महफ़िलों
को गुज़ार पाये हम
तब कहीं
ख़लवतों पे छाये हम
हैं
उदासी के कोख-जाये हम
ज़िन्दगी
को न रास आये हम
खाद-पानी
बना दिया ख़ुद को
सिलसिलेवार
लहलहाये हम
नस्ल
तारों की जिद लगा बैठी
इस्तआरे
उतार लाये हम
रूह के होंठ सिल के ही माने
हरकतों
से न बाज़ आये हम
फ़र्ज़
हम पर है रौशनी का सफ़र
नूर
की छूट के हैं जाये हम
‘प्यास’
को ‘प्यार’ करना था केवल
एक अक्षर
बदल न पाये हम
बस हमारे
ही साथ रहती है
क्यों
उदासी को इतना भाये हम
अब तो
सब को ही मिलना है हमसे
छायीं
तनहाइयाँ, कि छाये हम
शहर
में आ के वो चला भी गया
थे पराये, रहे पराये हम
:- नवीन सी. चतुर्वेदी
बहरेख़फ़ीफ़ मुसद्दस मख़्बून
फ़ाएलातुन मुफ़ाएलुन फ़ालुन
2122 1212 22
बेहद खूबसूरत लयमय..
जवाब देंहटाएं