मैं अपने होठों की ताज़गी को तुम्हारे होठों के नाम लिख दूँ - रमेश प्रसाद कँवल


 

मैं अपने होठों की ताज़गी को तुम्हारे होठों के नाम लिख दूँ । 

हिना से रौशन हथेलियों पर नज़र के दिलकश पयाम लिख दूँ ॥

 

अगर इजाज़त हो जानेमन तो किताबे-दिल के हर इक वरक़ पर ।

मैं सुबहे-काशी की रौशनी में अवध की मस्तानी शाम लिख दूँ ॥

 

बदन पै सावन की है इबारत नज़र में दौनों की एक चाहत ।

मेरे लबों को जो हो इजाज़त वफ़ा का पहला सलाम लिख दूँ ॥

 

जो दिलनशीं है सितम पै माइल उसे हर इक पल दुआएँ दूँ मैं ।

सुलगते सूरज से दूर रखकर अमन-सुकूँ का क़याम लिख दूँ ॥

 

मसर्रतों पै गहन प्रदूषण अवामी ख़ुशियाँ बिलख रही हैं ।

तुम्हीं बताओ ऐ मेरे रहबर कहाँ से बेहतर निज़ाम लिख दूँ ॥

 

डिलीट कर दूँगा उसके ग़म को मैं दिल के अब लैपटॉप से ही ।

ख़ुशी के जितने मिले हैं DATA उन्हें मैं दिलबर के नाम लिख दूँ ॥

 

रमेश प्रसाद कँवल

कभी तो दीन के दुखड़े कभी दुनिया नहीं मिलती - नवीन जोशी 'नवा'


कभी तो दीन के दुखड़े कभी दुनिया नहीं मिलती ।

कभी गायब है खेवय्या, कभी नय्या नहीं मिलती ॥

 

न कोई पेड़ मिलता है न कोई छत ही मिलती है ।

जहां हो धूप विधिना की वहीं छाया नहीं मिलती ॥

 

बड़ा संघर्ष हो जितना बड़ी उतनी ही होगी सीख ।

महाभारत न होता तो हमें गीता नहीं मिलती ॥

 

उसे राधा भी मिलती है उसे मीरा भी मिलती है ।

मगर कान्हा को राधा में कभी मीरा नहीं मिलती ॥

 

सिया-वर को नहीं समझे सिया को कैसे समझेंगे ।

कि जिसने राम को त्यागा उसे सीता नहीं मिलती ॥

 

नवीन जोशी 'नवा'

भाड़ में जाय ऐसा इन्क़लाब - नवीन सी. चतुर्वेदी

क़स्बाई संस्कृति के वाहक मध्यवर्गीय परिवार का एक होनहार लड़का रोज़ सुबह उठते ही घर के बाहर के चबूतरे पर बैठ जाता। 

अख़बार पढ़ता और रूस, अमरीका, जर्मन, जापान, चीन आदि-आदि की बातें ज़ोर-ज़ोर से बोलते हुए करता। 

साथ ही हर बार यह कहना नहीं भूलता कि अपने यहाँ है ही क्या? आदि-आदि। 

उस के अपने घर के लोग उसे डाँटते हुए कहते कि अरे बेटा अभी-अभी उठा है। ज़रा दातुन-जंगल कर ले। स्नान कर ले। घड़ी दो घड़ी रब को सुमिर ले। 

मगर वह नहीं सुनता। लोगों से बहसें लड़ाता रहता। 

उस के अनुसार सारे विद्वान विदेशों में हुए और भारत ने तो सिर्फ़ और सिर्फ़ पाखण्डियों को ही पैदा किया। 

उस लड़के के घर के लोग उसे बार-बार टोकते रहते, मगर वह सुनता ही नहीं।

ऐसे ही किसी एक दिन वह रोज़ की तरह बे-तमीज़ी पर उतारू था। उस के पिता उसे बार-बार टोक रहे थे। वह अनसुना करता जा रहा था। तभी अचानक पड़ोस वाले डेविड साब की वाइफ उस के लिए चाय बिस्कुट ले आई।

