SP2/3/4 मेरे सब दिन-रैन तुम्हारे आभारी हैं - राजेन्द्र स्वर्णकार

नमस्कार

मकर पर्व संक्रान्ति की अनेक शुभ-कामनाएँ। परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना है कि समस्त मानव समुदाय के जीवन को ख़ुशियों से भर दे और राजेन्द्र स्वर्णकार भाई जी के घर होने वाले मांगलिक कार्यक्रम की खुशियों को दोबाला कर दे। मञ्च के साथी भाई श्री राजेन्द्र स्वर्णकार जी के दो सुपुत्र इसी महीने परिणय सूत्र में बँधने जा रहे हैं। मञ्च दौनों बालकों के सुखमय दाम्पत्य जीवन की मंगलकामना करता है।

अपने राजेन्द्र भाई जी को जानने वाले अच्छी तरह से जानते हैं कि राजेन्द्र जी इस मञ्च के लिये सदैव और सहर्ष तत्पर रहते हैं। “रस परिवर्तन” के आह्वान का सम्मान रखते हुये आपने इतने बिजी शेड्यूल के बीच भी क्या ही शानदार छंद भेजे हैं। आइये पहले छंद पढ़ते हैं।

मैं क्या था? तुम बिन, प्रिये ! मात्र मूक-पाषाण !
फूँक दिए निष्प्राण में सजनी ! तुमने प्राण !! 
सजनी ! तुमने प्राण भरे उपवन महकाया !
हर अंकुर हर पुष्प खिला डाला ...मुर्झाया  !!
है उपकृत हर साँस कहूँ रसना से क्या मैं ?!
मेरे सब दिन-रैन तुम्हारे आभारी हैं !

तुम से मैंने पा लिया जीने का आधार !
अब जीवन पल-पल लगे इक अनुपम उपहार !!
इक अनुपम उपहार प्रिये हूँ ऋणी तुम्हारा !
जीवन सुख-संयोग सहित हो पूर्ण हमारा !!
हँसते-गाते नित्य रहें हम क्यों गुम-सुम से ?
ख़ुश रहना संसार सीख ले हमसे-तुमसे !! 

हम ही राधा-कृष्ण थे हम ही राँझा-हीर !
कैसे समझेंगे न हम इक-दूजे की पीर ?!
इक-दूजे की पीर एक सुख-दुख सब अपने !
एक प्राण दो देहएक-से अपने सपने !!
सौ जनमों तक प्रीत हमारी ना होगी कम !
बने पुजारी-प्रीत जनम फिर से लेंगे हम !! 

राजेन्द्र स्वर्णकार 09314682626

पहले छन्द की दूसरी पंक्ति यानि दोहे के चौथे चरण की, फिर उस के बाद इसी छन्द की तीसरी पंक्ति यानि रोला वाले हिस्से के प्रथम चरण के पूर्वार्ध में “सजनी तुमने प्राण” वाले हिस्से को पढ़िएगा और देखिएगा कवि के कौशल्य को। किस तरह एक शब्द समूह 'सजनी तुमने प्राण' दो अलग हिस्सों में दो पृथक वाक्यों का परफेक्ट हिस्सा बन रहा है। कुण्डलिया छंदों में इस तरह के प्रयोग कवि की मेधा का प्रदर्शन करते हैं। इसी पहले छंद की पञ्च लाइन यानि कि आख़िरी पंक्ति “मेरे सब दिन-रैन तुम्हारे आभारी हैं “ भी बहुत ही ज़बरदस्त है। तीसरे छंद में 'एक प्राण दो देह' वाला हिस्सा तो अतिशय मनोरम है। एक प्राण दो देह की संज्ञा हमें राधा और कृष्ण के माध्यम से मिली है, राधा और कृष्ण जैसे प्रेम की बातें करने वाले छंद में एक प्राण दो देह ने समाँ बाँध दिया है।  

