सत्य बोलू तर जगा साठी जगावे लागले - नवीन

सत्य बोलू तर जगा साठी जगावे लागले। 
कुठ-कुठे अडजस्ट सगळ्यांना करावे लागले॥ 

अव्वलव्वल तर धरा फोडुन उगावे लागले। 

आणि त्यानन्तर सकल कौतुक करावे लागले॥ 

काल होता बीज पण झाला अता अंकुर-स्वरूप। 
"एव्हढे मी भोगिले की म हसावे लागले"॥


रोज वाढतवाढता अंकुर तरू बनला हुजूर। 
काय सांगू काय त्यानन्तर पहावे लागले॥ 

माणसा! तुज सारखा मी पण मनुज आहे 'नवीन' 
कामनांच्या कसरती साठी टिकावे लागले॥


नवीन सी चतुर्वेदी 


[शायर की माँ-बोली मराठी नहीं है]

आत्महत्येला स्वत: भेटू कशाला - नवीन


आत्महत्येला स्वत: भेटू कशाला? 
धावत्या रस्त्यामधे थांबू कशाला? 

ज्या कथेचा '' मला माहीत नाही। 
त्या कहाणी वर फुकट बोलू कशाला?

कर्णप्रिय, सुन्दर, सरस सुद्धा असो पण। 
तीच गाणी नेहमी गाऊ कशाला? 

दृष्य, दृष्टी अन् मना चा प्रश्न नाही। 
व्यर्थ, मी सूर्याकडे पाहू कशाला? 

दु:ख माझे फक्त खरचटण्याबरोबर। 
"एव्हढेसे दुःख मी सजवू कशाला"?

नवीन सी चतुर्वेदी 


[शायर की माँ-बोली मराठी नहीं है]

व्यंग्य - वाह रे मीडिया - अर्चना चतुर्वेदी

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धर्म के काम में हवन होवे चाहे विवाह में हो या गृहशांति में तब थोड़ो थोड़ो घी डारो जाए ताकि अग्नि प्रज्वलित रहे, पर हमारे देश में  मीडिया देश में अशांति के हवन में कनस्तर भर घी उड़ेल कर अग्नि कूं भड़काबे कौ काम बखूबी कर रह्यो है  | जैसे कुटिल पडौसने सास बहु की लड़ाई करा कै मजा लेमे, उनके कान में मंतर फूंक कें वैसे ही न्यूज चैनल वाले भी अलग अलग धर्मन की सास बहु अर्थात कट्टर लोगन कूं बिठा के , ऐसे ऐसे सवाल कर डारे  कि कई बार तो वहीँ हाथापाई की नौबत आ जाबे है | ऐसे लोगन के लिए हमारे यहाँ बृज भाषा में एक कहावत बोली जाबे  “भुस में आग लगाय जमालो,दूर भजी” पर ये मीडिया वारे तो इतने पहुंचे भये  हैं कि आग लगाकें  बापे ही  रोटियां सेकबे बैठ जामे,भाजे भी नाय  |

चाचा मामा की जुगाड़ से चैनल और अखबार में नौकरी पाए भये  ये रिपोर्टर खुद कूं  सर्वज्ञानी समझें और किसी पे  भी कमेन्ट करना काई भी  आग को हवा देना अपनो  परम कर्तव्य समझें  | इनके हिसाब से समाचार मतलब बुरी बातें ही होबे |

ये लोग हर खबर कूं  चटपटी  और मसालेदार बनाबे  के चक्कर में ख़बरन कूं  गरिष्ठ बना रहे हैं दिल्ली में कछु  ब्लूलाइन बस वारे  एक दूसरे से होड़ कर बसों कूं  भगाते थे बिना ये सोचे कि सवारी की सुरक्षा भी उनकी ही  जिम्मेदारी हते , उसी तरह ये लोग भी अपनी आपसी दौड़ और ब्रेकिंग न्यूज के कम्पटीशन में देश के लिए घातक बनते जाय  रहे हैं | काई  के बयान को तोड़ मरोड़ कर बार बार दिखानो  और तुरंत दो चार खर खोपड़ीन कूं  बुलाके कुचर्चा कराबो इनको टाइम पास है क्योंकि बा चर्चा कौ कछु निष्कर्ष तौ निकलेगो ना जूतम पजार और है जाबेगी |

