दोहे - रामबाबू रस्तोगी

हंस रेत चुगने लगे, बिना नीर का ताल।
मछुआरे खाने लगे , काट- काट कर जाल॥

जिसकी जैसी साधना , उसके वैसे भाग।
तितली कड़वी नीम पर , बैठी पिये पराग॥

सपनों के बाज़ार में , आँसू का क्या मोल।
यह पत्थर दिल गाँव है , यहाँ ज़ख़्म मत खोल॥

हरसिंगार की चाह में , हम हो गये बबूल।
शापित हाथों में हुआ , मोती आकर धूल॥

अलग-अलग हर ख़्वाब का, अलग- अलग महसूल।
एक भाव बिकते नहीं सेमल और बबूल॥

राजपथों पर रौशनी , बाकी नगर उदास।
उम्र क़ैद है चाँद को , सूरज को वनवास॥

घर का कचरा हो गये , अब बूढ़े माँ- बाप।
बेटे इंचीटेप से उम्र रहे हैं नाप॥


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