पट्ठा अपने बाप की बातों को धता बता कर चाय बिस्कुट के मज़े लेने लगा। 

इस पर उस के पिता आग बबूला हो कर उसे पीटने दौड़ पड़े। न जंगल गया न दातुन की। न नहाया। न रब को सुमिरा। और चाय बिस्कुट खाने लगा। 

उस लड़के के पिता उस लड़के को पीटते इस से पहले ही गली मुहल्ले के बहुत से लोग बीच बचाव में आ गए। 

जिनके घर से चाय और बिस्किटें आई थीं वह डेविड साब उस लड़के के पिता को समझाने लगे कि पण्डित जी आप का लड़का इन्क़लाबी है उसे पीटिये मत। उसे समझने की कोशिश कीजिये। 

यह सुन कर उस लड़के के पिता बोले कि :- 

"अगर सुबह उठ कर बिना दातुन जंगल किये चाय-बिस्किट निगलते हुए दूसरों की तारीफ़ और अपनों की बुराई करना ही इनक़लाब है तो भाड़ में जाय ऐसा इनक़लाब" । 

मैं ने जल को जल कहा, लोगों ने मछली सुना - हृदयेश मयंक


आज यूं हीं कुछ ........

हमेशा

सच को सच कहा

झूठ को झूठ

रहा जहां भी

पूरा रहा

नहीं होना था जहां

नहीं रहा कभी भी.

कोशिश की निभाने की

जीवन से

और रिश्तों से भी

नहीं रहा अबूझा

जीवन और रिश्तों में कहीं भी,कभी भी.

सहन शक्ति में

पूरे का पूरा गांव  था

गांव में किसान

खेतों में फसल बन जिया

बैलों की तरह सौंपता रहा कंधा

हांकते रहे किसिम किसिम के हलवाहे .

जल को जल कहा

लोगों नें  मछली सुना

आग और सूर्य  को समझा  जीवन स्रोत

लोग तापते रहे ईंधन की तरह

नींद और अंधेरों में  इंतज़ार किया

सुबह का. ( जो अभी तक नहीं आई )

जानते पहचानते हुए भी

चुप रहा  हर बार

लोगों नें कमजोरी समझी

और मैंनें शालीनता पर गर्व किया

हारा ग़ैरों से नहीं

अपनों नें हराया बार बार .

यही सब करते करते

जीया अबतक तमाम उम्र

सोचता हूँ कि

बीत जायें और शेष कुछ वर्ष

इसी तरह यूं हीं

अच्छे, भले, बुरों में।

( 69वें जन्मदिन की पूर्व संध्या पर  )

17 -09-2020

 

: हृदयेश मयंक

सम्पादक – चिंतन दिशा

मुम्बई के सम्माननीय वरिष्ठ साहित्यकार


कविता संग्रह 'एक ख़्वाब' एक सहज मन की अभिव्यक्ति

कभी तो वक़्त मुस्कुराएगाघड़ी को गुदगुदी लगाता हूँ। बड़े ही सहज भाव से एक बड़ी बात कह देने का हुनर लेखकपत्रकार और कवि हीरेंद्र झा को जैसे वरदान में मिला है। उनकी दूसरी किताब माय बुक्स प्रकाशन से प्रकाशित ‘एक ख़्वाब’ 68 कविताओं का एक संग्रह है। पुस्तक में प्रेम और जीवन ही नहीं समाज और राजनीति से प्रेरित भी कुछ रचनायें हैं। यह कवितायें कवि की सहज मन की अभिव्यक्ति हैं। कहीं-कहीं यह किताब एक टूटते मन को हिम्मत देने का काम भी करती है तो कहीं-कहीं जीवन दर्शन को एक नया आयाम रचती यह कवितायें पाठकों के दिल को छू जाती हैं। कुछ कविताओं में कवि ने कुछ दिलचस्प मुहावरों का प्रयोग भी किया है जो कविता को एक अलग तरह की गहराई देती है। कहीं-कहीं हास्य और व्यंग्य के भाव भी मुखर होते हैं तो कहीं आपकी पलकें भी गीली हो जाती हैं। यह किताब पढ़ने वालों के लिए एक ट्रीट की तरह है। कवि ने यह पुस्तक अपनी सभी पूर्व प्रेमिकाओं को समर्पित किया है। बता दें कि लेखक की यह दूसरी किताब है। इससे पहले 2018 में आई उनकी पहली किताब 'मीडिया के दिग्गजभी काफी चर्चित रही। जिसमें टीवीअख़बार और रेडियो के दिग्गजों के इंटरव्यू प्रकाशित हुए थे। लेखक की दोनों पुस्तक अमेज़न पर उपलब्ध हैं। जल्द ही लेखक की तीसरी पुस्तक भी बाज़ार में आ रही है।