काई भी  साधारण सी न्यूज कूं  भी डरावने म्यूजिक अजीब ढंग से सुनाके ये रामगोपाल वर्मा की डरावनी फिल्मन कूं भी पीछे छोड़ चुके हैं | ये लोग भूल चुके हैं कि ये पत्रकार हैं और इनको  काम लोगन तक खबर पहुंचाबो हैं, लोग बागन कूं कब्र में पहुँचाबे कौ ना है  | इनकी हरकतन  कूं  देखके कभी कभी तौ  अपने देश के मीडिया पर शक होबे लगो है ...  क्या सचमुच जे  हमारे देश के ही हैं मुंबई हमलन  के दौरान जा तरीका से  इन्होने पल पल की खबर और प्लानिंग दिखाई  बाको  फायदा देश कूं नहीं आतंकवादियन कूं ज्यादा भयो जो टीवी देखकर अपनी रणनीति बना रहे हे | यानी बिनकुं हमारे न्यूज चैनलों की अक्लमंदी पर पूरो  भरोसो हो  | जे तौ अधर तैयार रहें जे बताबे कूं कि सरकार पकिस्तान और आतंकवाद के खिलाफ अब का करबे की सोच रही हते | जा देश में ऐसी मीडिया ऐसी पत्रकारिता होबेगी बाको मालिक तौ भगवान भी ना है सके |

मीडिया तो जो है सो है हमारे यहाँ की जनता भी सुभानअल्लाह है, कोई बोले “कौवा कान ले गयो ” तो जे लोग डंडा लेके कौव्वे के पीछे भाग लेंगे | अरे महानआत्मा पहले कान देख तौ  लो गयो  भी है कि नाय  | भाई अक्ल ना चल रही तो वो वाली कोल्ड्रिंक पीकें अपनी ‘अकल लगाओ’ कम से कम सुने सुनाये पर तौ ना जाओ तभी जा  देश कौ  और लोगन  कौ कुछ भलो है सके।

अर्चना चतुर्वेदी
9899624843







ब्रजभाषा व्यंग्य - जा रे कारे बदरा - मदन मोहन 'अरविन्द'


चहुँ दिस कान्ह कान्ह कहि टेरत अँसुअन बहत पनारे 

जा रे कारे बदरा
 
मदन मोहन 'अरविन्द'

'ब्रज के बिरही लोग बिचारे', अब महाकवि सूर के बचन हैं सो टारे कैसैं जायँ। ब्रज सौं बिरह कौ सम्बन्ध जोड़ दियौ तौ जोड़ दियौ, पर इतनौ कहकें सूरदास ठहरे नायँ। वे जानते हते कै बरसात बिना बिरह अधूरौ, तासौं संग की संग कह दई, 'सदा रहत पावस ऋतु हम पै जबते स्याम सिधारे'। सौ टका साँची कही, काहू बुजुर्ग बिरही सौं पूछ कै देख लीजौं, पतौ चल जायगौ, पावस में बिरह की डिगरी बढ़ती-चढ़ती ही दीखै। अब आप हम सौं पूछौगे कै भैया बाबड़े भये हौ का, कौन से ज़माने के बिरह की बात लै बैठे, दुनिया इक्कीसमी सदी में पहुँच गयी और तुम बाबा आदम के जमाने कौ बिरहा गायवे बैठ गए। उत्तर में आपते निवेदन मात्र इतनौ कै नई नौ दिना, पुरानी सौ दिना। बैसैं हू बिरह नयौ कहा, पुरानौ कहा। पैकिंग बदली होय तौ बदली होय प्रोडक्ट तौ पुरानौ ही है। 

आज की दुनिया में बिरह कौ बैक्टीरिया अपने पूरे जोबन पै है। सब के सब बिरही, काहू कूँ सत्ता कौ बिरह, काहू कूँ सम्पदा कौ, काहू कूँ पद-प्रतिष्ठा कौ तौ काहू कूँ रोजी-रोटी कौ, नाना प्रकार के बिरह। 'बिरह की मारी बन बन डोलूँ बैद मिला नहिं कोय', जा बीमारी कौ इलाज न पहलै भयौ न आज होय। हाथ कंगन कू आरसी का, पढ़े लिखे कू फारसी का, सब देख रहे हैं, आजकल सत्ता के बिरह कौ बुखार कैसौ लाइलाज होतौ जाय रह्यौ है। सन्निपात में सत्ता कौ रोगी कैसी-कैसी ऊल-जलूल बकै, है जाकी दवाई काऊ बैद के पास? हाँ, पहलै की तरह अब काऊ कौं पिया के परदेस कौ बिरह नायँ होय, और होय तौ काहे कू, सम्पदा सौं संजोग की संभावना बन जाय तौ फिर मानस जात के बिरह पै कौन ध्यान देय। बड़ी कोठी, लंबी कार, मोटौ बैंक बैलेंस सब कछू है सकै तौ फिर दस-बीस बरस एक दूसरे ते अलग पड़े रहे तौ जा बिरह कौ का रोमनौ? अरे मोबाइल है, वीडियो चैट है, रोज मिलौ, रोज बात करौ। संचार क्रांति के या दौर में कौनसी काऊ कबूतर की चोंच में चिट्ठी चिपकानी है, कै फिर काऊ बदरा कूँ दूत बनाय कै बालम के द्वार भेजनौ है। जो ऐसौ होतौ फिर तौ हर बरसात अटरिया-अटरिया पै जा रे कारे बदरा की गूँज है रही होती। जानै कितने मेघदूत रचे जाय चुके होते और न जानै कितने काव्य-रस-रसिक नित्य इनकौ रस पान कर कै अघाय रहे होते।