जिस तरह हमें खाने की थाली में सिर्फ़ मीठा या सिर्फ़ नमकीन या सिर्फ़ तरल की अपेक्षा न रहकर एक सम्पूर्ण भोजन की अपेक्षा रहती है, ठीक उसी तरह साहित्य में भी विविध रसों के साथ ही किसी आयोजन का पूर्ण आनंद आता है। वर्तमान समस्या पूर्ति आयोजन के शब्द घोषित करते वक़्त यही मंशा थी कि अलग-अलग मेधाओं के दर्शन होंगे। शुरुआत में ही कल्पना जी ने न सिर्फ़ एक स्त्री के मनोभावों को बहुत ही सशक्त ढंग से अभिव्यक्त किया बल्कि बालमना अभिव्यक्ति बाग़ के फूल भी बहुत ही ज़बर्दस्त रही। उस के बाद खुर्शीद भाई ने हमें राष्ट्र-प्रेम के डोंगे में बैठाया; सत्यनारायण जी, सौरभ जी और श्याम जी ने आध्यात्मिक और कल्याणकारी बातें बतियाईं और अब राजेन्द्र जी ने मञ्च को अपने शृंगार रस आधारित छंदों से स-रसमय बना दिया है। कोई अनिवार्य नहीं कि मैं-हम-तुम केवल आध्यात्मिक या शृंगारिक बातों के लिये ही सूटेबल हैं, वरन ये तीन शब्द तो अपने अंदर समस्त रसों को समेटे हुये हैं। उम्मीद करते हैं कि हमारे साथी हमें विविध रसों से सराबोर छन्द भेज कर अनुग्रहीत करेंगे। 

एक और बात भी कहने को जी हो रहा है कि गूढ बातों के लिये ज़रूरी नहीं कि शब्दावली भी अति गूढ ही ली जाये [हालाँकि कभी-कभी मैं भी इस दुविधा का शिकार होता रहा हूँ] बल्कि वृंद जैसे अल्पज्ञात मगर अत्यंत सशक्त कवि की तरह आसान ज़बान में भी पते की बात कही जा सकती है। वृंद जी के कुछ दोहे इसी वेबपेज पर भी हैं, जिन्हें पढ़ने के लिये आप 'वातायन के रत्न' वाली सूची में 'V' पर जा कर उन के नाम पर क्लिक कर के पढ़ सकते हैं। 

राजेन्द्र जी आप को इन मधुर और मोदमय छन्द रचनाओं के लिये ख़ूब-ख़ूब बधाई। इतने बिजी शेड्यूल में भी आप ने अपनी सहभागिता बनाये रखी, आप का बहुत-बहुत आभार। साथियो राजेन्द्र जी के छंदों पर अपनी राय रखने के साथ ही साथ उन के घर होने वाले मांगलिक कार्य की अग्रिम बधाइयाँ भी दीजियेगा और हम बढ़ते हैं अगली पोस्ट की ओर।

नमस्कार

SP2/3/3 सौरभ पाण्डेय जी एवं श्याम गुप्त जी के छन्द

नमस्कार।

इण्टरनेट की समस्या सिर्फ़ छोटे शहरों-कस्बों या गाँवों में ही नहीं कभी-कभी महानगर में भी अपना परिचय देती रहती है। तीन दिन के टूर पर जाने से पूर्व सोचा बुधवार रात को एक पोस्ट शेड्यूल करता चलूँ, परन्तु एन मौक़े पर इण्टरनेट बाबा खूँटे से खुल गये और पोस्ट लेट हो गयी। इण्टरनेट बाबा को खूँटे से खुलता हुआ न देखा हो तो कभी अपने इण्टरनेट स्विच / राउटर की लाइट्स को बिगड़ने के दौरान कुछ-कुछ दोलक की तरह इधर-उधर होते देखियेगा, खूँटे से खुलने की बात समझ आ जायेगी।

साथियो आप इस मञ्च से जुड़े दो विद्वानों श्री सौरभ पाण्डेय [09919889911] जी और श्री श्याम जी को पढ़ते रहे हैं, आज की पोस्ट में ये दौनों रचनाधर्मी अपने कौशल्य के साथ हाज़िर हैं। पहले हम पढ़ते हैं सौरभ जी के छन्द 

