29 दिसंबर 2011

मल्टी-टास्किंग का दौर है यारो

नवीन सी. चतुर्वेदी


नए केलेंडर साल की एडवांस में हार्दिक शुभकामनायें|
2011 में आप लोगों से जो मुहब्बतें मिलीं हैं, उन के लिये मैं आप सभी का दिल से एहसानमंद हूँ और परमपिता परमेश्वर से यही प्रार्थना करता हूँ कि वे आप के जीवन के सभी कष्टों को खुशियों से रिप्लेस करते हुये आप को तरक़्क़ी के रास्ते पर सतत आगे बढ़ाते रहें। आशा करता हूँ कि आने वाले साल में भी हम लोग साहित्य सरिता में यूँ ही गोते लगाते रहेंगे।

पिछले दिनों कुछ थोट्स ने क़तआत की शक्ल  अख्तियार की है, उन में से कुछ आप की अदालत में पेश हैं, उम्मीद है आप को पसंद आयेंगे।

27 दिसंबर 2011

क्यों मुगन्नी के लिये बैचैन है तू इस क़दर - मयंक अवस्थी


सादगी  पहचान  जिसकी  ख़ामुशी आवाज़ है
सोचिये   उस आइने  से क्यों कोई नाराज़ है

बेसबब  सायों को अपने लम्बे क़द पे नाज़ है
ख़ाक  में मिल जायेंगे ये शाम का आग़ाज़ है

25 दिसंबर 2011

थी नार नखरीली बहुत, पर, प्रीत से प्रेरित हुई - ऋता शेखर 'मधु'

ऋता शेखर 'मधु'
इंसान अगर मन में ठान ले तो क्या नहीं कर सकता.....!!! ऋता शेखर 'मधु' जी ने इस का उदाहरण हमारे सामने पेश किया है। समस्या-पूर्ति मंच द्वारा छंद साहित्य सेवा स्वरूप आयोजनों की शुरुआत के वक़्त से ही बहुतेरे कह रहे थे "भाई ये तो बड़ा ही मुश्किल है, हम से न होगा" - बट - ऋता जी ने समस्या पूर्ति मंच पर की कवियों / कवयित्रियों द्वारा दी गई प्रस्तुतियों को पढ़-पढ़ कर और करीब एक महीने तक अथक परिश्रम कर के हरिगीतिका छंद लिखना सीखा है। हिन्दी हाइगा और मधुर गुंजन नामक दो ब्लोग चलाने वाली ऋता जी से परिचय अंतर्जाल पर ही हुआ है। आइये पढ़ते हैं उन के हरिगीतिका छंद:-

23 दिसंबर 2011

वो संत का किरदार जिया करता था - जितेंद्र जौहर

जितेंद्र जौहर
पिछले दिनों, शायद दो हफ़्ते पहले, कामकाज़ के सिलसिले में चेम्बूर गया था तो फिर वहीं से ही आ. आर. पी. शर्मा महर्षि जी के दर्शन करने उन के घर भी चला गया। उन के घर पर "क़ता-मुक्तक-रूबाई" का शायद अब तक का सब से बड़ा संकलन देखने / पढ़ने को मिला। वहीं बैठे-बैठे इस संकलन के शिल्पी जितेंद्र जौहर से भी बात हुयी। कुछ दिनों बाद फिर जितेंद्र भाई का मेसेज आया कि नवीन जी आप के और आप के मित्रों के मुक्तक-क़ता-रूबाई भिजवाइएगा। जो पसंद आएंगे [यह शर्त मेरे लिए भी लागू] उन्हें संकलन में स्थान मिलेगा। तो मैंने सोचा एक ब्लॉग पोस्ट के ज़रिये न सिर्फ जितेंद्र जी का परिचय और उनकी रूबाइयाँ बल्कि उन की मंशा भी दोस्तों तक पहुँचायी जाये। रूबाइयों से मेरे लिए परिचय नई बात है। तो आइये पढ़ते हैं उन की रूबाइयाँ ब-क़लम जितेंद्र भाई:-

21 दिसंबर 2011

ख़ुदा क्या कुछ नहीं लगता हमारा - तुफ़ैल चतुर्वेदी

Tufail Chaturvedi
लफ़्ज़ का अगला अंक आ. तुफ़ैल चतुर्वेदी जी की ग़ज़लों पर आधारित है, ये मालूम पड़ने के बाद कुछ मित्रों ने फरमाइश की थी कि अंक आने में तो अभी काफ़ी वक़्त है तो क्यूँ न २-४ ग़ज़लें यहाँ ठाले-बैठे के माध्यम से पढ़ने को मिलें। मित्रों की इच्छा जब मैंने गुरु जी तक पहुंचाई तो उन्होने सहर्ष २ ग़ज़लें ब्लॉग के प्रेमियों के लिए भेज दीं। आइये पढ़ते हैं उन ग़ज़लों को:- 