अब मानौ कै न मानौ, रामगिरि पर्वत पै अकेले पड़े निष्कासन कौ डंड झेल रहे यक्ष की बिरह-बेदना यक्षलोक स्थित अलकापुरी के एकांत में उनकी प्रियतमा तक एक मेघ के माध्यम सौं पहुँचाय कै महाकवि कालिदास और उनकी रचना मेघदूत कूँ कालजयी प्रतिष्ठा प्राप्त भई। सोच कै मन में हूक सी उठै कै ऐसी प्रतिष्ठा काऊ और के भागन में क्यों नायँ। मेरी पड़ौसन खाय दह्यौ, मो पै  कैसैं जाय रह्यौ, अरे हम काऊ ते कम हैं का। मन में आई सो ठान बैठे, बिरह कौ अनुभव तौ अपनौ हू काहू सौं उन्नीस नायँ पर सन्देसौ भेजवे कू मेघ की खोज जरूरी हती। अब कोई ऐसौ टिकाऊ मेघ होय जो थोड़ी देर ठहरै और ढंग ते हमारी बात सुनै तौ कछू बात बनै, पर आजकल के मेघ इत आये उत गए। देखते-देखते एक दिन ऐसौ हू आयौ कै हमने दीखवे में अनुभवी और वयोवृद्ध एक मेघ कू थोड़ी देर के ताईं हमारी बात सुनवे कू जैसें-तैसें मनाय लियौ, पर दुर्भाग्य देखौ कै हमारी मर्मान्तक पीड़ा सुनकै हू मेघ पसीज्यौ  नायँ, कहवे लग्यौ भैया अबते कोई मेघ न कहूँ सन्देस लै कै जायवे की हिम्मत करैगौ न पानी लै जायवे की। आजकल तिहारे राजकरमचारी जमीन-आसमान एक करै दै रहे हैं। बरसन पहलै मैं पानी लै कै चल्यौ तौ संग-संग अनेक बिरही जनन के सँदेसे पहुँचायवे की इच्छा मन में हती पर जाते भये मारग में ऐसे-ऐसे महानुभावन सौं भेंट भई कै दुबारा सपने हू में उनसौं मिलवे की कामना न रही।  कोई कहै हम स्थानीय निकाय के, कोई कहै हम राज्य सरकार के तौ कोई कहै हम केंद्र सरकार के अधिकारी हैं। बड़ी निराली बात लगी। इलाकौ एक और राज करवे बारे इतने। सबके सब मेरी तरफ सिकारी की नजर सौं घूरते मिले। जगह-जगह उत्कोच, अरे रिस्वत, जाते तुम पृथ्वी वासी अब सेवाशुल्क कहौ, दैते-दैते दम फूल गयौ। एक जगह तौ ऐसौ इरझ्यौ कै भैया बरसन बाद घर लौटनौ है रह्यौ है। कछू सज्जन मिले, कहवे लगे आमन्दनी की जाँच करवे बारे बिभाग ते हैं, पानी कहाँ ते लाये, बही-खाते दिखाऔ, मैनें लाख समझाए भैया जि पानी तौ मैं हर बरसात में सागर सौं लाय कै धरती कू दैतौ आयौ हूँ, इतनी सुनकै दूसरे सज्जन कड़क अवाज में बोले अच्छा, सफेद झूठ। चल बताय, समुद्र कौ खारौ पानी लै कै कौनसी प्रोसेसिंग यूनिट में मीठौ करै और समुद्र का तेरौ रिस्तेदार लगै सो वाते बिना बिल-परचा पानी मिल जाय। एक तीसरे सज्जन ने मेरी बात सुनी तौ चौंकवे के अंदाज में कहवे लगे अरे, हर बरसात काम करै और बच कै निकर जाय, तेरौ सबरौ कारौ कारोबार अब हमारी निगाह में आय गयौ है। देखें अब कैसें  छूटैगौ। इतने दिन सेवाशुल्क अदा करते-करते  मैं एक दम खाली है गयौ हतो और कहाँ ते लामतौ सो इन सबके घर-दफतरन के  चक्कर मारते-मारते का खबर कितने साल बीत गए, न मैं कहूँ पानी पहुँचाय पायौ और न घर की कछू खबर-सुध लै पायौ। भैया, सौगंध खाय लई अब सन्देस तौ दूर मैं काहू जगह पानी हू न लाऊँ। मेघ कौ दर्द देख्यौ तौ हम अपनी बिरह-ब्यथा भूल गए। खाली एक सलाह दै कै हमनें भरे मन सौं बरसन के बिरही मेघ कू बिदा कियौ कै मित्र, अब अगर ऐसी स्थिति में फिर कहूँ घिरवे लगौ तौ निर्भय है कै काऊ निरीह-निर्धन की आँखिन में स्थान ग्रहण कर लीजौं , ता पीछै  जितने चाहौ बरसते राहियोंतुम न राजा की आँखिन में आऔगे, न राज की और न राजकरमचारिन की।

