क़र्ज़ हैवानियत उठाती है।
क़िस्त इन्सानियत चुकाती है॥
शब के दर तक पहुँच न पाती है।
ओस दिन में ही सूख जाती है॥
हमने बस आसमान ही देखे।
हमने बस आसमान ही देखे।
नींद ज़र्रात को भी आती है॥
हम बचाते हैं लौ मुहब्बत की।
फिर यही लौ हमें जलाती है॥
एक पोखर समान है जीवन।
जिस में क़िस्मत कँवल खिलाती है॥
दिल के टुकड़े समेट लो हजरत।
तेज़-अश्कों की मौज़ आती है॥
तेज़-अश्कों की मौज़ आती है॥
:- नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरे
खफ़ीफ मुसद्दस मखबून
फाएलातुन
मुफ़ाएलुन फालुन
2122 1212 22
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें