नमस्कार
हर साल, गर्मी की तरह सर्दी भी बढ़ती जा रही है। इस सर्दी
का असर हमारे आयोजन पर भी पड़ा है। उत्तर के अधिकतर साथी इस ठिठुरती ठण्ड में चाह कर
भी की बोर्ड पर उँगलियाँ नहीं चला पा रहे। ख़ैर, हम आयोजन को आगे
बढ़ाते हुये आज की पोस्ट में शेखर चतुर्वेदी और ऋता शेखर मधु जी के छंद
पढ़ते हैं। पहले शेखर चतुर्वेदी जी के छन्द :-
हम को वैसे तो सनम, लगते हैं सब नेक
मगर ढूँढने जायँ तो, मिलता सौ में एक
मिलता सौ में एक, नहीं टिकता है वो भी
चल देता मुँह फेर स्वार्थ पूरा होते ही
कह ‘शेखर’
कविराय भला ये कैसा जीवन
हृदय हुये संकीर्ण खो गया है अपनापन
तुम से मैं क्यूँ बोल दूँ, अपने दिल का हाल
हो सकता है ज़िन्दगी, भूले अपनी चाल
भूले अपनी चाल और इक रिश्ता टूटे
क्यूँ ऐसा बोलूँ जो कोई अपना रूठे
कह शेखर कविराय बड़े नाज़ुक हैं रिश्ते
अब इन की रक्षा करनी है हँसते-हँसते
मैं ही मैं दिखता जिसे और दिखे ना कोय
देर सवेरे ही भले निपट अकेला होय
निपट अकेला होय हुआ ज्यों वीर दशानन
कुछ भी रहा न शेष एक इस मैं के कारन
कह शेखर कविराय बुरा है दम्भ सदा ही
सब के हित की सोच भला होगा तेरा भी
मैं हर बार कहता हूँ, इस बार भी कहूँगा कि आज के दौर में जब नई पीढ़ी
चुटकुलों को ही कविता समझ बैठी है तो ऐसे में शेखर जैसे नौजवानों को अपने पूर्वजों
की राह पर चलता हुआ देखना बहुत हिम्मत देता है। शेखर को पढ़ने वालों ने नोट किया होगा
कि वह लगातार ख़ुद से, अपनों से और समाज से संवाद बनाये हुये हैं।
बिना लाग-लपेट के बात कहने में यक़ीन रखते हैं और इन के छंदों में अधिकांश वाक्य बहुत
प्रभावशाली हो गये हैं। “क्यूँ ऐसा बोलूँ जो कोई अपना रूठे”, “कुछ भी रहा न शेष एक इस मैं के
कारन “ या “सब के हित की सोच भला होगा तेरा भी” ऐसे वाक्य / मिसरे हैं जो पाठक / श्रोता को बरबस ही बाँध लेते
हैं।
साथियो हर आयोजन में हम कुछ न कुछ विषय विशेष पर फोकस करते हैं।
वर्तमान आयोजन में हम साथियों से परफेक्ट वाक्य बनाने के लिये निवेदन कर रहे हैं। पाद-संयोजन
से सुसज्जित, लयबद्ध, सहज, सरस, सार्थक और एक सम्पूर्ण
वाक्य एक्स्ट्रा एक्स्प्लेनेशन की सारी संभावनाओं को समाप्त कर देता है। ऐसा वाक्य
पाठक / श्रोता तक अपनी बात एक झटके में पहुँचा
देने में सक्षम होता है।
इस पोस्ट में आगे बढ़ते हुये हम पढ़ेंगे ऋता दीदी के छन्द :-
मैं मैं मैं करते रहे, रखकर अहमी क्षोभ
स्वार्थ सिद्धि की कामना , भरती मन में लोभ
भरती मन में लोभ, शोध कर लीजे मन का
मिले ज्ञान सा रत्न, मान कर लें इस धन का
करम बने जब भाव, धरम बन जाता है मैं
जग की माया जान, परम बन जाता है मैं
तुम ही मेरे राम हो, तुम ही हो घनश्याम
ओ मेरे अंतःकरण, तुम ही तीरथ धाम
तुम ही तीरथ धाम, भक्ति की राह दिखाते
बुझे अगर मन-ज्योत, हृदय में दीप जलाते
