दोहे - राजमूर्ति 'सौरभ'


 

राधे! राधे!राधिका, मोहन!मोहन! श्याम।

दोनों ही जपने लगे,अपना-अपना नाम।।

 

एक दूसरे को जपें, निशिदिन, आठों याम।

साधारण प्रेमी नहीं, हैं राधा-घनश्याम।।

 

ख़ुशियाँ क़ाग़ज़ पर बनी, फूलों की तस्वीर।

ग़म देजाते हैं हमें,अश्कों की जागीर।।

 

सज्जन को करना पड़ा, दुर्जन का सम्मान।

ज्यों कोई मज़बूर हो, करने को विषपान।।

 

करे कबूतर गुटरगूँ, कोयल गाये गान।

होजाती है व्यक्ति की, वाणी से पहचान।।

 

एक लली वृषभानु की, दूजा नन्दकिशोर।

सम्मोहन में बँध गये, दोनों ही चितचोर।।

 

सबको व्याकुल करगयी, जनकसुता की पीर।

भनक किसी को कब लगी, जब रोये रघुवीर।।

 

धन्य निरखि मुख देवकी, मोहक ललित ललाम।

विपदा के घन छँट गये, प्रकट हुए घनश्याम।।

 

: राजमूर्ति 'सौरभ'

1 टिप्पणी:

  1. इन दोहों को प्रस्तुत करने के लिए हृदयतल से साधुवाद आदरणीय। प्रणाम

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