’मैं-तुम’ के शुभ योग से, ’हम’ का आविर्भाव
यही व्यष्टि विस्तार है, यही व्यष्टि अनुभाव
यही व्यष्टि अनुभाव, ’अपर-पर’ का संचेतक   
’अस्मि ब्रह्म’ उद्घोष, ’अहं’ का धुर उत्प्रेरक
’ध्यान-धारणा’ योग, सतत संतुष्ट रखे ’मैं’
’प्रेय’ क्षुद्र व्यामोह, ’श्रेय’ निर्वाह करे ’मैं’

’तुम’ ऊर्जा, ’तुम’ प्राणवत, ’तुम’ ’मैं’ का विस्तार
गहन भाव संतृप्त यह, मानवता का सार
मानवता का सार, सदा जग ’तुम’ से सधता
’मैं’ कारक का सूच्य, जगत तो ’तुम’ से चलता
बहु-धारक का भाव, जिये ज्यों खगधारी द्रुम
संज्ञाएँ प्रच्छन्न, धारता हर संभव ’तुम’

’हम’ अद्भुत अवधारणा, ’हम’ अद्भुत संज्ञान
यह समष्टि के मूल का अति उन्नत विज्ञान
अति उन्नत विज्ञान, व्यक्तिवाचक का व्यापन
उच्च भाव संपिण्ड, ’अहं’ का भाव समापन
उच्च मनस का हेतु, ’भाव-कर्ता’ पर संयम
स्वार्थ तिरोहित सान्द्र, तभी हो ’मैं-तुम’ का ’हम’

हर रचनाधर्मी अपने स्वभाव और रुचि के अनुसार रचना रचने के लिये स्वतंत्र है और साहित्य इसी डगर पर चलते हुये हम तक पहुँचा है। अनादि काल से कई रचनाधर्मी अन्तर्मन के गूढ रहस्यों को अपनी लेखनी के कौशल्य से सुलझाते रहे हैं। रचनाधर्मी रचना को अपनी सन्तान की तरह समझते हैं इसलिए अपनी सन्तान को तैयार करने में कोई कोताही नहीं बरतते। अपने तईं रचना में अपने अनुभवों को उँड़ेलते रहते हैं। साहित्य में हर रचनाधर्म का स्वागत होता आया है। सौरभ जी के छंदों को पढ़ कर हृदय शून्य में स्थित तत्व के और अधिक निकट पहुँच जाता है। आप को बहुत-बहुत बधाई।

पोस्ट के दूसरे छंदानुरागी साथी हैं श्याम जी [9415156464] :-

‘मैं’ औ ‘तुम’ हैं एक ही, उसके ही दो भाव ,
जो मिलकर बन जाँय ’हम’, हो मन सहज सुभाव |
हो मन सहज सुभाव, सत्य शिव सुन्दर हो जग,
सरल सुखद, शुचि, शांत सौम्य हो यह जीवन मग |
रहें श्याम’ नहिं द्वंद्व, द्वेष, छल-छंद जगत में,
भूल स्वार्थ ‘हम’ बनें एक होकर ‘तुम’ औ ‘में’  ||

तुम मैं प्रभु! हैं एक ही, लोकनाथ हम आप |
बहुब्रीहि हूँ नाथ मैं, आप तत्पुरुष भाव |
आप तत्पुरुष भाव, लोक के नाथ सुहाए ,
लोक हमारा नाथ, नाथ मेरे मन भाये |
खोकर निज अस्तित्व, मुक्ति पाजाऊँ जग में,
मेरा ‘मैं’ हो नष्ट, लीन होजाए तुम में ||

हम तुम मैं वह आप सब उस ईश्वर के अंश,
फिर कैसा क्यों द्वंद्व दें, इक दूजे को दंश |
इक दूजे को दंश, स्वार्थ अपने-अपने रत ,
परमार्थ को त्याग, स्वयं को ही छलते सब |
अपने को पहचान दूर होजायं सभी भ्रम,
उसी ईश के अंश, श्याम’ सब मैं वह तुम हम ||