थक जाते जब पाँव, समीर
बहाते हो तुम
पथ जाऊँ गर भूल, राह दिखलाते
हो तुम
हम की महती भावना, मानव की पहचान
हम ही विमल वितान है, तज दें यदि अभिमान
तज दें यदि अभिमान, बने यह पर उपकारी
दीन दुखी सब लोग सहज होवें बलिहारी
कड़ुवाहट को त्याग, मृदुल आलोकित है हम
अपनाकर बन्धुत्व, वृहद परिभाषित है हम
मेरे नज़दीक ‘तुम’ वाले छन्द में ऋता
जी ने ‘राम’, ‘घनश्याम’, ‘तीरथधाम’ और ‘भक्ति’ को ‘मर्यादा’, ‘लीला’, ‘वानप्रस्थ’ और ‘सस्नेह-समर्पण’ के प्रतीक में लिया हुआ लगता है। मेरी ही तरह ऋता दीदी भी अपनी रचनाओं में
हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करतीं। उन का आग्रह रहता है कि हमें कमियाँ बतला दीजिये, सुधार हम ख़ुद करेंगे। दरअसल यही सही तरीक़ा है छन्द या ग़ज़ल सीखने का। शिल्प
और कमियों की जानकारी हो जाये बस। बात कहना आ जाये, इतना ही ज़रूरी
है और यह तभी हो सकता है जब हम उधार की कविता से परहेज़ करेंगे। इसे मैराथन दौड़ कहें
या कुछ और पर इस मञ्च के कई साथी इसी तरह मश्क़ कर रहे हैं। ऋता जी के छंदों में तीनों
शब्द अपने शास्वत अभिप्राय को ले कर हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं। ‘हम’ को ‘विमल-वितान’ कहने की बात हो या ‘बंधुत्व से वृहद’ की कल्पना, ऐसे विचार इन छंदों को भीड़ में अलग खड़ा कर
दे रहे हैं।
साथियो आप आनन्द लीजियेगा इन छंदों का, नवाज़ियेगा
अपनी टिप्पणियों से और हमें आज्ञा दीजिये अगली पोस्ट की तैयारी के लिये।
नमस्कार.....
बढ़िया प्रस्तुति-
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय-
आभार आदरणीया-
प्रोत्साहन हेतु सादर आभार रविकर सर !
हटाएंआ.ऋता दीदी एवं आ.शेखर जी के छंद दिल को छू गए हैं ,सुन्दर प्रस्तुति के लिए ढेरों बधाई
जवाब देंहटाएंसादर
आपको छंद पसंद आए खुर्शीद भाई, इसके लिए आभार !
हटाएंऋता जी के छंद बेहद सुंदर लगे। उन्हें हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंआपके प्रोत्साहन भरे शब्दों के लिए आभारी हूँ कल्पना दीदी !
हटाएंसुंदर भावपूर्ण छंदों की प्रस्तुति के लिए शेखर जी को हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंऋता जी ने बहुत ही सुन्दर छंद प्रस्तुत किये हैं ।
जवाब देंहटाएंविशेषकर अंत करण वाला । बंधाई
आपको छंद अच्छे लगे इसके लिए आभार शेखर जी...आपकी नव कुण्डलिया सार्थक एवं प्रभावशाली हैं..बधाई आपको !!
हटाएंवाह, सुन्दर रचनायें, पढ़वाने का आभार।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर सरस एवं सशक्त छंद ! आपकी समीक्षा ने उन्हें और नये आयाम दे दिये ! शेखर जी, ऋता जी व आप तीनों को ही हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंस्नेहिल शब्दों से रचना को मान देने के लिए आभार साधना जी !!