मदन मोहन 'अरविन्द
9897562333 

मराठी गझले - दत्त प्रसाद जोग

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1

जर हवे गाणे समेवर यायला
तू पुन्हा यावेस टाळी द्यायला

चल पडू बाहेर पुर्वीसारखे
हात मिसऱ्याचा धरुन हिंडायला

कल्पना शेफारली स्पर्शामुळे
लागले आहे कसेसे व्हायला

हा समज सन्मान जाळ्याचा तुझ्या
थांबलो थोडा तिथे गुंतायला

मी तुझी चर्चा मनाशी टाळतो ,.
आठवण देते कुठे विसरायला!!

नाव तो गल्लीतले सांभाळतो
तो अताशा दूर जातो प्यायला

काळजी माळ्यास नव्हती फारशी
ती सकाळी यायची चालायला

फक्त मी कंटाळलो हे बोललो
माणसे गेली सरण आणायला!!


2

वाटेने सावरले आहे...
हमरस्त्याने लुटले होते....

मिठीविना पर्यायच नव्हता
गात्र गात्र आसुसले होते!!

शब्द पुन्हा भिरभिरू लागले
दुःख नवे सापडले होते...

फक्त मुखवटे रडले मित्रा
आत चेहरे हसले होते....

तू जाताना हसलो होतो
(अश्रू मग ओघळले होते)

केवळ चर्चे पुरते उरले
खरे इथे जे लढले होते


3

जगण्यासाठी अवघड झाला
हा मोसमही भाकड झाला

वर्षभरातच बदली आली
सज्जन होता..बोजड झाला

उनाड होता तेव्हा लढला
घरटे विणले भेकड झाला

फक्त इगोचे लाड भोवले
जितका जपला वातड झाला

आधी नव्हता माणुस माकड
माणुस आता माकड झाला

मी दुःखांचा झालो श्रावण
जन्म अकारण कावड झाला....



4

दगडाना शेंदूर माणसे फासत गेली
माणसातला देव माणसे विसरत गेली,,,,

डुलकीच्या वेळीच फोन हा गावाकडचा
कळण्या आधी शिवी मुखातुन नकळत गेली,,,

घाट तुझा पाहून कडेने चालत गेलो...
नजर खोडकर वळणांवरती थबकत गेली,,,,

शब्दांनी तर भेग पाडली होती केवळ...
मौनाने ती दरी सारखी वाढत गेली!!

थकलेल्या बापाची झाली सही थरथरत
शिवार विकले,पोरे नोटा मोजत गेली,,,

वाटचाल  मी बघून ज्यांची शिकलो होतो
तीच माणसे गर्दीमध्ये मिसळत गेली,,,.

आज उन्हाला असेल बहुधा  कळला चटका
ऐन दुपारी ती अनवाणी चालत गेली....


5

तू मला चुकतेस दुनिये ओळखाया
वाकतो मुद्दाम ओळख दाखवाया

तिर्थयात्रा किर्तनांच्या सोड बाता
सांग लेका संपली का मोहमाया,...

लागली चाहूल पाठी भ्याड दैवा
ये पुन्हा तय्यार मी आघात घ्याया,...

सांग जा अब्रू जिची लुटली तिला हे...
' हर किसी इंन्सान में ईश्वर समाया,,,


6

घसरलो तर असो कोसळू दे मला
शिखर असते कसे ते कळू दे मला

वेळ आली न अद्याप चमकायची
काजव्या मग बघू!मावळू दे मला,,,!!

शोध माझा अथक बंद होईलही
(एकदा मी इथे आढळू दे मला...)

वेदने एवढ्यातच निघालिस कुठे?
घट्ट थोडी मिठी आवळू दे मला,...

तू नको शब्द कुठलाच बोलायला
ओठ हसता तुझे पाघळू दे मला,...

मी निवडले मशाली प्रमाणे जिणे
वाट गवसो तुला अन् जळू दे मला....!!


7

मला तर अवगतच नाही कला ही हात बघण्याची
कधी देऊन बघ सवलत तुझ्या डोळ्यात बघण्याची!!

हरवला तो म्हणावे की स्वतःला गवसला आहे ?
अचानक लागली त्याला सवय शुन्यात बघण्याची!

तळाशी खोल डोहाच्या मला जाण्यात आहे रस
तुझीही हौस भागव तू मला पाण्यात बघण्याची

अरे हरएक जातीचे तुझ्या आतच उभे श्वापद
गरज नाही तशी काही तुला रानात बघण्याची

जगावरची नजर थोडी हटवली योग्य केले मी
खरोखर वेळ होती ती स्वतःच्या आत बघण्याची..

