27 फ़रवरी 2013

रहे जो आईनों से दूर तो क़दम बहक गये - नवीन

नया काम 
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रहे जो आईनों से दूर तो क़दम बहक गये। 
और आईना उठाया तो, कई भरम बहक गये।। 

जहानेहुस्न का बड़ा अजीब सा है मस’अला। 
ज़रा कहीं हवा चली कि पेचो-ख़म बहक गये।। 

हमारी ओर देख कर यूँ मुस्कुराया मत करो। 
तुम्हें तो लुत्फ़ आ गया हमारे ग़म बहक गये।। 

उदास रात में जो दावा कर रहे थे होश का।
सहर हुई तो होश खोये और सनम बहक गये।। 

अब आप ही बताइये कि उनका क्या क़सूर है। 
चमक-दमक ने गुल खिलाये, मुहतरम बहक गये।। 




पुराना काम 
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जो आईना न देखेँ तो क़दम बहकने लगते हैं
और आईने को देखें तो भरम बहकने लगते हैं

भरम की गाँठ खोल कर बुलायें क्यूँ मुसीबतें
ज़रा हवा लगी कि पेचोखम बहकने लगते हैं
पेचोखम - शायरी में पेचोखम को टेढ़ी-मेढ़ी, जटिल, चक्कर / पेच दार जुल्फ़ों के लिये इस्तेमाल किया जाता है। इसे दुनियावी पेचोखम की तरह भी समझा जाता है।

जहानेहुस्न का बड़ा अज़ीब सा है मसअला
लटें बँधी न हों तो पेचोखम बहकने लगते हैं

हमारी ओर देख कर यूँ मुस्कुराया मत करो
क़सम से जानेमन तमाम ग़म बहकने लगते हैं

किसी के इंतज़ार में गुजारते हैं रात फिर
उदासियों के साथ सुब्ह-दम बहकने लगते हैं

नज़र के दर पे आयें गर चमक-दमक-लहक-महक
हमारी क्या बिसात मुहतरम बहकने लगते हैं

गिरफ़्त ही सियाहियों को बोलना सिखाती है

वगरना छूट मिलते ही क़लम बहकने लगते हैं

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

महफ़िलों को गुज़ार पाये हम - नवीन

महफ़िलों को गुज़ार पाये हम
तब कहीं ख़लवतों पे छाये हम

हैं उदासी के कोख-जाये हम
ज़िन्दगी को न रास आये हम

खाद-पानी बना दिया ख़ुद को
सिलसिलेवार लहलहाये हम

नस्ल तारों की जिद लगा बैठी
इस्तआरे उतार लाये हम

 रूह के होंठ सिल के ही माने
हरकतों से न बाज़ आये हम

फ़र्ज़ हम पर है रौशनी का सफ़र
नूर की छूट के हैं जाये हम

‘प्यास’ को ‘प्यार’ करना था केवल
एक अक्षर बदल न पाये हम

बस हमारे ही साथ रहती है
क्यों उदासी को इतना भाये हम

अब तो सब को ही मिलना है हमसे
छायीं तनहाइयाँ, कि छाये हम

शहर में आ के वो चला भी गया

थे पराये, रहे पराये हम


:- नवीन सी. चतुर्वेदी

बहरेख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून
फ़ाएलातुन मुफ़ाएलुन फ़ालुन
2122 1212 22

कृष्ण भजन - मान या मत मान मरज़ी है तेरी - नवीन

क्यूँ तेरी सौगंध खाऊँ साँवरे
मान या मत मान मरज़ी है तेरी
चीर कर दिल क्यूँ दिखाऊँ साँवरे
मान या मत मान मरज़ी है तेरी

हाँ मुझे तुझ से मुहब्बत हो गयी
बिन तेरे बीमार हालत हो गयी
मैं हक़ीक़त क्यूँ छुपाऊँ साँवरे
मान या मत मान मरज़ी है तेरी

तू भी अब रस्मेमुहब्बत को निभा
खुद-ब-खुद आ कर मुझे दिल से लगा
मैं ही क्यूँ हर दम बुलाऊँ साँवरे
मान या मत मान मरज़ी है तेरी

