नमस्कार
पिछली पोस्ट का अनुभव अच्छा नहीं रहा। ख़ैर, ये सब तो जैसे
होना ही था। मञ्च को इस बार एक और नये रचनाधर्मी के दोहे मिले हैं। नाम है
फणीन्द्र कुमार ‘भगत’ और आप देवास, मध्य-प्रदेश
से हैं। अन्तर्जालीय साहित्य-सेवा के विगत वर्षों में मैं ने रचनाधर्मी से अधिक
रचना को प्रधानता दी है। परिचय को वरीयता नहीं दी। जहाँ जो ग़लत लगा, बताने में संकोच नहीं किया और बेशक़ यह गुमान नहीं है बल्कि पाठकों को अच्छे-अच्छे छन्द पढ़वाने का दायित्व-बोध है यह। आइये सफ़र को आगे बढ़ाते हुये पढ़ते हैं
फणीन्द्र जी के दोहे:-
माता के आशीष से,
बिखरा.........ऐसा नूर
कृषक हुए खुशहाल सब,
फसल हुई भरपूर
जगराता में मातु के,
दर्शन करते लोग
कहीं चढाते पुष्प तो,
कहीं लगाते भोग
माँ कुष्मांडा ने रचा,
अद्भुत.....यह संसार
थोडे से ग़म भी रचे,
खुशियाँ रची अपार
धर्म ध्वजा की ओट में,
होता........पशु संहार
क्या सचमुच जग-तारिणी,
माँ करती स्वीकार?
दया धर्म का कर्म फल,
जीवन का आधार
माँ के सच्चे भक्त का,
होता........बेडा पार
माँ के हर इक रूप का,
करे ‘भगत’ गुणगान
छंद रचे हैं माप के,
समझो इन्हें........प्रमान
धर्म-ध्वजा की ओट में........... वाह क्या दोहा हुआ है, जी हाँ दोहा हुआ है, रचनाधर्मी को
बहुत-बहुत बधाई। इस उत्तम दोहे को प्रस्तुत करने का सौभाग्य मिला मुझे, मेरे लिये ख़ुशी की बात है। इसी आयोजन में खुर्शीद भाई का
‘मूरत को गलहार’,
अनाम जी का ‘तुम सौम्या, तुम चण्डिका', ओम प्रकाश जी का ‘यों गरबे में दीप’ तथा सौरभ पाण्डेय जी का ‘बाया-बाया पीर’ भी अपना जलवा बिखेर चुके हैं। आनन्द लीजिये इन
दोहों का। इस के बाद बस दो पोस्ट और।
अनुभव कैसे भी हों,उनका कुछ न कुछ अर्थ होता है - आज के दोहे भी उत्कृष्ट हैं
जवाब देंहटाएंमाता के आशीष से, बिखरा ऐसा नूर...सच में...माता के गुणगान से सभी आलोकित हैं...उत्कृष्ट दोहे!!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंसुंदर दोहों के लिए फणीन्द्र जी को बधाई
जवाब देंहटाएंधर्म ध्वजा की ओट में, होता पशु संहार
जवाब देंहटाएंक्या सचमुच जग-तारिणी, माँ करती स्वीकार ?
इस दोहे का संदेश न केवल मुखर है अपितु विन्द्वत भी है.
इस प्रस्तुति के समस्त दोहों के लिए भाई फणीन्द्रजी को हार्दिक बधाई व अनेकानेक शुभकामनाएँ.
सादर
सभी दोहे अति सुन्दर, निम्नवत दोहे के माध्यम से पशुबलि की सार्थकता पर लगा प्रश्न चिन्ह आज के प्रगत समाज को सोचने के लिए अवश्य बाध्य करता है !. आ. फणीन्द्र जी आपको हार्दिक बधाई एवं विजयदशमी की ढेरों शुभ कामनाओं सहित
हटाएंधर्म ध्वजा की ओट में, होता........पशु संहार
क्या सचमुच जग-तारिणी, माँ करती स्वीकार?
धर्म ध्वजा की ओट में, होता........पशु संहार
जवाब देंहटाएंक्या सचमुच जग-तारिणी, माँ करती स्वीकार?..
बहुत सुन्दर ... दोहे के माध्यम से सार्थक सन्देश देने में कामयाब हैं भगत जी ...
धर्म ध्वजा की ओट में, होता........पशु संहार.....
जवाब देंहटाएं------क्या वास्तव में आज भी पशु संहार होता है ? ( क्या कभी भी वास्तव में धर्म-ध्वजा हेतु होता भी था ???? )......यदि हाँ ...तो यह धर्म-ध्वजा की ओट में है --जो सदैवे ही अपराधियों के कार्य रहे हैं ...धर्म ध्वजा वास्ते नहीं .....
-----पशु ..मानव को कहा गया है जो माया के पाश में बांध जाता है ..... उस पशु का संहार करना ही धर्म-ध्वजा है...... पशुओं की बलि या संहार इसका अर्थ कभी नहीं रहा ....
आप सभी वरिष्ठजनों का कोटिशः आभार ! विलम्ब से उपस्थित होने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ. श्री नवीन सी. चतुर्वेदी जी का भी आभार जिन्होंने मेरे दोहों को यहाँ स्थान दिया. भविष्य में यदि अवसर मिला तो अपनी अन्य रचनाओं के साथ पुनः उपस्थित होने का प्रयास करूंगा. आप सभी का पुनः कोटिशः आभार.
हटाएंक्षमा करें उपरोक्त आय डी तकनिकी त्रुटी के कारण आ गयी है यह परिवार के किसी अन्य सदस्य की है.
हटाएंआप सभी वरिष्ठजनों का कोटिशः आभार ! विलम्ब से उपस्थित होने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ. श्री नवीन सी. चतुर्वेदी जी का भी आभार जिन्होंने मेरे दोहों को यहाँ स्थान दिया. भविष्य में यदि अवसर मिला तो अपनी अन्य रचनाओं के साथ पुनः उपस्थित होने का प्रयास करूंगा. आप सभी का पुनः कोटिशः आभार.