    

एक छोटी सी कविता इसी पुस्तक से-

 

"उम्मीदें जो थक गयी होगी

भीतर से चटक गयी होगी

 

कई दिन हुए देखा नहीं है

खुशियां भटक गयी होगी

 

बोलने वाले भी चुप हैं शायद

कोई बात खटक गयी होगी

 

क्या याद हम भी आये होंगे

क्या वे पलकें छलक गयी होगी

 

क्या सब के सब बहरे ही होंगे

आवाज़ तो दूर तलक गयी होगी!"

प्रशंसा एक रोग है - रत्नेश मिश्रा

प्रशंसा एक रोग है, करने वाला भी रोगी, करवाने वाला भी रोगी। दुर्योग से यह रोग हर दौर में सत्ता- प्रतिषठान के केंद्र में रहा है। पहले राजदरबारों में दरबारी लोग होते थे, कवि होते थे जो राजा की प्रशंसा में गीत रचते थे, गाते थे, राजा खुश होता था और ऐसे लोगों को अशर्फियों और धन-दौलत से नवाजता था।

 

राजसत्ता बदल गई, लोकशाही का समय आया लेकिन न तो सत्ता का मूल चरित्र बदला और न ही खुशामद के रास्ते लाभ उठाने वाले लोगों का। अपनी सुविधा के लिए आप मौका और दस्तूर के हिसाब से 'प्रशंसा' शब्द को 'चापलूसी'  से रिप्लेस कर सकते हैं। आलोचनात्मक टिप्पणी करना तो जैसे दु्श्मनी को दावत देना हो गया है।

 

अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा उपहार है। यह आजादी हमें जिम्मेदार लोगों से प्रश्न करने का हक देती है। स्वस्थ लोकतंत्र में 'सवाल' और 'आलोचना' एक औषधि की तरह है। इससे सरकार और जिम्मेदार लोगों पर अंकुश रहता है। स्वस्थ आलोचना उन्हें सतर्क और सावधान रहना सिखाती है। लेकिन इन सभी का अगर दुरुपयोग होने लगे तो चीजें बद से बदतर भी होने लगती हैं।

 

मुंशी प्रेमचंद ने अपने एक लेख 'जीवन और साहित्य में घृणा का स्थान' में समझाते हुए लिखा कि-  अगर दया, करुणा, प्रशंसा और भक्ति का दुरुपयोग किया जाने लगे, तो वह दुर्गुण हो जायेंगे। अंधी दया अपने पात्र को पुरुषार्थ-हीन बना देती है, अंधी करुणा कायर, अंधी प्रशंसा घमंडी और अंधी भक्ति धूर्त।  इसी निबंध में प्रेमचंद यह भी समझाते हैं कि- निंदा, क्रोध और घृणा ये सभी दुर्गुण हैं, लेकिन मानव जीवन में से अगर इन दुर्गुणों को निकाल दीजिए, तो संसार नरक हो जायेगा।

 

