17 फ़रवरी 2013

कुछ सुखद एहसास


कुछ सुखद एहसास :-

मनुष्य यदि प्रसन्नता के क्षणों में प्रसन्न न हो सके, अपनी प्रसन्नता अपनों के साथ साझा करने में संकोच करे - तो वह विशिष्ट व्यक्ति तो हो सकता है - साधारण मनुष्य हरगिज़ नहीं। मैं ख़ुद को साधारण मनुष्य समझता हूँ इसलिए दो सुखद एहसास आप के साथ साझा करना चाहता हूँ।

सतसई कर्ता महाकवि बिहारी के भानजे सरकार कृष्ण कवि जी [विक्रम संवत 1740 के आस पास] ने बिहारी सतसई की काव्यात्मक टीका प्रस्तुत की थी। ब्रज डिस्कवरी पोर्टल से ज्ञात हुआ कि ये कृष्ण कवि जी ककोर थे / हैं। ककोर एक अल्ह है मथुरा के चतुर्वेदियों की। गर्व और हर्ष की अनुभूति के साथ कहना चाहता हूँ कि मैं ककोर हूँ।

'यमक-मंजरी' के माध्यम से यमक अलंकार पर एकमेव ऐतिहासिक प्रस्तुति देने वाले श्री चतुर्भुज पाठक 'कंज' कवि जी [विक्रम संवत 1930-1977] मेरे परनाना जी हैं। यमक मंजरी का एक कवित्त आप के साथ साझा करता हूँ। आज़, हम लोग इस का अर्थ नहीं समझ पा रहे हैं:-

अमलइलाकेबीच, अमलइलाकेबीच,
अमलइलाकेबीच, अमलइलाकेहैं

कमलकलाकेबीच, कमलकलाकेबीच,
कमलकलाकेबीच, कमलकलाकेहैं

सघनलताकेबीच, सघनलताकेबीच,
सघनलताकेबीच, सघनलताकेहैं

कंजकविताकेबीच, कंजकविताकेबीच
कंजकविताकेबीच, कंजकविताकेहैं

कंज जी के कुछ और छन्द 

आगम सुन्यौ है प्राण प्यारे कौ प्रभात आज 
धाउ बेगि न्हायबे कों मत कर मौज - हें 

कहै कवि 'कंज' अंग-अंग हरसाने और 
हीय अभिलासन के बढ़त सु ओज हैं 

बसन उतार नीर तीर के तमाल तरें 
सुपरि लपेटी जंघ आनंद के चोज हैं 

कंचुकी बिना ही जब ताल में धँसी है बाल 
देख कें उरोज हाथ मलत सरोज हैं 


शक्ती के लागत ही लखन भू माँहि गिरे 
देख रघुबीर बीर धीर न धरात है 

जाय कपि दूत गढ़ लंक सों सुशेन लायौ 
पूछत बताई संजीवन बिख्यात है 

कहै कवि 'कंज' रवि उदै न होय जौ लों 
राम कहै तौ लों मोहि पल जुग जात है 

धाय कपि द्रोण सों उठाय गिरि भागौ, ता पै 
"रोवत सियार जात नभ में दिखात है"



इन दो सुखद अनुभूतियों के चलते लास्ट ग़ज़ल में यह शेर हुआ था :-

फर्ज़ हम पर है रौशनी का सफ़र।
नूर की छूट के हैं जाये हम।।

नूर - प्रकाश, उजाला, रौशनी
छूट - पतले कागज़ से छन कर आतीं प्रकाश की रंगीन किरणें

जय श्री कृष्ण.........

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