सौरभ जी और श्याम जी दौनों हमारे वरिष्ठ साथी हैं और जानकार भी हैं। इस के अलावा पूर्व के अनुभवों के कारण इन दौनों साथियों के छन्द यथावत प्रस्तुत किये गये हैं। श्याम जी ने भी “मैं, तुम और हम” की मीमांसा करने के लिये सभी संदर्भित शब्दों का भरपूर प्रयोग किया है। इस पोस्ट के छह छन्द और विशेष कर सौरभ जी के तीन छन्द यादगार रहेंगे, हाँ..... लेकिन शब्दकोश की सहायता के साथ। श्याम जी और सौरभ जी आप दौनों मञ्च के पुराने साथी हैं इसलिए थोड़ा सा हास्य प्रयोग कर लिया है। आशा करता हूँ इसे पढ़ते हुये मेरी तरह आप के चहरे पर भी मुस्कुराहट होगी। मञ्च पर अपनी यादगार निशानी अंकित करने के लिये आप दौनों का बहुत-बहुत आभार ।

तो साथियो! आनन्द लीजियेगा इन छंदों का, उत्साह वर्धन कीजियेगा अपने साथियों का और हम बढ़ते हैं अगली पोस्ट की ओर।

विशेष: आयोजन अगर लम्बा चलता है तो बाद की पोस्ट्स को पाठक कम मिलते हैं। इसलिए सभी साथियों से निवेदन है कि अपने-अपने छन्द यथाशीघ्र भेजने की कृपा करें। और भाई कोई ज़रा रस परिवर्तन की जोख़िम भी उठाओ :)


नमस्कार

SP2/3/2 खुर्शीद खैराड़ी + सत्य नारायण सिंह

नमस्कार।

पिछली पोस्ट में उठी शंका जो कि पाद-संयोजन से सम्बन्धित है, का समाधान एक अलग पोस्ट के ज़रिये किया गया है। उस पोस्ट को पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें

वर्तमान आयोजन की पहली पोस्ट को लोगों का अच्छा प्रतिसाद मिला है। दूसरी पोस्ट भी अपने फ्लेवर के साथ आप के समक्ष आ रही है। इस पोस्ट में हम महावीर भाई उर्फ़ खुर्शीद खैराड़ी के साथ-साथ मुम्बई निवासी भाई सत्यनारायण सिंह जी के छंदों को भी पढ़ेंगे। इस आयोजन से हम रचनाधर्मियों के मोबाइल नम्बर देना शुरू कर रहे हैं ताकि उन के प्रशंसक उन से सीधे संवाद कर सकें। जिन-जिन साथियों को अपने मोबाइल नम्बर छपने में दिक्कत न हो वह अपना-अपना मोबाइल नम्बर मेल के साथ भेजने की कृपा करें।  

तो आइये शुरुआत करते हैं भाई खुर्शीद खैराड़ी जी [9413408422] के छंदों के साथ

मैं अपनी ही खोज में ,भटक रहा दिन रात
ख़ुद, ख़ुद को मिलता नहींसुलझे कैसे बात?
सुलझे कैसे बात? सामने कैसे आऊँ?
ख़ुद अपनी ही ओट लिए ख़ुद से छुप जाऊँ।
युगों-युगों से खेल रहा हूँ खेल अनोखा
ख़ुद से ही हर बार खा रहा हूँ ख़ुद धोखा   
   
हम अपने ही देश मेंपरदेसी हैं आज
आयातित हर चीज परकरते कितना नाज
करते कितना नाज सभ्यता बेगानी पर
भूल गये हैं देश यही था देवों का घर
भारत माँ के लाल फिरंगी बनकर डोलें
निज गौरव को भूल विदेशी बानी बोलें

तुम चाहो तो देश का ,कर दो खस्ताहाल
चाहो तो श्रमजल बहा ,ऊँचा करदो भाल
ऊँचा करदो भालपुरातन यश लौटा दो
जागो भारत भाग्य विधाता भाग्य जगा दो
ख़ुद से यूँ अनजानहाशिए पे रहकर गुम
कब तक यूँ बेहोश रहोगे औसत जन तुम  ? 

