किसी कार्य के निष्पादन
के प्रथम चरण को श्री गणेश कहा जाता है। बहुत-बहुत-बहुत आधुनिक होने के बावजूद हम लोग
परम्परावादी हैं तो हैं। किसी भी कार्य के श्री गणेश के वक़्त एन्श्योर करते हैं, अच्छा
माहौल हो, अच्छी बातें हों वग़ैरह वग़ैरह...... । तो पूर्णिमा वर्मन
जी के दोहों से बढ़ कर शुभ सगुन और क्या होगा - इस आयोजन के श्री गणेश के लिये। पूर्णिमा
वर्मन...... एक ऐसा व्यक्तित्व जो लगातार साहित्य सेवा में तल्लीन है, निस्वार्थ भाव से गूगल महाराज / विकी बाबा को हज़ारों पृष्ठ समर्पित कर चुका
है तथा छोटे-बड़े का भेद रखे बग़ैर निरन्तर साहित्योत्थानार्थ सम्यक प्रयासों में संलग्न
रहता है। आइये शुरुआत करते हैं आयोजन की.....
कहते कहते रुक गई,
पीपल वाली छाँव
क्यों उदास होने लगे, उत्सव वाले गाँव
क्यों उदास होने लगे, उत्सव वाले गाँव
आसमान में भर गई,
कर्फ्यू वाली धूप
सहमा सहमा सा लगे, गुलमोहर का रूप
सहमा सहमा सा लगे, गुलमोहर का रूप
सोने वाली बज रही,
दोपहरी की झाँझ
अमलतास पर झूलता, मौन अगोरे साँझ
अमलतास पर झूलता, मौन अगोरे साँझ
अगोरना - प्रतीक्षा करना
दिन पछाँह की
हेठियाँ,
लू लश्कर के साथ
चाँदी वाला मन लिये, रात फेरती हाथ
चाँदी वाला मन लिये, रात फेरती हाथ
धूल-धूल होता रहा,
पगडण्डी का नेह
मृगतृष्णा गढ़ती रही, सड़कों वाली देह
मृगतृष्णा गढ़ती रही, सड़कों वाली देह
शहरों में बसने
लगे, सुविधा वाले लोग
माटी वाले प्यार में, लिखा रहा बस जोग
माटी वाले प्यार में, लिखा रहा बस जोग
अद्भुत, अनुपम, अति-सुन्दर................ किस दोहे की तारीफ़ करें और किसे छोड़ दें। बेहद
उम्दा..... वाह वाह वाह। इन दोहों के शिल्प का मनन करते हुये मन अघाता नहीं है.....
विलक्षण दोहे। प्रति-एक दोहा हम से सीधे सम्वाद स्थापित कर रहा है। शब्दों का चयन, वाक्यों का गठन और कथ्य की निष्पत्ति.... वह भी सुगम सरस..... हर एंगल से
ये दोहे पाठक को आकर्षित करने में सक्षम हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है ये दोहे आप को
भी अपने साथ बहा ले जायेंगे। तो आनन्द लीजिये इन दोहों का, अपने
विचारों से अवगत कराइये पूर्णिमा जी को और मैं आज्ञा लेता हूँ अगली पोस्ट की तैयारी
के लिये।
प्रणाम......
इस आयोजन की घोषणा सम्बन्धित पोस्ट पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें
आप के दोहे navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की कृपा करें
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आप के दोहे navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की कृपा करें
किस दोहे की तारीफ़ करें और किसे छोड़ दें। बेहद उम्दा..... वाह वाह वाह
जवाब देंहटाएंपूर्णिमा जी का काव्य पिटारा बहुटी ही गहरा है ... निस्वार्थ सेवा साहित्य की उनका स्तर कर्म है ... बहुत ही आनद आया इन्हें पढ़ने के बाद ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर दोहे हैं। पूर्णिमा जी का वर्षों का अनुभव इनमें सहज ही झलकता है। बहुत बहुत बधाई उन्हें इन शानदार दोहों के लिए और नवीन जी को अतिशय साधुवाद इन्हें प्रस्तुत करने के लिए
जवाब देंहटाएंचन्द्र किरण सा नाचता, दोहों का हर शब्द.
जवाब देंहटाएंरूप पूर्णिमा का करे, अंतर्मन नि:शब्द..
*
लय, रस, बिम्ब, प्रतीक हैं, मन-भावन आत्मीय!
जुड़ जमीन से दिखाते, प्रकृति छटा स्वर्गीय..
*
अमलतास-पीपल लगे, गले मिला आनंद.