उरूज पर ही रहेगी ये रुत ज़वाल की नईं ।
ग़मों को थोड़ी ज़रुरत भी देखभाल की नईं।१।

बहुत सँवार के रखता हूँ दोस्ती को मैं।
कि कोई उम्र मुहब्बत के इंतक़ाल की नईं।२।

तुम्हारे एक इशारे पे हो गया हूँ तबाह।
 ये मुस्कुराने की रुत है ये रुत मलाल की नईं।३।

सुकूते-शहरे-ख़मोशाँ भी कुछ नहीं साहब।
मेरी उदासी अनूठी है ये मिसाल की नईं।४। 

उसे भी ध्यान नहीं है कि अब कहाँ हूँ मैं।
मुझे भी अब तो ख़बर अपने माहो-साल की नईं।५।


उरूज - ऊँचाई
ज़वाल - पतन
सुकूते-शहरे-ख़मोशाँ - क़ब्रिस्तान की शान्ति
माहो-साल - महीने-वर्ष


 बहरे मुजतस मुसमन मखबून महजूफ
मुफ़ाएलुन फ़एलातुन मुफ़ाएलुन फालुन
१२१२ ११२२ १२१२ २२


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चमक आभास पर होगी हमारी।
अँधेरों में बसर होगी हमारी ।१।

ख़ुदा क्या कुछ नहीं लगता हमारा।
दुआ क्यों बेअसर होगी हमारी।२।

 फ़रिश्ते खुद को छोटा पा रहे हैं।
ज़मीं पर ही बसर होगी हमारी।३।

उजाले जब अँधेरा बाँटते हैं।
यहाँ कैसे सहर होगी हमारी।४।

उडानी ख़ुद पड़ेगी ख़ाक अपनी।
हवा तो साथ भर होगी हमारी।५।

बचा लेना हवा के रुख़ से दामन।
कि मिट्टी दर-ब-दर होगी हमारी।६।

तिरे बिन हम अकेले क्यों चलेंगे।
उदासी हमसफ़र होगी हमारी।७।

कभी थम जाएँगे आँसू हमारे।
कभी उनको ख़बर होगी हमारी।८।

कभी थमता नहीं सैलाब उस का ?
यक़ीनन चश्मे-तर होगी हमारी।९।

सहर - भोर

बहरे हजज मुसद्दस महजूफ़
मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन फ़ऊलुन
१२२२ १२२२ १२२

19 दिसंबर 2011

पेट के भूगोल में उलझा हुआ है आदमी - अदम गौंडवी

अदम गौंडवी
22 अक्तूबर 1947 - 18 दिसम्बर 2011
काल के गाल ने इस साल एक और माटी के लाल श्री राम नाथ सिंह उर्फ अदम गौंडवी जी को अपना शिकार बना लिया। ठाले-बैठे परिवार इस विलक्षण प्रतिभा के धनी व्यक्तित्व को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करता है। 22 अक्तूबर 1947 को आटा ग्राम, परसपुर, गोंडा, उत्तर प्रदेश में जन्मे, 'धरती की सतह पर' तथा ' समय से मुठभेड़' जैसी कृतियों के माध्यम से आम आदमी की बातों को बतियाते इस शायर ने अपने जीवन काल में ही जन-समुदाय के हृदय में अपना स्थान सुनिश्चित कर लिया था। इन के कुछ शेर :- 

14 दिसंबर 2011

आस्माँ होने को था - पुस्तक समीक्षा


आसमाँ  होने को था अखिलेश तिवारी

लोकायत प्रकाशन
ए-362 , श्री दादू मन्दिर , उदयपुर हाउस
एम डी रोड , जयपुर -302004 ( राजस्थान )
फोन 0414-2600912                   

बेशतर शायर गज़ल को  तलाश करते हैं लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता है कि ग़ज़ल भी किसी शायर को तलाश करती है । आस्मां होने को था”  के प्रकाशन के बाद ग़ज़ल अनिवार्य रूप से शायर अखिलेश तिवारी का और अधिक शिद्दत से इंतज़ार करेगी हर मुशायरे में हर अदबी रिसाले में हर परिचर्चा में और जहाँ जहाँ भी ग़ज़ल की बात होगी वहाँ  । 