हटाएंआ. शेखर जी एवं ऋता जी के छंद अत्यंत भाव पूर्ण है इन सुन्दर मधुरिम छंदों के प्रस्तुति हेतु सादर हार्दिक बधाई.
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन हेतु सादर आभार आ० सत्यनारायण जी !!
हटाएंछंदों को पढ़कर लग रहा है कि इन पर काफी मेहनत की गई है। शेखर जी और ऋता जी दोनों को बहुत बहुत बधाई इन शानदार छंदों के लिए।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार धर्मेन्द्र जी.. दूसरी वाली (तुम शीर्षक पर) कुण्डलिया मैंने सिर्फ १५ मिनट में लिखी है...बाकी दोनो ने थोड़ा वक्त लिया|
हटाएंरचना को यहाँ पर स्थान देने के लिेए समस्यापूर्ति मंच का हार्दिक आभार...कुण्डलिया लिखना कठिन लगता था वह अब नहीं लग रहा...छंद विधान प्रस्तुत करने के लिेए आभार !!
जवाब देंहटाएंखूबशूरत,सुंदर प्रभावी कुंडलियों के लिए शेखर चतुर्वेदी और ऋता शेखर मधु जी.को बहुत बहुत बधाई,!
जवाब देंहटाएंRECENT POST -: आप इतना यहाँ पर न इतराइये.
प्रोत्साहन हेतु बहुत आभार धीरेन्द्र सर !!
हटाएंदोनों ही रचनाकारों ने भावों को बाखूबी समेटा है इन छंदों में ... मधुर, धाराप्रवाह और पठनीय कुंडलियाँ हैं ... बधाई दोनों को ...
जवाब देंहटाएंप्रोत्साहन हेतु बहुत आभार दिगम्बर नासवा सर !!
हटाएं----ऋता जी के छंद सुन्दर भावाव्यक्ति प्रस्तुत करते हैं....हाँ ..अहमी क्षोभ.. का अर्थार्थ मैं नहीं समझ पाया...
जवाब देंहटाएं---शेखर चतुर्वेदी के बिना आदि अंत एक वाली वेराइटी के कुण्डली छंद अच्छे बन पड़े हैं...बधाई ..
बहुत अधिक मैं मैं करने से मनुष्य के मन में अहंकार या अहम भाव पैदा होता है...यदि सामने वाला इंसान उसके अहम को स्वीकार न करे तो यह बात उसे नागवार लगती है...फिर वही अहम भाव मनुष्य में क्षोभ या दुख पैदा करता है |
हटाएंसच कहा ,सही अर्थ है......परन्तु यदि मैं, धरम व परम भी बन सकता है तो सामने वाला इंसान उसे क्यों नहीं स्वीकार करे तथा यह तथ्य जानकर किसी को भी अहमी क्षोभ क्यों होगा....
हटाएंमैं धरम व परम तभी बन सकता है जब अहमी इंसान मन का शोध करके यह भाव अपना ले कि कर्म करना ही सबसे बड़ा धर्म है...फिर अहमी क्षोभ विनम्रता में परिणत हो जाएगा ...और तब सामने वाला इंसान भी उसकी महानता स्वीकार कर लेगा|
हटाएंसच है... हाँ जब तक 'मैं ' कहने वाला इंसान यह सिद्ध न करदे कि उसका मैं .सिर्फ अहं है .परम एवं धरम नहीं है तब तक उसे अहमी नहीं कहा जा सकता न उसमें अहमी क्षोभ उत्पन्न होगा .... सुन्दर चर्चा हेतु धन्यवाद ......
हटाएंकाका हाथरसी जैसा शिल्प व व्यावहारिकता का पुट लिए हुए शेखर जी के भावपूर्ण छंद उत्कृष्ट हैं ..उन्हें हमारी और से बहुत-बहुत हार्दिक बधाई ....
जवाब देंहटाएंसनातनी शिल्प के साँचे में ढले हुए ऋता शेखर मधु जी के छंद स्वयं में अद्वितीय हैं ...उनकी छंद साधना को नमन ......सस्नेह