गुलमोहर हँस लिख रहा, दोहा मधुरिम छंद..
*
भोग भोगता है शहर, होता रोग असाध्य.
जोगी हुई न जोग कर, गाँव विवश है बाध्य..
*
नमन पूर्णिमा जी! रचे, दोहे ज्यों आदित्य.
चकाचौंध इनमें नहीं, व्याप्त सुगढ़ लालित्य..
*
पूर्णिमा जी के सारे दोहे बहुत सुंदर हैं ....
जवाब देंहटाएंसभी दोहे बहुत उत्कृष्ट....
जवाब देंहटाएंशानदार, कथ्य में वज़नदार एवँ अर्थ में धारदार दोहे ! पूर्णिमा जी को बहुत-बहुत बधाई एवँ शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंदोहों की तारावली, पूर्ण चन्द्र के संग ।
जवाब देंहटाएंद्युति जिनमें है डोलती, अनगिन रंग-बिरंग ।।
बधाई, नवीन जी और पूर्णिमा जी को !
बहुत बहुत ही सुंदर दोहे...लय में पढ़ें तो गीत जेसे...पूर्णिमा दी एवं नवीन जी को बहुत-बहुत बधाई एवँ शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंसच कहा, कई बार पढ़ा, मन न भरा..
जवाब देंहटाएंbahut acchhe lage sare dohe .....
जवाब देंहटाएंप्रत्येक दोहा अनुपम,पढ़ने के बाद मन में प्रतिध्वनित होने लगते हैं !
जवाब देंहटाएंअद्भुत .....!!!
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर दोहे ...
जवाब देंहटाएंहमने टिप्पणी बाक्स में टाइप किया लेकिन सबमिट का संकेत चिन्ह ही नहीं था ! सो आपको भेज रहे हैं !
जवाब देंहटाएंसारे दोहे आत्मा में उतरते चले गए.......बेहद सुन्दर और मन को बांधने वाले दोहे ! पूर्णिमा जी को ढेर बधाई !
सादर,
दीप्ति
आ. पूर्णिमाजी एवं उनकी लेखनी को शत शत नमन करता हूँ. बेहद सुन्दर दोहे हैं.
जवाब देंहटाएंहर दोहा दर्शन भरा, है जीवन का सार
जवाब देंहटाएंअंतर्मन को छू गया, बहुत-बहुत आभार.....
कहते कहते रुक गई, पीपल वाली छाँव
क्यों उदास होने लगे, उत्सव वाले गाँव
शहर छीन कर ले गया, अधरों की मुस्कान
उत्सव होते थे वहाँ,पसरा है वीरान
आसमान में भर गई, कर्फ्यू वाली धूप
सहमा सहमा सा लगे, गुलमोहर का रूप
यत्र तत्र सर्वत्र है, जहरीला –सा धूम्र
सभी घटाते हैं यहाँ, एक दूजे की उम्र
सोने वाली बज रही, दोपहरी की झाँझ
अमलतास पर झूलता, मौन अगोरे साँझ
उगी कँटीली झाड़ियाँ, छाँव हो गई बाँझ
धूप नगाड़े पीटती,पवन बजाती झाँझ
धूल-धूल होता रहा, पगडण्डी का नेह
मृगतृष्णा गढ़ती रही, सड़कों वाली देह
डामर भी कम हो गया,अब पिघलेगा कौन
पगडण्डी के प्रश्न पर, नई सड़किया मौन
शहरों में बसने लगे, सुविधा वाले लोग
माटी वाले प्यार में, लिखा रहा बस जोग
सुविधा के आगोश में, सिमटे लोग तमाम
शहर जान पाया नहीं, सुख है किसका नाम
आज अवसर मिला कि अपनी प्रतिक्रिया दे रहा हूँ. कारण मुझे जानने वाले जानते हैं. और जो नहीं जानते वे समझ नहीं सकते सो कुछ कहने का क्या लाभ ! :-)))
जवाब देंहटाएंआदरणीया पूर्णीमा जी के छंद-प्रयास पर कुछ कहना उचित प्रतीत नहीं होता.
अमलतास पर झूलता, मौन अगोरे साँझ
इस एक पंक्ति पर सौ छंद-रचनाएँ निसार.
सादर
विलंब से पहुंचा हूं , लेकिन आनंद आ गया ...
अच्छे दोहे लिखे हैं आदरणीया दीदी पूर्णिमा वर्मन जी ने
बधाइयां और मंगलकामनाएं !
शुभकामनाओं सहित
सादर...
राजेन्द्र स्वर्णकार
बहुत सुन्दर दोहे!
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