जो इतना ही गिला है तीरगी से
सहर सज कर दिखा दे रौशनी से
हरा कर तो दिया दिल को जला कर
मैं चाहूँ और क्या अब आशिक़ी से
मुझे तब्दीलियाँ कम ही करेंगी
शकर निकलेगी कितनी चाशनी से
मिरे दर पर नहीं आती मुसीबत
मैं ख़ुश होता अगर सब की ख़ुशी से
तसल्ली की फुहारें छोड़ती है
जुड़ी हो गर तजल्ली बन्दगी से
बशर लेते हैं यूँ मंदर के फेरे
कि जैसे भागते हों सब सभी से
:- नवीन सी. चतुर्वेदी
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