मैंने भी मस्जिद तोड़ी है...जी हां, जब मेरी उम्र तकरीबन 16-17 साल की रही होगी...हमारे यहां एक पुरानी मस्जिद थी, जिसे बाद में नया किया गया...उस मस्जिद के एक हिस्से में
मुस्लिम परिवार कई सालों से रह रहा था...बताया जाता था कि ये परिवार उस शख़्स का
था जो कभी मस्जिद की देखभाल किया करते थे...उनके इंतकाल के बाद उनका परिवार मस्जिद
के उस हिस्से में रहता रहा...परिवार में ग़रीबी के साथ-साथ लड़कियां भी
थीं...परिवार पर आरोप था कि उनका चाल-चलन ठीक नहीं और ग़लत कामों में मुब्तला
है...ख़ैर परिवार को मस्जिद से निकालने के लिए पूरा समुदाय एक था...परिवार मस्जिद
छोड़ने को राज़ी नहीं था...कोर्ट-कचहरी और मुक़दमें तक बात पहुंच गई...आख़िर कोर्ट
ने फ़ैसला मस्जिद की इंतज़ामिया कमेटी के हक़ में सुनाया और परिवार को उस हिस्से
को ख़ाली करने का आदेश दिया...लेकिन परिवार इस लायक़ नहीं था कि कहीं और बसेरा कर
सके...लिहाज़ा उन्होंने जगह नहीं छोड़ी...
दूसरी तरफ जर्जर हो रही मस्जिद की तामीर का काम शुरू हो
चुका था...लेकिन उस हिस्से में काम रुका
था जिसमें वो परिवार रहता था...इंतज़ामिया कमेटी ने परिवार से समझौते की कोशिश की
और उन्हें दूसरी जगह दिलाने की बात कही,
पर मस्जिद मुख्य बाज़ार में होने
की वजह से इस जगह की हैसियत कहीं ज़्यादा थी...हम सब नए-नए लड़के नमाज़ पढ़ने
मस्जिद में जाया करते थे...एक दिन तय हुआ कि मस्जिद के उस हिस्से को भी गिराया
जाएगा जिसमें परिवार रहता है...जुमे की नमाज़ के बाद का वक़्त रखा गया...सब सामान
तैयार कर लिया गया...कुदाल, फावड़ा, सबकुछ...आख़िरकार हम सबने मिलकर मस्जिद के उस हिस्से को
गिरा दिया...वो परिवार अब सड़क पर था...रो रहा था...चिल्ला रहा था...पर सब बेकार..
मेरे इस काम के बारे में मेरे घरवालों को इल्म नहीं था..ये
सब मेरा फ़ैसला था जो मैंने कुछ लोगों के कहने पर किया..जब घरवालों को पता चला तो
उन्होंने अच्छे से ख़बर ली...घटना के बाद कई दिनों तक मुझे नींद नहीं आई...हमेशा
लगता रहा जैसे मैंने सवाब (पुण्य) के लिए कोई गुनाह तो नहीं कर दिया...शहर में और
भी मस्जिदें थीं जहां मैं नमाज़ पढ़ सकता था...एक वही क्यों..उस दिन से मैंने सोच
बदली और धर्म को दूसरे नज़रिए से देखना शुरू किया...हो सकता है इंतज़ामिया कमेटी
अपनी जगह सही हो, पर मैं आज भी वो मंज़र सोचता हूं
तो पछतावा होता है...क्या हमसे अपराध कराया गया था...
जी हां...हम जैसे नौजवान जो मंदिर या मस्जिद इबादत के लिए
जाते हैं और हमारी श्रद्धा का फ़ायदा उठा लिया जाता है...हमें पता भी नहीं चल पाता
हम क्या कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं...कहने का मक़सद ये है कि जिस भी धर्म के
नौजवान हों उनकी आस्था को अपराध में न बदला जाए..और नौजवानों से गुज़ारिश है कि वो
अपनी आस्था को अपराध में न तब्दील होने दें...
अरमान आसिफ़ इक़बाल
bahut hi badhya likha hai apne. Samaj me jagrukta ki zarurat hai.
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