चहूँ ओर भूखे नयन, चाहें
कुछ भी दान।
सूखी बासी रोटियाँ, लगतीं रस
की खान।।
भूखीं आँखें देखतीं, रोटी के
कुछ कौर।
एक बार फिर ले गया, कागा
अपने ठौर ।।
लुटती पिटती द्रौपदी, आती सबके
बीच ।
अंधे राजा से सभी, रहते
नज़रें खींच।।
पेट धँसा, मुख
पीतिमा, आँखें थीं लाचार।
कल फिर एक गरीब का, टूटा
जीवन तार।।
यह कैसा युग आ गया, कदम कदम
पर रोग।
डरे - डरे रस्ते दिखें, मरे-मरे
सब लोग।।
जहाँ चलें दिखती वहाँ, पगलायी
सी भीड़।
आओ बैठें दूर अब , अलग बना
कर नीड़।।
डा. मधुर बिहारी गोस्वामी
VERY NICE
जवाब देंहटाएंजीवन की सच्चाई दिखाते दोहे।
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण अभिव्यक्ति