10 दिसंबर 2011

ज़ियादा हों अगर उम्मीद बच्चे टूट जाते हैं - 'लफ़्ज़' का छत्तीसवाँ अंक

भारतीय गद्य साहित्य और खास कर व्यंग्य में अपने जीवन काल में ही अपना लोहा मनवा चुके, पद्म-भूषण तथा साहित्य अकादमी जैसे पुरस्कारों को सुशोभित करते, 'राग दरबारी' जैसे कालजयी उपन्यास के शिल्पकार श्रीलाल शुक्ल जी को समर्पित है 'लफ़्ज़' का छत्तीसवाँ अंक। इस बार के अंक में ज़ारी किश्तों के अतिरिक्त श्रीलाल शुक्ल जी ही छाये हुये हैं, और क्यों न हों - बक़ौल सम्पादकीय - "साहित्य की सामान्य परम्परा के अनुसार, उत्पाती लेखन या उपद्रवी बयानों के कारण चर्चित हुये लेखक-लेखिकाओं से अधिक चर्चित तथा सम्मानित श्रीलालजी किंवदन्ती बन चुके थे।"

हर बार की तरह इस बार भी 'लफ़्ज़' में भरत भूषण पंत जी की नज़्मों के अलावा चार शायरों के कलाम पढ़ने को मिले। मेरे स्वभाव और रुचि के अनुसार मैंने जो छाँटा है, आप लोगों के साथ साझा करना चाहूँगा।

4 दिसंबर 2011

अनुष्टुप छंद पर ग़ज़ल - जान है तो जहान है

नया काम 
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युग-युगांत से श्रीमन्, इष्ट ये ही विधान है। 
जीविका ही समस्या है, जीविका ही निदान है॥

दूसरों के लिये सोचे, दूसरों के लिये जिये। 
दूसरों की करे चिंता, जीव वो ही महान है॥ 

हम भी एक योद्धा हैं, आत्म-रक्षा करें न क्यों।
सब यही बताते हैं, जान है तो जहान है॥

सच में धर्म*-धारा का, ध्येय है कितना मलिन्। 
धर्म परोक्ष*-रूपेण:, लाभकारी दुकान है॥  

धर् म - क्


पुराना 
काम  
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युग युगां से यारो, सिर्फ ये ही विधान है।
ज़िंदगी ही समस्या है, ज़िंदगी ही निदान है ।१।

दूसरों के लिए सोचे, दूसरों के लिए जिए।
दूसरों की करे चिंता, आदमी वो महान है ।२।

हम भी यार इंसाँ हैं, आत्म रक्षा करें न क्यूँ।
सब यही बताते हैं, जान है तो जहान है।३।

मज़हबी कहानी को, ठीक से समझो ज़रा।
आपसी मामलों की ये, लाभकारी दुकान है।४।

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इस के आगे का पोर्शन छंद शास्त्र में रूचि रखने वालों के लिए है
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संस्कृत में लिखे गए कुछ अनुष्टुप छंदों के उदाहरण :-

श्री मदभगवद्गीता से:- 
धर्म क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव ।
मामका पांडवाश्चैव   किमि कुर्वत संजय।।

ध/र्म/ क्षे/त्रे/ कु/रु/क्षे/त्रे/ स/म/वे/ता/ यु/युत्/स/व ।
मा/म/का/ पां/ड/वाश्/चै/व/   कि/मि/ कु-र/व/त/ सं/ज/य।।

ऋग्वेदांतर्गत श्री सूक्त से:- 
गंधद्वारां दुराधर्शां  नित्य पुष्टां करीषिणीं ।.
ईश्वरीं सर्व भूतानां तामि होप व्हये श्रि/यं।।

गं/ध/द्वा/रां/ दु/रा/ध-र/शां/ नित्/य/ पुष्/टां/ क/री/षि/णीं ।.
ई/श्व/रीं/ सर्/व/ भू/ता/नां/ ता/मि/ हो/प/ व्ह/ये/श्रि/यं।।

पंचतंत्र / मित्रभेद से:-
लोकानुग्रह कर्तारः, प्रवर्धन्ते नरेश्वराः ।
लोकानां संक्षयाच्चैव, क्षयं यान्ति न संशयः ॥ 

लो/का/नु/ग्र/ह/कर/ता/रः/, प्र/वर/धन्/ते/ न/रे/श्व/राः ।
लो/का/नां/ सं/क्ष/याच्/चै/व/, क्ष/यं/ यान्/ति/ न/ सं/श/यः ॥ 

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अनुष्टुप छंद की व्याख्या करता श्लोक :-

श्लोके षष्ठं गुरुर्ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम् ।
द्विचतुः पादयोर्ह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ॥

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अनुष्टुप छंद की सरल व्याख्या / परिभाषा