इस मञ्च के पाठक सुधि-जन हैं और हर पंक्ति की मीमांसा अच्छी तरह कर सकते हैं। खुर्शीद भाई ने छंदों के परिमार्जन हेतु सतत प्रयास किया और परिणाम हमारे सामने है। दरअसल जिस तरह हम नर्सरी से स्नातक या स्नातकोत्तर का सफ़र तय करते हैं उसी तरह छंद-अभ्यास भी नित-नयी बातें सीखने के लिये प्रेरित करता है। हमें ख़ुशी है कि महावीर जी ने मञ्च के निवेदन पर अपने छंदों कों बार-बार बदला। सरल भाषा, सफल संवाद और तर्कपूर्ण संदेश इन छंदों की विशेषताएँ हैं। मञ्च को उम्मीद है कि अगली बार हमें इन से और बेहतर मिलेगा। औसत-जन के लिये विशेष बधाई।  

इस पोस्ट के अगले रचनाधर्मी हैं भाई सत्य नारायण जी [9768336346]

मैं  के चिंतन से हुआ, आत्म बोध का ज्ञान।
उस अविनाशी ब्रम्ह की, मैं  चेतन संतान।।
मैं चेतन संतान अंश उस मूल रूप का 
सहज भाव से ध्यान धरूँ मैं  उस अनूप का।।
समझाते शुचि ज्ञान सहज  हमको योगेश्वर।
शाश्वत आत्मा किन्तु मनुज का तन है नश्वर।।

चेतन = आत्मा

हम से उर में जागतेशुभ सहकारी भाव।
अहम भाव जो नष्ट कर, भरते हिय के घाव।।
भरते हिय के घाव अहम का लेश न रहता 
मिट जाता अभिमान  वहम भी शेष न रहता।।
सदियों से यह बात सनातन चलते आई 
तुम’ अरु ‘मैं’ का योग सदा ‘हम’ होता भाई।। 

तुम कारक है द्वेष का, दर्शाता पार्थक्य ।
होते आँखें  चार  ही,  दूर हुआ पार्थक्य ।।
दूर हुआ पार्थक्य, बात कैसे समझाऊँ।
जित जित जाऊँ परछाईं सी तुम’ को पाऊँ ।।
दर्शन की मन चाह मिलो तो आँख चुराऊँ ।
सरसे तुम’  से प्रेम बिना तुम’  मैं अकुलाऊँ।।

पार्थक्य पृथकता या अलगाव का भाव

साहित्य की सफलता इसी में है कि जितने रचनाधर्मी हों उतनी तरह की रचनाएँ पढ़ने को मिलें। हर व्यक्ति के अपने अनुभव और अनुभूतियाँ होती हैं। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की विविध अभिव्यक्तियों को पढ़ना ही पाठक या श्रोता का उद्देश्य होता है। गायक किशोर कुमार की हयात के दौरान तथा बाद में भी बहुतों ने उन की नकल में गाने की कोशिश की मगर क्षणिक सफलता के बाद असफल हो गये। हमें अपनी मूल अभिव्यक्ति के साथ आगे बढ़ना होता है। परन्तु मूल अभिव्यक्ति का मतलब मूल धारा से बिलगना नहीं हो सकता। मूल धारा मतलब “सरल भाषा, सफल संवाद और तर्कपूर्ण संदेश

तो साथियो आप आनन्द लीजियेगा इन छंदों का, उत्साह वर्धन कीजियेगा अपने साथियों का और हम बढ़ते हैं अगली पोस्ट की ओर।


