वे
लौट रहे हैं,
इस बार खाली हाथ
उनकी
जेबों में महज गांव का पता है
और
मर चुके पिता का नाम।
उनकी
आंखें सूनी हैं,
जैसे छीन ले कोई
मार
कर दो थप्पड़
वे
थप्पड़ और ठोकर खाकर लौट रहे हैं।
उनका
लौटना हर बार से अलग है।
इस
बार नहीं है कोई सामान
मसलन
पत्नी का पिटारा
नहीं
है माई के लिए लुग्गा
और
भाई के लिए लमका छाता।
उनका
लौटना, उनका नहीं है
वे
तो लौटने के लिए गए ही नहीं थे
वे
तो बसना चाहते थे बीराने देस में
वे
लौट रहे हैं ठीक उसी तरह
जैसे लौटता है हारी
हुई पलटन का सिपाही
वे
लौट रहे हैं,
जैसे खूंखार बाघ से बचकर भागती हुई लौटती है हिरनी
वे
लौट रहे हैं,
जैसे लौटे थे चित्रकूट से
भरत
वे
लौट रहे हैं,
अपनी खौफनाक यादों के साथ
वे
लौट रहे हैं,
जैसे लौटते हैं अंतिम
संस्कार के बाद परिजन
वे
लौट रहे हैं,
कभी वापस न आने की झूठी शपथ के साथ
वे
लौट रहे हैं,
जैसे लौटते हैं नदी जल के लिए हाथी
वे
लौट रहे हैं,
जैसे लौटा था पूस की रात का हलकू
वे
लौट रहे हैं जैसे लौटते हैं प्रवासी पक्षी
उनका
लौटना इतिहास में लौटना नहीं है
उनका
लौटना इतिहास को बदलना भी है
उनका
इस तरह आना असंभव को संभव बनाना था
वैसे
वे हर बार असंभव को संभव बनाते रहे हैं।
//
इति //
शैलेश
सिंह
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