मला कित्येक ढंगांचे रडाया लावले त्याने
किती ही हौस दैवाला गळ्याची जात बघण्याची,..


8

या जगा पासून अंतर योग्य राखत जायचे
शक्य तितक्या काळजांचे साद ऐकत जायचे,,..

एवढ्यासाठीच मी ही झिरपतो डबक्यातुनी
साचण्यापेक्षा बरे हे मुक्त वाहत जायचे..

नेमक्या नाजूक ओळी यायच्या हाती तुझ्या
सोड तू दिसताक्षणी काळीज वाचत जायचे!!

ती निघुन गेली तरीही यायची स्वप्नात ती
रोज मग पैंजण पहाटे मंद वाजत जायचे....

सांधतो जखमा दिवसभर नाद हा आहे खुळा
दांडगे रात्री व्यसन हे घाव उसवत जायचे

तू मला विटलास मग मी घेतली बदली इथे
सांग मी देवा तुला का परत शोधत जायचे!!

वेळ ना मिळतो विणाया वस्त्र कुठलेही नवे
फाडते नियती इथे ते फक्त टाचत जायचे


दत्तप्रसाद जोग

9403817943

हिन्दी उर्दू भाषाएँ व लिपियाँ - नवीन

"फ़ारसी लिपि (नस्तालीक़) सीखो नहीं तो हम आप की ग़ज़लों को मान्यता नहीं देंगे" टाइप जुमलों के बीच मैं अक्सर सोचता हूँ क्या कभी किसी जापानी विद्वान ने कहा है कि "हाइकु लिखने हैं तो पहले जापनी भाषा व उस की 'कांजी व काना' लिपियों को भी सीखना अनिवार्य है"। क्या कभी किसी अंगरेज ने बोला है कि लैटिन-रोमन सीखे बग़ैर सोनेट नहीं लिखने चाहिये।

मेरा स्पष्ट मानना है कि:-

कोई भी रस्म-उल-ख़त* वह ज़मीन है जिस पर।
ज़ुबानें पानी की मानिन्द रक़्स करती हैं॥
*लिपियाँ

उर्दू अगर फ़ारस से आयी होती तब तो फ़ारसी लिपि की वकालत समझ में आती मगर यह तो सरज़मीने-हिन्दुस्तान की ज़ुबान है भाई। इस का मूल स्वरूप तो देवनागरी लिपि ही होनी चाहिये - ऐसा मुझे भी  लगता है। हम लोगों ने रेल, रोड, टेम्परेचर, फ़ीवर, प्लेट, ग्लास, लिफ़्ट, डिनर, लंच, ब्रेकफ़ास्ट, सैलरी, लोन, डोनेशन जैसे सैंकड़ों अँगरेजी शब्दों को न सिर्फ़ अपनी रोज़मर्रा की बातचीत का स-हर्ष हिस्सा बना लिया है बल्कि इन को देवनागरी लिपि ही में लिखते भी हैं। इसी तरह अरबी-फ़ारसी लफ़्ज़ों को देवनागरी में क्यों नहीं लिखा जा सकता। उर्दू के तथाकथित हिमायतियों को याद रखना चाहिये कि देवनागरी लिपि उर्दू ज़ुबान के लिये संजीवनी समान है।

कुदरत का कानून तो यह ही कहता है साहब।
चिपका-चिपका रहता हो वह फैल नहीं सकता॥
मज़हब और सियासत से भाषाएँ मुक्त करो।
चुम्बक से जो चिपका हो वह फैल नहीं सकता॥

आय लव टु राइट एण्ड रीड उर्दू इन देवनागरी लिपि - यह आज की हिंगलिश है जिसे धड़ल्ले से बोला जा रहा है - लिहाज़ा लिख कर भी देख लिया।

अगर उच्चारण के आधार पर कोई बहस करना चाहे तो उसे पचास-साठ-सत्तर यानि अब से दो-तीन पीढियों पहले के दशकों की फ़िल्मों में शुद्ध संस्कृत निष्ठ हिन्दी और ख़ालिस पर्सियन असर वाली उर्दू के मज़ाहिया इस्तेमालों पर एक बार नज़रे-सानी कर लेना चाहिये। कैसा-कैसा माख़ौल उड़ाया गया है जिस पर आज भी हम जैसे भाषा प्रेमी भी अपनी हँसी रोक नहीं पाते।

बिना घुमाये-फिराये सीधी -सीधी दो टूक बात यही है कि उर्दू विभिन्न विभाजनों के पहले वाले संयुक्त  हिन्दुस्तान की ज़ुबान है जिस की मूल लिपि देवनागरी को ही होना चाहिये - ऐसा मुझे भी लगता है। जैसे हम लोग चायनीज़, जर्मनी आदि स्वेच्छा से सीखते हैं उसी तरह फ़ारसी लिपि को सीखना भी  स्वेच्छिक होना चाहिये - बन्धनकारक कदापि नहीं।

