23 जून 2012

बादशाहों का फ़क़ीरों से बड़ा रुतबा न था - कृष्ण बिहारी 'नूर'


कृष्ण बिहारी 'नूर'


बादशाहों का फ़क़ीरों से बड़ा रुतबा न था
उस समय धर्म और सियासत में कोई रिश्ता न था

शख़्स मामूली वो लगता था मगर ऐसा न था
सारी दुनिया जेब में थी हाथ में पैसा न था


 अच्छी लगती थीं मुझे भी अच्छी-अच्छी सूरतें
हाँ मगरउस वक़्त तक, जब तक तुम्हें देखा न था

तुम को छू कर फिर न वापस आएगी मेरी नज़र
मैंने सोचा था, पर इतनी दूर तक सोचा न था

ज़िन्दगी ने मौत को यूँ ही नहीं अपना लिया
थक चुकी थी और फिर आगे कोई रसता न था

:- कृष्ण बिहारी 'नूर'

9 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी लगती थीं मुझे भी अच्छी-अच्छी सूरतें
    हाँ मगरउस वक़्त तक, जब तक तुम्हें देखा न था

    तुम को छू कर फिर न वापस आएगी मेरी नज़र
    मैंने सोचा था, पर इतनी दूर तक सोचा न था

    इन अश’आर के लिये किस तरह से आपका शुक़्रिया करूँ ! बस हम नत हुए हैं.
    धर्म और सियासत में रिश्ता .. सब अपनी-अपनी बातें हैं. यहाँ हम चुप रहेंगे. बिना धर्म के हम लिखते नहीं. अव्वल, हम धर्म को समझते क्या हैं. ..
    इस ग़ज़ल में, इसकी कहन में बहुत जान है.

    सादर
    सौरभ पाण्डेय, नैनी, इलाहाबाद (उप्र)

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  2. शख़्स मामूली वो लगता था मगर ऐसा न था
    सारी दुनिया जेब में थी हाथ में पैसा न था

    सुंदर गज़ल गहन भाव लिये. नूर साहब का नूर दिखता है.

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  3. बादशाहों का फ़क़ीरों से बड़ा रुतबा न था
    उस समय धर्म और सियासत में कोई रिश्ता न था

    गज़ब की सोच ....बेहतरीन गज़ल

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  4. वाह..............

    बहुत बेहतरीन गज़ल.............
    शुक्रिया नवीन जी.

    सादर
    अनु

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  5. नूर साहब तो कमाल का लिखते हैं।
    नायाब ग़ज़ल ।

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