क़दम-क़दम पर ख़ूब सँभलने वाले हम - नवीन

क़दम-क़दम पर ख़ूब सँभलने वाले हम
अक्सर ठगे गये हैं, छलने वाले हम

बूँदों की मानिन्द टपकते रहते हैं
फ़व्वारों की तरह उछलने वाले हम

धनक हमारे आगे पानी भरती है
गिरगिट जैसे रंग बदलने वाले हम
धनक - इन्द्रधनुष

रोज़ सवेरे उठ कर आँखें मलते हैं
दुनिया की तस्वीर बदलने वाले हम

छेड़ न कृत्रिम बारिश करने वालों को
अड़े, तो जम सकते हैं, गलने वाले हम

फ़लक दिखाने वाले ख़ुद भी उड़ के दिखा
बातों से ही नहीं बहलने वाले हम

फ़लक - आसमान

23 फ़रवरी 2013

तेल और तिलहन के पंख निकल आये - नेहा वैद

पिछले साल मैंने आदरणीय वनमाली जी के घर पर एक नशिस्त में नेहा दीदी से यह गीत सुना था। कहने की ज़रूरत नहीं कि अच्छी रचनाएँ भले ही आंशिक रूप से परंतु मन-मस्तिष्क में दर्ज़ अवश्य हो जाती हैं। इस हफ़्ते अशोक अंजुम जी के मुम्बई आगमन पर हस्तीमल हस्ती जी ने नरहरि जी के निवास पर एक नशिस्त रखी। वहाँ दीदी से मैंने उस गीत को ठाले-बैठे के पाठकों के लिये भेजने का निवेदन किया................... आप को कैसा लगा यह गीत अपनी प्रतिक्रिया से ज़रूर अवगत कराएँ..............
कितने खर्चे तूने आँखों में झुठलाए हैं
कितनों को रोजाना यों ही कल पर टालेगी ।
जीवन-जोत हमेशा माँगे - तेल और बाती 
बिना तेल का दीपक,  माँ ! तू कैसे बालेगी ।। 

22 फ़रवरी 2013

कई दिनों से किसी का कोई ख़याल नहीं - नवीन

कई दिनों से किसी का कोई ख़याल नहीं
अजीब हाल है फिर भी हमें मलाल नहीं



कई दिनों से ये जुमला नहीं सुना हमने
भले भुला दे मगर कल्ब (दिल) से निकाल नहीं



तेरा ज़वाब न देना ज़वाब है लेकिन
मेरा सवाल न करना कोई सवाल नहीं



अब इस से बढ़ के तेरी शान में कहूँ भी क्या
तेरा कमाल यही है तेरी मिसाल नहीं



जनम के बाद दुबारा वली न बन पाये
क़ज़ा के बाद भी ओहदा हुआ बहाल नहीं











:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

21 फ़रवरी 2013

सवैया, घनाक्षरी, दोहा, सोरठा

कृष्ण के छन्द

आज़ कुछ फुटकर छन्द। पहले तीन दुर्मिल सवैया :-


मन की सुन के मन मीत बने तब कैसे कहें तुम हो बहरे।
पर बात का उत्तर देते नहीं यही बात हिया हलकान करे।
सच में तुमको दिखते नहीं क्या अपने भगतों के बुझे चहरे।
दिखते हैं तो मौन लगाए हो क्यूँ, जगदीश तो वो है जो पीर हरे।।

नव भाँति की भक्ति सुनी तो लगा इस जैसा जहान में तत्व नहीं।
जसुधा की कराह सुनी तो लगा तुमरे दिल में अपनत्व नहीं।
तुम ही कहिये घन की गति क्या उस में यदि होय घनत्व नहीं। 

20 फ़रवरी 2013

रौशनी में हर हुनर दिखता है और बेहतर हमें - नवीन

रौशनी में हर हुनर दिखता है और बेहतर हमें
साया दिखलाती है मिट्टी आईना बन कर हमें

चाक पे चढ़ जाता है अक्सर कोई दिल का गुबार
बैठे-बैठे यक-ब-यक आ जाते हैं चक्कर हमें

