दिन इक के बाद एक गुजरते हुये भी देख - मुहम्मद अल्वी

दिन इक के बाद एक गुजरते हुये भी देख
इक दिन तू अपने आप को मरते हुये भी देख

हर वक़्त खिलते फूल की जानिब तका न कर
मुरझा के पत्तियों को बिखरते हुये भी देख

हाँ देख बर्फ़ गिरती हुई बाल-बाल पर
तपते हुये ख़याल ठिठुरते हुये भी देख

अपनों में रह के किस लिये सहमा हुआ है तू
आ मुझको दुश्मनों से न डरते हुये भी देख

पैवंद बादलों के लगे देख जा-ब-जा
बगलों से आसमान कतरते हुये भी देख

हैरान मत हो तैरती मछली को देख कर
पानी में रौशनी को उतरते हुये भी देख

उस को ख़बर नहीं है अभी अपने हुस्न की
आईना दे के बनते सँवरते हुये भी देख

देखा न होगा तूने मगर इंतिज़ार में
चलते हुये समय को ठहरते हुये भी देख

तारीफ़ सुन के दोस्त से 'अल्वी' तू ख़ुश न हो
उस को तेरी बुराइयाँ करते हुये भी देख
:- मुहम्मद अल्वी

मफ़ऊलु फाएलातु मुफ़ाईलु फाएलुन
221 2121 1221 212
बहरे मुजारे मुसमन अखरब मकफूफ़ महजूफ

4 टिप्‍पणियां:

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  3. अपनों में रह के किस लिये सहमा हुआ है तू
    आ मुझको दुश्मनों से न डरते हुये भी देख..

    क्या बात है ....यही तो ज़ज्बा है ...

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