नमस्कार 

छंद आधारित काव्य में पाद-संयोजन

पिछली पोस्ट में कल्पना जी के एक छंद की एक पंक्ति

उन शूलों के साथ बाग़ में रहते हैं हम

पर एक सुझाव आया कि क्यूँ न इसे “उन शूलों के साथ रहते हैं बाग़ में हम” की तरह कहा जाये? मञ्च आभारी है कि एक महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा के लिये संकेत दिया गया। यह पाद-संयोजन का विषय है।

थोड़ी तेज़ रफ़्तार में चलते-चलते अगर हम अचानक मुड़ जाएँ, साइकिल चलाते-चलाते अगर हम साइकिल का हेण्डल अचानक ही एक दिशा में मोड दें तो हम लड़खड़ा जाते हैं। सामान्य चलने पर ऐसा कुछ नहीं होता। यह सारी बातें मानव व्यवहार का अङ्ग हैं। ठीक इसी तरह जब हम सामान्य बातचीत करते हैं तो शब्दों के संयोजन तथा व्याकरण वग़ैरह पर ध्यान नहीं देते मगर जब यही बातचीत पद्य का स्वरूप धारण कर लेती है तो शिल्प सम्बन्धित बातें महत्वपूर्ण हो जाती हैं। पाद संयोजन उन बातों में से एक है।

पाद क्या होता है?

शब्दों का वह समूह जिन से किसी छंद का एक चरण या उस चरण का यति-पर्यन्त एक अंश बनता है, पाद कहलाता है।  यथा, विवेच्य पंक्ति में 'उन शूलों के साथ' तथा 'बाग़ में रहते हैं हम' दो पाद हुये। कुछ विद्वान इसे यति के साथ एक पाद भी मानते रहे हैं। अपने लिये ये दो पाद वाला विषय है। 

पाद-संयोजन क्या है ?

एकल – द्विकल – त्रिकल –चौकल –पञ्चकल वग़ैरह शब्दों को एक पाद में इस तरह गूँथना कि बात एकदम सरलता से कही जा सके, पाद-संयोजन कहलाता है।

एकल – द्विकल – त्रिकल वग़ैरह क्या होता है ?

एकल

जिस शब्द में एक मात्रा भार या लघु-वर्ण ही हो, उसे एकल कहा जाता है, यथा –
कि

द्विकल

दो मात्रा भार या गुरु वर्ण, यथा –
मैं
का
वह
व्रत [व तथा र सन्युक्ताक्षर हैं]
कृष [क तथा र सन्युक्ताक्षर हैं]
स्थिति [स और थ सन्युक्ताक्षर हैं]

त्रिकल

सनम
शर्म
भला
लाभ
द्रुपद

चतुष्कल / चौकल

शबनम
शबाना
शाना
सलमा
साजन
द्रौपदि
उदार

पञ्चकल

द्रौपदी
हमसफ़र
बेदख़ल
अलगाव
फुलझड़ी

षटकल

याराना
दावानल
बारदान
उलाहना
मोरपखा
अभिव्यक्ति

यहाँ ‘अभिव्यक्ति’ शब्द को सोद्देश्य लिया गया है। ‘अभि’ द्विकल है और ‘व्यक्ति’ त्रिकल इस तरह तो यह द्विकल + त्रिकल = पञ्चकल हुआ मगर चूँकि बोलते वक़्त हम ‘अभि’ के बाद ‘व्यक्ति’ के ‘व’ पर अधिक भार देते हैं इस लिये यह त्रिकल+त्रिकल यानि षट्कल माना जायेगा। हालाङ्कि पिङ्गलाचार्य जी ने ने कवि को इसे उच्चारण के आधार पर पञ्चकल मानने की छूट भी दे रखी है। 

