाह
अंजाम देख लीजिये घर की दरार के
सियासत के क़बीले की अजब शतरंज है यारो
यहाँ सरदार भी अक्सर पियादा बन के रहता है
हमें कुबूल जो सारे जहाँ नहीं होते
मियाँ यक़ीन करो तुम यहाँ नहीं होते
मैं बेलिबास ही शीशे के घर में रहता हूँ
मुझे भी शौक़ है अपनी तरह से जीने का
दुश्मन मेरे शिकस्त पे मुँह खोल कर हँसा
और दोस्त अपने जिस्म के अन्दर उछल पड़े
इक तेरी यादे-मुसलसल है मेरी आँखों में
वरना सहरा में कहाँ ऑस पड़ी रहती है
सूरज से रौशनी की रसद ख़त्म हो गयी
पर चाँद पे चढ़ा है मुलम्मा गुरूर का
जबीं पे चाँद की जैसे हो दाग़ की शुहरत
किसी की साख गिरा कर किसी ने नाम किया
यही अज़ाब है बेदार जो हुये हैं यहाँ
उन्होंने दार पे अपना सफ़र तमाम किया
मैं शिकस्त दे चुका था कभी बहरेबेकराँ को
मैं शिकस्त खा गया हूँ किसी अश्क़ेबेज़ुबाँ से
बदन-फ़रोश हुये आज रूह के रहबर
ये किस मक़ाम पे आदम की नस्ल पहुँची है
आलम में देखिये तो कहीं भी ख़ुदा नहीं
आलम ख़ुदा की सम्त इशारा ज़रूर है
ये सोच कर कि कोई आसमान मंज़िल है
ज़ुनूँ में अपना नशेमान जला दिया मैंने
तेरे कहे हुये से तुझ को जब घटाते हैं
तेरे बयान का सच क्या है जान जाते हैं
मेरे किरदार को यूँ तो ज़माना कृष्ण कहता है
मगर इतिहास का सब से सुनहला दिन रहा हूँ मैं
जुगनू हूँ इस लिये कि फ़लक पर नहीं हूँ मैं
मियाँ मजबूरियों का रब्त अक्सर टूट जाता है
वफ़ाएँ गर न हों बुनियाद में, घर – टूट जाता है
इस तरह हमने समन्दर को पिलाया पानी
अपनी कश्ती किसी साहिल पे न मोड़ी हमने
तनहाइयों में ऊब रही है मशीनगन
जाने कहाँ फ़रार हुये इन्क़लाब सब
अब इक हक़ीर ही उस से शिनाख़्त माँगेगा
गुज़र के आग से जो बारहा निखर आये
बदन की प्यास वो शै है कि कोई सूरज भी
सियाह झील की बाँहों में डूब जाता है
ये दुनिया क्या सुधारेगी हमें, हम तो हैं दीवाने
हमीं लोगों ने अब तक अक़्ल दुनिया की सुधारी है
सोयी हुई है सुब्ह की तलवार जब तलक
ये शब है जुगनुओं के लिये ढाल की तरह
क्यूँ दौड़ के आती हैं इधर मौजें मुसलसल
क्या कम है समन्दर में जो साहिल में छुपा है
इंतिहा-ए-जब्र करता है वो अब
देख कर करता नज़रअंदाज़ है
मग़रिब की मदभरी हुई रातों में खो गया
इस घर में कोई लख़्तेजिगर रौशनी का था
कई सदियों से उस की मुंतज़िर थी
पर अब नर्गिस फफक कर रो पड़ी है
सीलन को राह मिल गयी दीमक को सैरगाह
अंजाम देख लीजिये घर की दरार के
सियासत के क़बीले की अजब शतरंज है यारो
यहाँ सरदार भी अक्सर पियादा बन के रहता है
हमें कुबूल जो सारे जहाँ नहीं होते
मियाँ यक़ीन करो तुम यहाँ नहीं होते
मैं बेलिबास ही शीशे के घर में रहता हूँ
मुझे भी शौक़ है अपनी तरह से जीने का
दुश्मन मेरे शिकस्त पे मुँह खोल कर हँसा
और दोस्त अपने जिस्म के अन्दर उछल पड़े
इक तेरी यादे-मुसलसल है मेरी आँखों में
वरना सहरा में कहाँ ऑस पड़ी रहती है
सूरज से रौशनी की रसद ख़त्म हो गयी
पर चाँद पे चढ़ा है मुलम्मा गुरूर का
जबीं पे चाँद की जैसे हो दाग़ की शुहरत
किसी की साख गिरा कर किसी ने नाम किया
यही अज़ाब है बेदार जो हुये हैं यहाँ
उन्होंने दार पे अपना सफ़र तमाम किया
मैं शिकस्त दे चुका था कभी बहरेबेकराँ को
मैं शिकस्त खा गया हूँ किसी अश्क़ेबेज़ुबाँ से
बदन-फ़रोश हुये आज रूह के रहबर
ये किस मक़ाम पे आदम की नस्ल पहुँची है
आलम में देखिये तो कहीं भी ख़ुदा नहीं
आलम ख़ुदा की सम्त इशारा ज़रूर है
ये सोच कर कि कोई आसमान मंज़िल है
ज़ुनूँ में अपना नशेमान जला दिया मैंने
तेरे कहे हुये से तुझ को जब घटाते हैं
तेरे बयान का सच क्या है जान जाते हैं
मेरे किरदार को यूँ तो ज़माना कृष्ण कहता है
मगर इतिहास का सब से सुनहला दिन रहा हूँ मैं
दिल से बधाई कह रहा हूँ, नवीनभाईजी. आदरणीय मयंक अवस्थीजी को मेरा अभिनन्दन तथा बधाइयाँ सादर पहुँचा दें.
जवाब देंहटाएंकई-कई अश’आर मुझे देर तक सोचते रहने को बाध्य किया. आदरणीय मयंक जी की सोच का दायरा कितना विस्तृत है, उसकी बानग़ी है आप द्वारा चयनित उनके ये बेशकीमती मोती.
सादर