19 मई 2013

सुख चमेली की लड़ी हो जैसे - नवीन

मुहतरम बानी मनचन्दा साहब की ज़मीन ‘आज फिर रोने को जी हो जैसे’ पर एक कोशिश। 
आख़िरी वाले दो अशआर के सानी मिसरे बानी साहब के हैं

सुख चमेली की लड़ी हो जैसे
ग़म कोई सोनजुही हो जैसे

हमने हर पीर समझनी थी यूँ
गर्द, शबनम को मिली हो जैसे

ज़िंदगी इस के सिवा है भी क्या
धूप, सायों से दबी हो जैसे

आस है या कि सफ़र की तालिब
नाव, साहिल पे खड़ी हो जैसे 
सफ़र की तालिब - यात्रा पर जाने की इच्छुक 

सब का कहना है जहाँ और भी हैं
ये जहाँ बालकनी हो जैसे
जहाँ / जहान - संसार

क्या तसल्ली भरी नींद आई है
"
फिर कोई आस बँधी हो जैसे"

हर मुसीबत में उसे याद करूँ
"
आशना एक वही हो जैसे"
आशना - परिचित
  
:- नवीन सी. चतुर्वेदी


बहरे रमल मुसद्दस मखबून मुसक्कन
फाएलातुन फ़एलातुन फालुन

२१२२ ११२२ २२

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपने लिखा....हमने पढ़ा
    और लोग भी पढ़ें;
    इसलिए कल 20/05/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
    धन्यवाद!

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  2. बहुत बढ़िया....
    दाद हाज़िर है...

    सादर
    अनु

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  3. सुन्दर ग़ज़ल .....बधाई ...

    ज़िंदगी इस के सिवा है भी क्या
    धूप, सायों से दबी हो जैसे...में ..

    से दबी = में खिली ......किया जाये तो ज़िंदगी मकसद व मज़ा आजाये ...

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  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ..
    सुखभरी नींद उसे ही आती है जिसके मन में सुकून हो ..

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  5. बहुत खूब ... मज़ा आ गया नवीन जी ... गज़ल के सभी शेर अलग एहसास लिए ...

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  6. नन्हीं सी गजल पढ़के यूँ लगा
    मुकम्मल ज़िन्दगी पढ़ी हो जैसे .........

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