घुप अँधेरों में घुमाया दहशतों के आस-पास
और फिर हैवानियत ने दे दिया खंजर हमें

ज़ह्र पीना कब किसी का शौक़ होता है ‘नवीन’
दोसतों के वासते बनना पड़ा शंकर हमें

उन के जैसा बनने को हमने हवेली बेच दी
देख लो सैलानियों ने कर दिया बेघर हमें


नवीन सी. चतुर्वेदी

17 फ़रवरी 2013

कुछ सुखद एहसास


कुछ सुखद एहसास :-

मनुष्य यदि प्रसन्नता के क्षणों में प्रसन्न न हो सके, अपनी प्रसन्नता अपनों के साथ साझा करने में संकोच करे - तो वह विशिष्ट व्यक्ति तो हो सकता है - साधारण मनुष्य हरगिज़ नहीं। मैं ख़ुद को साधारण मनुष्य समझता हूँ इसलिए दो सुखद एहसास आप के साथ साझा करना चाहता हूँ।

सतसई कर्ता महाकवि बिहारी के भानजे सरकार कृष्ण कवि जी [विक्रम संवत 1740 के आस पास] ने बिहारी सतसई की काव्यात्मक टीका प्रस्तुत की थी। ब्रज डिस्कवरी पोर्टल से ज्ञात हुआ कि ये कृष्ण कवि जी ककोर थे / हैं। ककोर एक अल्ह है मथुरा के चतुर्वेदियों की। गर्व और हर्ष की अनुभूति के साथ कहना चाहता हूँ कि मैं ककोर हूँ।

'यमक-मंजरी' के माध्यम से यमक अलंकार पर एकमेव ऐतिहासिक प्रस्तुति देने वाले श्री चतुर्भुज पाठक 'कंज' कवि जी [विक्रम संवत 1930-1977] मेरे परनाना जी हैं। यमक मंजरी का एक कवित्त आप के साथ साझा करता हूँ। आज़, हम लोग इस का अर्थ नहीं समझ पा रहे हैं:-

अमलइलाकेबीच, अमलइलाकेबीच,
अमलइलाकेबीच, अमलइलाकेहैं

कमलकलाकेबीच, कमलकलाकेबीच,
कमलकलाकेबीच, कमलकलाकेहैं

सघनलताकेबीच, सघनलताकेबीच,
सघनलताकेबीच, सघनलताकेहैं

कंजकविताकेबीच, कंजकविताकेबीच
कंजकविताकेबीच, कंजकविताकेहैं

कंज जी के कुछ और छन्द 

आगम सुन्यौ है प्राण प्यारे कौ प्रभात आज 
धाउ बेगि न्हायबे कों मत कर मौज - हें 

कहै कवि 'कंज' अंग-अंग हरसाने और 
हीय अभिलासन के बढ़त सु ओज हैं 

बसन उतार नीर तीर के तमाल तरें 
सुपरि लपेटी जंघ आनंद के चोज हैं 

कंचुकी बिना ही जब ताल में धँसी है बाल 
देख कें उरोज हाथ मलत सरोज हैं 


शक्ती के लागत ही लखन भू माँहि गिरे 
देख रघुबीर बीर धीर न धरात है 

जाय कपि दूत गढ़ लंक सों सुशेन लायौ 
पूछत बताई संजीवन बिख्यात है 

कहै कवि 'कंज' रवि उदै न होय जौ लों 
राम कहै तौ लों मोहि पल जुग जात है 

धाय कपि द्रोण सों उठाय गिरि भागौ, ता पै 
"रोवत सियार जात नभ में दिखात है"



इन दो सुखद अनुभूतियों के चलते लास्ट ग़ज़ल में यह शेर हुआ था :-

फर्ज़ हम पर है रौशनी का सफ़र।
नूर की छूट के हैं जाये हम।।

नूर - प्रकाश, उजाला, रौशनी
छूट - पतले कागज़ से छन कर आतीं प्रकाश की रंगीन किरणें

जय श्री कृष्ण.........

15 फ़रवरी 2013

आउते बसंत कंत संत बन बैठे री - यमुना प्रसाद चतुर्वेदी 'प्रीतम'

चाँह चित चाँहक की चाँहि कें चतुर चारु,
चाउ ते चली कर चरचित इकैठे री

पाउते सु 'प्रीतम' के हाव दरसाउ भूरि
भाउते करौंगी मिल मन के मनेंठे री

जाउते बिलोके तौ बरन कछु औरें बन्यौ