यह निंदा का ही भय है, जो दुराचारियों पर अंकुश का काम करता है। यह क्रोध ही है, जो न्याय और सत्य की रक्षा करता है और यह घृणा ही है जो पाखंड और धूर्तता का दमन करती है। निंदा का भय न हो, क्रोध का आतंक न हो, घृणा की धाक न हो तो जीवन विश्रृंखल हो जाय और समाज नष्ट हो जाय।

 

कहते हैं प्रशंसा के घाव बड़े गहरे होते हैं, लेकिन यह लोग कहते भर हैं, अब इसका कोई मतलब नहीं रह गया है आजकल। पूरे कुएं में भांग पड़ी है, 'आत्ममुग्धता' इस दौर की सबसे बड़ी पूंजी है। प्रशंसा अब घाव नहीं करती, आपके सोचने के तरीके को बदल देती है। दिमाग में 'स्टीरियो टाइप' का निर्माण करती है। प्रशंसा, आलोचना, सवाल और टिप्पणी के संदर्भ में जो भूमिका मैं बना रहा हूं, उसके केंद्र में आज का मीडिया है।  

 

प्रशंसा जब किसी 'माध्यम' में हो और हद से ज्यादा हो तो समझ लीजिए जान बूझकर एक छवि गढ़ने की कोशिश की जा रही है। इसमें और भी कई चीजें शामिल हैं मसलन यह सब किस एजेंडे के तहत किया जाता है। संचार सिद्धांतों में शामिल 'एजेंडा सेटिंग थ्योरी' मीडिया के ऐसे चरित्र की पड़ताल करती है। इसके तहत खबरों के क्रम को व्यक्ति, समूह अथवा राजनीतिक दलों के हितों के अनुसार खास एजेंडे के तहत सेट किया जाता है। न कि न्यूज सेंस के आधार पर।

 

जिस एजेंडे को आगे बढ़ाना होता है उससे संबंधित खबरों पर मीडिया फोकस करता है, क्रम में उसे सबसे आगे रखता है और जिस खबर को महत्व नहीं देना है उसे या तो सबसे पीछे रखता है या कई बार रखता ही नहीं। 'एजेंडा सेटिंग थ्यौरी' के अनुसार जिन ख़बरों को क्रम में पीछे रखा जाता है अथवा उनकी प्रस्तुति को कमजोर किया जाता है, टारगेट ऑडियंस के मानस पटल पर उनकी प्रभावोत्पादकता कम हो जाती है।

 

दुनिया के सबसे घातक लड़ाकू विमानों में शुमार राफेल की पहली खेप बुधवार को आखिरकार भारत पहुंच गई। यह खुशी की बात है कि राफेल के भारतीय सेना में शामिल होने से देश की सुरक्षा चाक-चौबंद होगी, हमारी सेना और मजबूत होगी। 

 

यह रूटीन काम था, विमान का सौदा हो चुका था, उसे भारत आना ही था। लेकिन विमान की लैंडिंग से संबंधित खबर को सनसनी बनाकर उत्तेजनापूर्ण ढंग से पेश करना, भारतीय टीवी मीडिया की अगंभीर छवि को उजागर करता है।  ऐसा करना उन परिस्थितियों में जायज होता जब राफेल लड़ाकू विमान भारत में ही बने होते।

'सवाल' भारतीय मीडिया से गायब हो रहे हैं।  

 

देश कई तरह के संकट से जूझ रहा है। कोरोना संक्रमण के चलते अर्थव्यवस्था के धराशायी होने के चलते युवाओं के रोजगार छिन रहे हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत मीडिया में कुछ और है जमीन पर कुछ और। बिहार कोरोना से बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था और बाढ़ की दोहरी मार झेल रहा है। असम में भी बाढ़ की भयानक स्थिति है। ये सभी मुद्दे मीडिया के केंद्र में होने चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है। ये मुद्दे व्यवस्था जनित विसंगतियों को उजागर करेंगे, सरकार को सचेत करेंगे, इससे सरकारी मशीनरी में सक्रियता आएगी। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है।  