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क्षेत्रीय भाषाओं से हिन्दी को नुकसान - नवीन

लोहड़ी, पोंगल और मकर संक्रान्ति की शुभकामनाएँ। 

एक महत्वपूर्ण विषय पर स्वस्थ-विमर्श हेतु सभी साथियों से निवेदन। 

पूरे देश में आज कल जहाँ एक तरफ़ भोजपुरी व अवधी को भाषाओं की सूची (आठवीं अनुसूची) में स्थान दिलवाने हेतु प्रयास चल रहे हैं वहीं दूसरी ओर कुछ विद्वान इस के विरोध में भी उठ खड़े हुये हैं। 

जो पक्ष में हैं वह अपने अस्तित्व, अपने पुरखों की पहिचान को बचाने का प्रयास कर रहे हैं। जो विपक्ष में हैं उन का कहना है कि अगर क्षेत्रीय भाषा-बोलियों को सूची में शामिल किया गया तो हिन्दी अपना दर्ज़ा खो देगी एवम् उस की जगह उर्दू ले लेगी। 

मैं समझता रहा हूँ कि उर्दू भाषा या बोली न हो कर एक लहजा (pattern) है जो नस्तालीक़ (फ़ारसी स्क्रिप्ट) और देवनागरी के साथ-साथ रोमन में भी लिखी जाती है। यक़ीन जानिये इसे हिब्रू में भी लिखा जा सकता है। इसी तरह संस्कृत को भी बहुत पहले से नस्तालीक़ व रोमन आदि लिपियों में लिखा जाता रहा है। 

मैं समझता रहा हूँ कि भले ही आजकल हिंगलिश लहजा (pattern) सर चढ कर बोल रहा है मगर यह एक स्वतन्त्र भाषा या बोली नहीं है - कम-अज़-कम अब तक तो नहीं ही है। 

मैं समझता रहा हूँ कि भाषा-बोली एवम् लिपि दो अलग विषय-वस्तु हैं। आज दुनिया की तमाम भाषाएँ रोमन में भी लिखी जा रही हैं। मगर इस के चलते सारी दुनिया का ब्रिटेनीकरण तो नहीं हो गया। 

मैं समझता रहा हूँ कि ब्रजभाषा एक समय पूरे संसार की साहित्यिक भाषा रही है। मगर अफ़सोस आज ब्रजभाषा चर्चाओं में नहीं है। शायद समय को यही स्वीकार्य हो। शायद ब्रजभाषा सद्य-प्रासंगिक स्तरों  से बचते हुये संक्रमण काल की प्रतीक्षा कर रही हो। 

मैं समझता रहा हूँ कि आज भी हम तथाकथित हिन्दी-उर्दू भाषी व्यक्ति, तथाकथित हिन्दी-उर्दू की बजाय, अवधी-भोजपुरी-राजस्थानी-ब्रज-हिमाचली-गुजराती-मराठी आदि ही अधिकांशत: बोलते हैं। या फिर हिन्दुस्तानी या हिंगलिश या इंगलिश। दक्षिण भारत का मुसलमान तुलू-कन्नड़-तमिल आदि बोलता है। बांग्लादेश में आज भी बंगाली बोली जाती है। 

मैं समझता रहा हूँ कि यदि हमारी हिन्दवी या हिन्दुस्तानी ज़ुबान को तथाकथित हिन्दी या उर्दू के दायरों में न बाँटा जाता तो कहीं ज़ियादा बेहतर होता।  

विमर्श का केन्द्र - क्षेत्रीय बोलियों को सूची में शामिल करने से हिन्दी को होने वाले नुकसान - है। 

आप सभी साथियों से निवेदन है कि इस स्वस्थ-विमर्श में अपने मूल्यवान विचारों को अवश्य रखें। 

सादर, 

नवीन सी• चतुर्वेदी 


9967024593 
13.01.2016

सीधे-सीधे ढाई करोड़ रुपयों की बचत

सुनार कहे वह सोना, डॅाक्टर बताये वह दवाई और मैडिकल स्टोर वाला माँगे वही दवा का दाम - यही नियति रही है हम लोगों की। मगर कुछ युग-दृष्टा ऐसी नियतियों को तोड़ते भी हैं।

जिन दिनों हिन्दुस्तान टू जी थ्री जी फोर जी एट्सेक्ट्रा से गुज़र रहा था उन्हीं दिनों एस वी सी फाउण्डेशन वृहत्तर सामाजिक लाभार्थ कुछ करने के प्रयत्नों में लगा हुआ था। इन प्रयत्नों को अमली जामा पहनाया गया तक़रीबन दो साल पहले - २०१५ की शुरुआत में। एस वी सी फाउण्डेशन के चिकित्सकीय प्रकल्प के द्वारा मथुरा में सर्व-साधारण को एमआरपी से कम मूल्य पर दवाएँ उपलब्ध करवाई गईं जो कि आज भी सर्व-साधारण को सहज उपलब्ध हैं।