इसी तरह सप्तकल , अष्टकल वग़ैरह होते हैं।

रोला छन्द के चरण के पूर्वार्ध में ग्यारहवीं मात्रा पर लघु अक्षर के साथ यति होती है। मतलब वहाँ या तो त्रिकल [सरल, शर्म, लाभ, शह्र टाइप - शहर, भला या सनम टाइप नहीं] आएगा या एकल [कि] या चौकल [उदार] या पञ्च्कल [अलगाव] या ऐसा ही कुछ और। त्रिकल के बाद का शब्द त्रिकल होने पर ही उच्चारण सटीक हो पाता है। अब उस उदाहरण को दौनों तरह से बोल कर देखा जाये :-

मूल पंक्ति – “उन शूलों के साथ बाग़ में रहते हैं हम”
सुझाव – “उन शूलों के साथ रहते हैं बाग़ में हम”

हम समझ सकते हैं कि ओरिजिनल पंक्ति बोलने में कोई रुकावट नहीं होती जब कि सुझाव वाली पंक्ति में अवरोध उत्पन्न होता है। हाँ, अगर हम चाहें तो मूल पंक्ति में बाग़ की जगह चमन [उन शूलों के साथ चमन में रहते हैं हम] का इस्तेमाल भी कर सकते हैं। इस स्थिति में भी त्रिकल के बाद त्रिकल ही आता है। रोला छंद में पाद संयोजन के लिये कुछ और उदाहरण:- 

लाला लाला ला लला ला लाला लाला

इस उपरोक्त सूत्र को ध्यान में रखें। यहाँ पूर्वार्ध की ग्यारहवीं मात्रा का लघु जोना अनिवार्य है। अन्य शब्दों को पाद संयोजन की सहायता लेते हुये अलग-अलग तरह से सेट किया जा सकता है। यथा:- 

लला लालला ला लला ला लाला लाला
लालल लाला ला लाल ला ललाल लाला
वग़ैरह वग़ैरह। 

पंक्ति जितनी अधिक सीधी यानि 'लाला लाला ला लला ला लाला लाला' के अधिकतम निकट रहेगी, उतना ही बोलने में सरलता का अनुभव होगा। बादबाकी प्रयोग कवि के हाथ में है। ध्यान रहे कि पाद-संयोजन करते वक़्त अपने मुख के उच्चारण का नहीं बल्कि जन-सामान्य के मुख के उच्चारण का ध्यान रखा जाता है। 

पिङ्गल में इस तरह की और भी बहुत सारी जानकारियाँ दी हुई हैं। सारी जानकारियों को प्रस्तुत करना थोड़ा मुश्किल और अव्यावहारिक भी है; इसलिए समय-समय पर थोड़ी-थोड़ी जानकारियाँ पटल पर आती रहेंगी। आशा करते हैं कि शंका का समाधान हो गया होगा। यदि फिर भी कुछ शंका शेष हो तो अवश्य ही टिप्पणी या मेल या फोन के ज़रिये बात की जा सकती है।

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चरण क्या होता है ?

एक छंद को अमुक भागों में विभक्त किया जाता है, उन भागों को चरण कहते हैं। दोहा, सोरठा, चौपाई, हरिगीतिका, गीतिका, घनाक्षरी, ललित, ताटंक आदि सभी छंदों में चार चरण होते हैं। दोहा और सोरठा में प्रत्येक चरण के अंत में ही यति होती है मगर रोला, हरिगीतिका, ताटंक आदि जैसे छंदों में प्रत्येक चरण के बीच में कहीं यति की व्यवस्था भी होती है। छन्द का कोई एक चरण, यति व्यवस्था के द्वारा जिन दो भागों में विभक्त हुआ उन दो भागों को पाद कहा जाता है। 

उदाहरण 

हे पद्म आसन पर विराजित, मातु वीणा वादिनी

उपरोक्त पंक्ति हरिगीतिका छन्द का एक चरण है
यह चरण यति के साथ दो भागों में विभक्त है यथा 

हे पद्म आसन पर विराजित, = 16 मात्रा, विराजित कहने के साथ ही हम साँस लेते हैं, यही यति है 

मातु वीणा वादिनी = 12 मात्रा 

हरिगीतिका छन्द के एक चरण के 16 मात्रा और 12 मात्रा वाले दो भाग, दो पाद हुये।