 

टीवी पर बहसों के नाम जहर उगला जा रहा है। दलगत राजनीति में अपनी विचारधारा के अनुरूप एक-दूसरे की आलोचना करना तो एक हद तक जायज भी है लेकिन अब आलोचना की जगहें खत्म हो चुकी हैं। लोग पक्ष-विपक्ष न होकर एक दूसरे के दुश्मन हो चुके हैं।  टीआरपी के लिए टीवी पर रोज युद्ध जैसी स्थितियां जानबूझकर निर्मित की जाती हैं। यहां तक कि लोगों ने टीवी पर एक-दूसरे को मां-बहन की गालियां देने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।  

 

मीडिया के कवरेज में आमूल-चूल परिवर्तन हुए हैं।  मीडिया समाज केंद्रित न होकर व्यक्ति-केंद्रित होता जा रहा है। कुछ नाटकीयता और अतिरंजना के साथ कार्यक्रम परोस कर दर्शकों को लुभाने की कोशिशें बदस्तूर जारी हैं। यह सही है कि मीडिया समाज का चौथा स्तम्भ होने के साथ- साथ एक व्यवसाय भी है, इसलिए उसे अपने व्यावसायिक हितों के अनुरूप भी काम करना होता है लेकिन वर्तमान में मीडिया का जो रूप है हमारे सामने है, वह विभत्स है।

 

खबरों को रोचक बनाने के सकारात्मक उपायों का आजमाया जाना गलत नहीं है लेकिन उसे विभत्स बनाकर, उसमें उत्तेजना और अमर्यादित भाषा का प्रयोग न केवल निंदनीय है बल्कि आपराधिक भी है। 

 

रत्नेश मिश्रा

(अमर उजाला काव्य कैफ़े)

मैंने भी मस्जिद तोड़ी है - अरमान आसिफ़ इक़बाल

मैंने भी मस्जिद तोड़ी है...जी हां, जब मेरी उम्र तकरीबन 16-17 साल की रही होगी...हमारे यहां एक पुरानी मस्जिद थी, जिसे बाद में नया किया गया...उस मस्जिद के एक हिस्से में मुस्लिम परिवार कई सालों से रह रहा था...बताया जाता था कि ये परिवार उस शख़्स का था जो कभी मस्जिद की देखभाल किया करते थे...उनके इंतकाल के बाद उनका परिवार मस्जिद के उस हिस्से में रहता रहा...परिवार में ग़रीबी के साथ-साथ लड़कियां भी थीं...परिवार पर आरोप था कि उनका चाल-चलन ठीक नहीं और ग़लत कामों में मुब्तला है...ख़ैर परिवार को मस्जिद से निकालने के लिए पूरा समुदाय एक था...परिवार मस्जिद छोड़ने को राज़ी नहीं था...कोर्ट-कचहरी और मुक़दमें तक बात पहुंच गई...आख़िर कोर्ट ने फ़ैसला मस्जिद की इंतज़ामिया कमेटी के हक़ में सुनाया और परिवार को उस हिस्से को ख़ाली करने का आदेश दिया...लेकिन परिवार इस लायक़ नहीं था कि कहीं और बसेरा कर सके...लिहाज़ा उन्होंने जगह नहीं छोड़ी...

दूसरी तरफ जर्जर हो रही मस्जिद की तामीर का काम शुरू हो चुका  था...लेकिन उस हिस्से में काम रुका था जिसमें वो परिवार रहता था...इंतज़ामिया कमेटी ने परिवार से समझौते की कोशिश की और उन्हें दूसरी जगह दिलाने की बात कही, पर मस्जिद मुख्य बाज़ार में होने की वजह से इस जगह की हैसियत कहीं ज़्यादा थी...हम सब नए-नए लड़के नमाज़ पढ़ने मस्जिद में जाया करते थे...एक दिन तय हुआ कि मस्जिद के उस हिस्से को भी गिराया जाएगा जिसमें परिवार रहता है...जुमे की नमाज़ के बाद का वक़्त रखा गया...सब सामान तैयार कर लिया गया...कुदाल, फावड़ा, सबकुछ...आख़िरकार हम सबने मिलकर मस्जिद के उस हिस्से को गिरा दिया...वो परिवार अब सड़क पर था...रो रहा था...चिल्ला रहा था...पर सब बेकार..