फाउण्डेशन द्वारा ज़ारी किये गये आँकड़ों के अनुसार १० करोड़ रुपये मूल्य की दवाइयाँ सर्व-साधारण को लगभग साढे सात करोड़ रुपयों में उपलब्ध करवाई गईं। परिणामस्वरूप जनता-जनार्दन की गाढी कमाई के ढाई करोड़ रुपयों की सीधे-सीधे बचत हुई।

हालाँकि अग्रोद्धरित दौनों उदाहरणों में कोई साम्य नहीं है फिर भी दूरदर्शिता व व्यापक-असर के उदाहरण के मद्देनज़र कहा जा सकता है कि जिस तरह भले ही कोई व्यक्ति नोटबन्दी के पक्ष में हो या विपक्ष में परन्तु इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि नोटबन्दी प्रक्रिया ने सवा सौ करोड़ देशवासियों को मितव्ययिता का पाठ पढाते हुए, फिजूलखर्ची का अर्थ समझाते हुए, एक लम्बे अन्तराल बाद लोगों को कम से कम जागरुक तो ज़ुरूर ही बनाया है; उसी तरह एस वी सी फाउण्डेशन ने भी सिर्फ़ एक ही मद यानि दवाई के ख़र्चे में एक अपेक्षाकृत छोटे शहर के कुल जमा दो लाख लोगों के कुछ ही महीनों के कालखण्ड में दो करोड़ अड़सठ लाख रुपये बचा कर एक बड़ी पहल की है। इस बचत को यदि आँकड़े-विशेषज्ञ राष्ट्रीय-गुणनफल के पैमाने पर परखें तो हैरत-अंगेज़ नतीज़े बरामद होंगे।

मुझे याद नहीं आ पा रहा कि मैडिकल स्टोर वालों से दवा के दाम को ले कर मोलभाव होता हो। यहाँ तक कि इस्कोन वालों के भक्ति वेदान्त अस्पताल में भी दवाएँ सम्भवत: एमआरपी पर ही बेची जाती हैं। ऐसे में एस वी सी फाउण्डेशन द्वारा १० करोड़ १० लाख मूल्य की दवाएँ ७ करोड़ ४२ लाख रुपयों में उपलब्ध करवाते हुये तक़रीबन दो लाख लोगों के २ करोड़ ६८ लाख रुपये बचाना यानि एमआरपी पर 26•53% की छूट यानि बहुत बड़ी बचत है।

इस महत्कर्म के लिये एस वी सी फाउण्डेशन के कर्ता-धर्ता आदरणीय सुरेश विठ्ठलदास पाठक जी एवम् उन की टीम के हर एक सदस्य को बारम्बार साधुवाद। जमना मैया सदैव आप कों सहाय रहें और आप लोग इसी तरह आप के माता-पिता-कुल-समाज आदि का नाम रौशन करते रहें। जय श्री कृष्ण।
सादर, 
नवीन सी• चतुर्वेदी 

१२ जनवरी २०१६


मोदी वाला विमुद्रीकरण

हालाँकि बैंकों का राष्ट्रीयकरण राष्ट्र के हित में था मगर एक मिनट के लिये सोचिये कि आप एक चाय की टपरी खोलते हैं  फिर उसे छोटा-मोटा होटल बनाते हैं। जोख़िम उठाते हैं। फिर उसे रेस्त्राँ में तब्दील करते हैं। फिर जोख़िम उठाते हैं और क़दम दर क़दम बढते हुये अपनी चाय की टपरी को एक आलीशान पञ्चतारा होटल बना देते हैं। तक़रीबन एक उम्र लग जाती है यह सब करते हुये। यह सब होने के बाद आप का हक़ बनता है कि शेष जीवन अपने लगाये हुये पेड़ों के फलों का स्वाद लेते हुये गुज़ारें। मगर तभी अचानक एक आधी रात को प्रधानमंत्री का आदेश निकलता है और आप का  पञ्चतारा होटल अब आप का नहीं रहा, सरकार का हो गया है - ---------- ज़रा सोचिये कैसा लगेगा आप को? रातों रात अनेक निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था - राष्ट्रीय हित में!!!!!  उक्त राष्ट्रीयकरण के बाद की कथा-व्यथाएँ सर्वज्ञात हैं।

