[नया काम]
हम समन्दर हैं किनारों का भरम रखते हैं
उन से किस तर्ह निभे आप ही कहिये साहब
वो तो जब देखो तराज़ू पे क़लम रखते हैं
अब हमें तैश नहीं बल्कि तरस आता है
जब हथेली पे नज़रबाज़ रक़म रखते हैं
ऐ अँधेरो तु्म्हें किस बात का डर है हम से
हम तो सीने में जलन कम से भी कम रखते हैं
दिल के गमले में सिसकते हुये जज़्बात नहीं
ख़ुश्बु-ए-इश्क़ उड़ाते हुये ग़म रखते हैं
एक भी मन का मरज़ हम से मिटाया न गया
दुश्मनों को भी बड़े चाव से हम रखते हैं
हम भी औरों की तरह जिस्म के अन्दर एक दिल
सिर्फ़ सुन्दर ही नहीं सुन्द-र-तम रखते हैं
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अपनी हद पर ही कमोबेश क़दम रखते हैं
हम समन्दर हैं किनारों का भरम रखते है
जाने किस तर्ह ज़माने में लगा देते हैं आग
वो जो सीने में जलन कम से भी कम रखते हैं
क्या कहा जिस को भी चाहेंगे उठा देंगे आप
आओ इस बार तराजू पे कलम रखते हैं
ये भी सुन्दर है, सितमगर है, सलासिल, सरगुम
अब से दुनिया का भी इक नाम सनम रखते हैं
सलासिल - सिलसला का बहुवचन, बेड़ियाँ,
जंजीरें
सरगुम - जिस का आदि-अन्त न हो, एक ईश्वरीय
गुण
सिर्फ़ औज़ार के जैसा ही समझते हैं उसे
जिस हथेली पे नज़रबाज़ रक़म रखते हैं
तुम ही कहते थे ग़ज़ल ज़ख्मों को भर देगी 'नवीन'
तुम भी जिद छोड़ दो और हम भी कलम रखते हैं
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नवीन सी. चतुर्वेदी
फ़ाएलातुन फ़एलातुन फ़एलातुन फालुन
बहरे रमल मुसम्मन मखबून मुसक्कन
2122
1122 1122 22
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (19-10-2013) "शरदपूर्णिमा आ गयी" (चर्चा मंचःअंक-1403) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
तुम ही कहते थे ग़ज़ल ज़ख्मों को भर देगी 'नवीन'
ReplyDeleteतुम भी जिद छोड़ दो और हम भी कलम रखते हैं ..
बहुत खूब ... क्या बात कही है नवीन जी ... सुभान अल्ला ... काबिले तारीफ़ ...
वाह ..उम्दा ग़ज़ल...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteअब आ रहे हैं नवीन भाई अपने पुराने रंग में। पुराने नवीन भाई का स्वागत है।
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