मेरे इस काम के बारे में मेरे घरवालों को इल्म नहीं था..ये सब मेरा फ़ैसला था जो मैंने कुछ लोगों के कहने पर किया..जब घरवालों को पता चला तो उन्होंने अच्छे से ख़बर ली...घटना के बाद कई दिनों तक मुझे नींद नहीं आई...हमेशा लगता रहा जैसे मैंने सवाब (पुण्य) के लिए कोई गुनाह तो नहीं कर दिया...शहर में और भी मस्जिदें थीं जहां मैं नमाज़ पढ़ सकता था...एक वही क्यों..उस दिन से मैंने सोच बदली और धर्म को दूसरे नज़रिए से देखना शुरू किया...हो सकता है इंतज़ामिया कमेटी अपनी जगह सही हो, पर मैं आज भी वो मंज़र सोचता हूं तो पछतावा होता है...क्या हमसे अपराध कराया गया था...

जी हां...हम जैसे नौजवान जो मंदिर या मस्जिद इबादत के लिए जाते हैं और हमारी श्रद्धा का फ़ायदा उठा लिया जाता है...हमें पता भी नहीं चल पाता हम क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं...कहने का मक़सद ये है कि जिस भी धर्म के नौजवान हों उनकी आस्था को अपराध में न बदला जाए..और नौजवानों से गुज़ारिश है कि वो अपनी आस्था को अपराध में न तब्दील होने दें...

 

अरमान आसिफ़ इक़बाल

वे लौट रहे हैं - शैलेश सिंह


वे लौट रहे हैं, इस बार खाली हाथ
उनकी जेबों में महज गांव का पता है
और मर चुके पिता का नाम।

उनकी आंखें सूनी हैं, जैसे  छीन ले कोई
मार कर दो थप्पड़
वे थप्पड़ और ठोकर खाकर लौट रहे हैं।

उनका लौटना हर बार से अलग है।

इस बार नहीं है कोई सामान
मसलन पत्नी का पिटारा
नहीं है माई के लिए लुग्गा
और भाई के लिए लमका छाता।

उनका लौटना, उनका नहीं है
वे तो लौटने के लिए गए ही नहीं थे
वे तो  बसना चाहते थे बीराने देस में

वे लौट रहे हैं ठीक उसी तरह
जैसे  लौटता है हारी  हुई पलटन  का सिपाही
वे लौट रहे हैं, जैसे खूंखार बाघ से बचकर भागती हुई लौटती है हिरनी
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटे थे  चित्रकूट से भरत
वे लौट रहे हैं, अपनी खौफनाक यादों के साथ
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटते हैं  अंतिम संस्कार के बाद परिजन
वे लौट रहे हैं, कभी वापस न आने की झूठी शपथ के साथ
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटते हैं नदी जल के लिए हाथी
वे लौट रहे हैं, जैसे लौटा था पूस की रात का हलकू
वे लौट रहे हैं जैसे लौटते हैं प्रवासी पक्षी

उनका लौटना इतिहास में लौटना  नहीं है
उनका लौटना इतिहास को बदलना भी है
उनका इस तरह आना असंभव  को संभव बनाना था