एक और दृश्य - सन २०१६, जो कि पिछले पैंतीस-चालीस बरसों में पर्याप्त आधुनिक हो चुका है, में स्कूल से आप का बच्चा लौटता है - हाथ में एक declaration form होता है। आप से पूछा जाता है कि आप की पत्नी या आप की नसबन्दी हो चुकी है या नहीं? यदि नहीं तो कब तक करवा ली जायेगी? आज सन दो हज़ार सोलह में यह बहुत मामूली बात लगती है मगर चालीस साल पहले के समय में जा कर सोचो और बताओ कैसा लगता है? विशेष कर तब जब आप वह बच्चे हैं जो स्कूल से declaration form ले कर लौटा है और दुर्भाग्यवश उस बच्चे के पिता जी के देहावसान के कारण उस बच्चे की माँ विधवा हो चुकी है! परन्तु declaration form देने वाले मूर्खों को तो बस declaration चाहिये!!! साधु-सन्तों को, बुड्ढे-बुड्ढियों को भी ज़बर्दस्ती अस्पताल में लिटा-लिटा कर नसबन्दियाँ कर दी गयी थीं। यह कड़वा है परन्तु सत्य है।

दिन का अधिकांश हिस्सा व्हौट्सप / फ़ेसबुक पर गुज़ारने वालों को तो यह भी इल्म नहीं था कि अपने हिन्दुस्तान में demonetization यानि विमुद्रीकरण पहले भी सो चुका है। वह निर्णय भी अचानक ही लिया गया था। और तब भी बहुत अफ़रातफ़री मची थी। उक्त विमुद्रीकरण के चलते लोगों को समय पर वेतन नहीं मिल पाया था। वह समय सामञ्जस्य के साथ जीवन जीने वालों का समय था इसलिये चर्चाएँ बहुत अधिक नहीं हुईं।

बात विमुद्रीकरण की हो या भारत-पाकिस्तान बँटवारे की - कष्ट सामान्य जनता ही उठाती है। भाग मिल्खा भाग में कुछ झलकियाँ देख कर अन्दाज़ा आ चुका होगा कि भारत-पाकिस्तान बँटवारे में हम लोगों ने क्या पाया क्या खोया? काश कोई मुनव्वर राणा मुज़ाहिरनामा हिन्दुस्तान के दृष्टिकोण से लिख पाता। ज़मीन दी, पैसा दिया, शरणार्थियों को क़ुबूल किया, रक्तपात झेला और आज भी आतंकवाद का दंश झेलने के बावुजूद विश्व-बिरादरी के सामने कश्मीर पर बार बार सफ़ाई देने के लिये मजबूर हैं।

ग़रीबों के उत्थान के लिये आवाज़ उठाना क़तई ग़लत नहीं है परन्तु चक्काजाम वाले दत्ता सामन्त, जोर्ज-फर्नाण्डिस आदि के आन्दोलन के बाद मुम्बई के मिल मजदूरों की जो दुर्दशा हुई है - किसी से छुपी नहीं है। आन्दोलन के बाद मिल मजदूरों के और उन के नेताओं के जीवन स्तर में आने वाले परिवर्तन का अध्ययन कितने समाजवादियों या वामपंथियों ने किया है अब तक?

विमुद्रीकरण जैसे और जब मोदी ने किया है यदि वह ग़लत है तो कैसे और कब किया जाना चाहिये था? ऐसे निर्णय कोई भी ले, कभी भी ले; ऐसे निर्णयों से कष्ट होता ही है। हम सामान्य मानवी ही कष्ट उठाते हों ऐसा भी नहीं है! छोटे लोगों की परेशानियाँ छोटी होती हैं और बड़े लोगों की बड़ी। पैसे की तंगी यदि हम आप सामान्य लोगों को है तो टाटा-बिड़ला जैसों को भी है। परेशान कमोबेश हम सब हैं। मैं स्वयं प्रवास में होने के कारण पल-पल इस कष्ट का अनुभव कर रहा हूँ।

मज़े की बात यह है कि इस निर्णय का विरोध करने वालों में अधिकांश मोदी विरोधी मिल रहे हैं। मैं सोच रहा हूँ कि यदि भारत-पाकिस्तान बँटवारा सही था! ज़बरन करायी जाने वाली नसबन्दियाँ सही थीं, बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी सही था, "BIFR सिस्टम" भी सही है तो बेचारे मोदी को कब तक दोष दिया जाय?

मोदी को गरियाने से छुट्टी ले कर ज़रा BIFR का निष्पक्ष और सूक्ष्म अध्ययन करने का प्रयास करें। मेरा दावा है कि आप यदि वास्तव में BIFR का निष्पक्ष और सूक्ष्म अध्ययन कर सके तो स्वयं मोदी से इस BIFR के बारे में भी कुछ करने को कहेंगे। यदि आप नौकरी पेशा हैं, कुछ महीने आप नौकरी पर नहीं हैं तो क्या सरकार आप का घर चलायेगी? नहीं न!!!!! तो फिर आमआदमी के टैक्स का पैसा रूप बदल-बदल कर BIFR तक क्यों पहुँचे????

मेरे प्यारे साथियो! जागना है तो सच में जागो। प्रणाम।