अनुष्टुप  छन्द
समवृत्त / वर्णिक छन्द
चार पद / चरण
प्रत्येक चरण में आठ वर्ण / अक्षर
पहले और तीसरे चरण में :-
पाँचवा अक्षर लघु
छठा और सातवाँ अक्षर गुरु
दूसरे और चौथे चरण में :-
पाँचवा अक्षर लघु
छठा अक्षर गुरु
सातवाँ अक्षर लघु

या इसे यूँ भी कह सकते हैं:- 
प्रत्येक चरण का ५ वाँ अक्षर लघु, ६ ठा अक्षर गुरु
पहले और तीसरे चरण का ७ वाँ अक्षर गुरु
दूसरे और चौथे चरण का ७ वाँ अक्षर लघु

पहले और तीसरे चरण के पांचवे, छठे और सातवे अक्षर - ल ला ला 
दुसरे और चौथे चरण के पांचवे, छठे और सातवे अक्षर - ल ला ल


चूंकि अनुष्टुप छन्द अधिकतर संस्कृत में ही लिखा गया है, इसलिए तुकांत के बारे में विधान स्वरुप कुछ लिखा हुआ नहीं है| हिंदी में लिखते वक़्त तुकांत यथासंभव लेना श्रेयस्कर है| बहुत से लोगों को इस छंद को रबर छंद का नाम देते सुना तो मन में आया क्यूँ न इस का फिर से अध्ययन किया जाए, और तब पता चला कि हलंत / विसर्ग वगैरह की वज़ह से लोग इसे रबर छंद समझ बैठते हैं - जबकि ये बाक़ायदा वर्ण के अनुसार एक विधिवत छंद है| श्री मद्भगवद्गीता, श्री भागवत, वेद, पुराण, वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त बहुत से स्तोत्र / कवच / अष्टक / स्तुति आदि  इस छंद में ही हैं|



छंद शास्त्र के अनुसार उपरोक्त परिभाषा उपलब्ध है। इस के अनुसार जब मैंने इस छंद पर लिखना शुरू किया तो पाया कि एक नियम और भी या तो है, या फिर होना चाहिए। मैंने हिंदी में अनुष्टुप छन्द लिखते वक़्त महसूस किया कि यदि इस के गाते हुए बोलने की मूल धुन को सहज स्वरुप में जीवित रखना है, तो हर पद का आख़िरी अक्षर भी गुरु /  दीर्घ होना चाहिए| जैसे कि ऊपर 'धर्म क्षेत्रे' वाले छन्द के चौथे पद के अंत के शब्द 'संजय' के अंतिम अक्षर 'य' को बोलते हुए इस 'य' को अतिरिक्त भार देना पड़ता है, यथा - संज-य| ठीक ऐसे ही 'युयुत्सव' बोला जाता है - युयुत्स-व| चूँकि हिंदी में हमें इस तरह बोलने / पढने की आदत नहीं होती, इसलिए मैंने अंतिम अक्षर गुरु लेने का निर्णय लिया है| यदि अन्य व्यक्तियों को भी यह सही लगे तो वह भी ऐसा कर सकते हैं| मैं समझता हूँ हलंत, विसर्ग बनाने या द्विकल [लघु] शब्दों को दीर्घ समान बोलने की बजाय गुरु लेना अधिक श्रेयस्कर है। हाँ यदि उस अंतिम अक्षर को लघु ले कर गुरु समान बोला जाये तो भी सही है, ये होता आया है; परंतु भावी संदर्भों को देखते हुए मुझे तो अब उस अंतिम अक्षर को गुरु की तरह लेना ही सही लग रहा है।

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आदरणीय विद्वतजन 
मैंने अपने मन की बात रखी है, यदि आप भी कोई बात साझा करना चाहते हैं, तो ऐसा करने की कृपा अवश्य करें|
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विकिपीडिया से 
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वाल्मीकि रामायण महाकाव्य की रचना करने के पश्चात आदिकवि कहलाए परन्तु वे एक आदिवासी समुदाय के व्यक्ति थे, वे कोई ब्राह्मण नहीं थे, एक बार महर्षि वाल्मीक एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि एक बहेलिये ने कामरत क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर महर्षि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा।
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥'
((निषाद)अरे बहेलिये, (यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्) तूने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं (मा प्रतिष्ठा त्वगमः) हो पायेगी)
उपरोक्त छंद अनुष्टुप छंद है 

1 दिसंबर 2011

ये मेरी रुक्मिणी हरदम मुझे बूढा बताती है --मयंक अवस्थी

ग़ज़ल-1

उन्ही का इब्तिदा से जहिरो –बातिन रहा हूँ मैं
जो कहते हैं कि गुजरे वक़्त का पल –छिन रहा हूँ मैं

मेरे किरदार को यूँ तो ज़माना श्याम कहता  है
मगर तारीख का सबसे सुनहला दिन रहा हूँ मै