वैसे वे हर बार असंभव को संभव बनाते रहे हैं।
// इति   //
शैलेश सिंह

इस सन्नाटे शहर में - शैलेश सिंह



हम किस शहर में रह रहे हैं!,
शहर जो अब नहीं रहा कहीं से भी शहर
अपने उद्दात्त व भव्य सौन्दर्य को अर्थहीन करता
यह  सन्नाटे और खौफ़  का आलम  कैसे तारी हो गया!,
एक सियाह चादर फैल गई सबकी छतों, खिड़कियों और दरवाजों पर
भयानक आवाजें गूंजती रहती हैं अक्सर यहां की सड़कों पर
जबकि आलम यह था कि लोग अपनी ही आवाज़ को सुनने को तरसते थे
इतना शोर कि बहरे होने का अंदेशा हमेशा बना रहता था।

भेड़ियाधसान से शायद ही यह शहर कभी मुक्त हुआ हो
याकि होना चाहा हो,
भीड़ ही जिसकी शिनाख्त हो, भीड़ ही जिसकी मौसकी हो
और भीड़ ही जिसकी कभी न गायब होनेवाली रूह हो
यकायक जाने कहां चले गए सब?

सड़कें जिन्हें देखने की हसरत  लिए
लोग चले आते थे दुनिया के हर आबाद और नायाब  गांव व शहर से
जहां चलना हमेशा मौत से टकराने के मानिंद
ख़ौफज़दा होता था।

जहां परिन्दों, कुत्तों और मवेशियों का आना लगभग वर्जित था।

जहां हवाओं तक को जद्दोजेहद करनी पड़ती थी
जहां आसमान की नीलिमा खो गई थी
जहां लदे रहते थे हर सिम्त लोग
जहां कौवों और कोयलों में लोगों ने फर्क करना कभी मुनासिब नहीं समझा
याकि उन्हें फुर्सत ही कहां थी, अपने से बाहर झांकने की

जहां हव्वा की  प्यारी संतानें अपने हसीन सपनों के साथ इस शहर में  दाखिल होती थीं
और सप्ताह के दूसरे इतवार तक  वे भूल जातीं थीं अपनी मादरी जुबान
और समुद्र की लहरों के साथ तरंगें लेने लगतीं थीं ।

वह परदेसी इस शहर से कभी जुदा होना नहीं चाहता था,
अचानक ऐसी बिपदा , ऐसा कुदरत का क़हर, ऐसी बीमारी ऐसी गाढ़ी महामारी
कि कभी किसी भी फितरत से    क़ैद होनेवाला शहर
अपनी मोसकी की रव में मुत्लिबा रहनेवाला यह शहर
सन्नाटे की सांय- सांय -- भांय- भांय में विलीन हो गया।

सड़कें अब परिंदों की सैरगाह  में तब्दील चुकीं हैं
गोया ये कभी सड़कें थीं ही नहीं

कुत्ते खोजते रहते हैं आदम की औलादों को
जो  सरे-आम देखते- देखते गायब हो गए।

कभी - कभी जेठ की दुपहरी में अस्पताल की गाड़ी
दौड़ती है अपने सायरन की खौफ़नाक आवाजों के साथ।

एक आदमी खिड़की से देखता है
और कहता है-- हम इक्कीसवीं सदी के मोहन- जोदारों में आ गए हैं।

यहां निरीह चेहरे बंद आंखें लिए खड़े हैं।

यह शहर कहीं भूल तो नहीं गया अपनी रफ़्तार?

रफ़्तार और तेज रफ्तार जिसका वजूद था।

वह कैसे पस्त हो गया एक न दिखाई देनेवाले अणुजीव से।

हे समुद्र के शहर तुम लौटो अपनी पूरी रफ्तार के साथ,

अपने लोगों के साथ।
अपनी भीड़ के साथ
अपनी रूह के साथ,
अपनी अहर्निश  गति के साथ
अपने वर्तमान  में तुम लौटो,

ताकि लौट सकें जीवन,
ताकि लौट सकें आदम - हौव्वा की संतानें
जिनके हाथ संवारें तुम्हारा और अपना भविष्य
यह  विज्ञापन नहीं , कविता नहीं ,एक गुहार है विज्ञान से,
समुद्र से,
नदियों से
आसमान से
और उन कभी न दिखनेवाले तारों से
//इति//

शैलेश सिंह