चहुँ दिस कान्ह कान्ह कहि टेरत अँसुअन बहत पनारे
जा रे कारे बदरा
मदन मोहन 'अरविन्द'
'ब्रज के बिरही लोग बिचारे', अब महाकवि सूर के बचन हैं सो टारे कैसैं जायँ। ब्रज सौं बिरह कौ
सम्बन्ध जोड़ दियौ तौ जोड़ दियौ, पर इतनौ कहकें सूरदास ठहरे
नायँ। वे जानते हते कै बरसात बिना बिरह अधूरौ, तासौं संग
की संग कह दई, 'सदा रहत पावस ऋतु हम पै जबते स्याम सिधारे'। सौ टका साँची कही, काहू बुजुर्ग बिरही सौं
पूछ कै देख लीजौं, पतौ चल जायगौ, पावस में बिरह की डिगरी बढ़ती-चढ़ती ही दीखै। अब आप हम सौं पूछौगे कै
भैया बाबड़े भये हौ का, कौन से ज़माने के बिरह की बात लै
बैठे, दुनिया इक्कीसमी सदी में पहुँच गयी और तुम बाबा आदम
के जमाने कौ बिरहा गायवे बैठ गए। उत्तर में आपते निवेदन मात्र इतनौ कै नई नौ दिना,
पुरानी सौ दिना। बैसैं हू बिरह नयौ कहा, पुरानौ कहा। पैकिंग बदली होय तौ बदली होय प्रोडक्ट तौ पुरानौ ही है।
आज की दुनिया में बिरह कौ बैक्टीरिया अपने पूरे जोबन पै है। सब
के सब बिरही, काहू कूँ
सत्ता कौ बिरह, काहू कूँ सम्पदा कौ, काहू कूँ पद-प्रतिष्ठा कौ तौ काहू कूँ रोजी-रोटी कौ, नाना प्रकार के बिरह। 'बिरह की मारी बन बन
डोलूँ बैद मिला नहिं कोय', जा बीमारी कौ इलाज न पहलै भयौ
न आज होय। हाथ कंगन कू आरसी का, पढ़े लिखे कू फारसी का,
सब देख रहे हैं, आजकल सत्ता के बिरह कौ
बुखार कैसौ लाइलाज होतौ जाय रह्यौ है। सन्निपात में सत्ता कौ रोगी कैसी-कैसी
ऊल-जलूल बकै, है जाकी दवाई काऊ बैद के पास? हाँ, पहलै की तरह अब काऊ कौं पिया के परदेस कौ
बिरह नायँ होय, और होय तौ काहे कू, सम्पदा सौं संजोग की संभावना बन जाय तौ फिर मानस जात के बिरह पै कौन
ध्यान देय। बड़ी कोठी, लंबी कार, मोटौ
बैंक बैलेंस सब कछू है सकै तौ फिर दस-बीस बरस एक दूसरे ते अलग पड़े रहे तौ जा बिरह
कौ का रोमनौ? अरे मोबाइल है, वीडियो
चैट है, रोज मिलौ, रोज बात करौ।
संचार क्रांति के या दौर में कौनसी काऊ कबूतर की चोंच में चिट्ठी चिपकानी है,
कै फिर काऊ बदरा कूँ दूत बनाय कै बालम के द्वार भेजनौ है। जो ऐसौ
होतौ फिर तौ हर बरसात अटरिया-अटरिया पै जा रे कारे बदरा की गूँज है रही होती। जानै
कितने मेघदूत रचे जाय चुके होते और न जानै कितने काव्य-रस-रसिक नित्य इनकौ रस पान
कर कै अघाय रहे होते।
अब मानौ कै न मानौ, रामगिरि पर्वत पै अकेले पड़े निष्कासन कौ डंड झेल रहे यक्ष की
बिरह-बेदना यक्षलोक स्थित अलकापुरी के एकांत में उनकी प्रियतमा तक एक मेघ के
माध्यम सौं पहुँचाय कै महाकवि कालिदास और उनकी रचना मेघदूत कूँ कालजयी प्रतिष्ठा
प्राप्त भई। सोच कै मन में हूक सी उठै कै ऐसी प्रतिष्ठा काऊ और के भागन में क्यों
नायँ। मेरी पड़ौसन खाय दह्यौ, मो पै कैसैं जाय रह्यौ, अरे हम काऊ ते कम हैं का। मन
में आई सो ठान बैठे, बिरह कौ अनुभव तौ अपनौ हू काहू सौं
उन्नीस नायँ पर सन्देसौ भेजवे कू मेघ की खोज जरूरी हती। अब कोई ऐसौ टिकाऊ मेघ होय
जो थोड़ी देर ठहरै और ढंग ते हमारी बात सुनै तौ कछू बात बनै, पर आजकल के मेघ इत आये उत गए। देखते-देखते एक दिन ऐसौ हू आयौ कै हमने
दीखवे में अनुभवी और वयोवृद्ध एक मेघ कू थोड़ी देर के ताईं हमारी बात सुनवे कू
जैसें-तैसें मनाय लियौ, पर दुर्भाग्य देखौ कै हमारी
मर्मान्तक पीड़ा सुनकै हू मेघ पसीज्यौ नायँ, कहवे लग्यौ भैया अबते कोई मेघ न कहूँ सन्देस लै कै जायवे की हिम्मत
करैगौ न पानी लै जायवे की। आजकल तिहारे राजकरमचारी जमीन-आसमान एक करै दै रहे हैं।
बरसन पहलै मैं पानी लै कै चल्यौ तौ संग-संग अनेक बिरही जनन के सँदेसे पहुँचायवे की
इच्छा मन में हती पर जाते भये मारग में ऐसे-ऐसे महानुभावन सौं भेंट भई कै दुबारा
सपने हू में उनसौं मिलवे की कामना न रही। कोई कहै
हम स्थानीय निकाय के, कोई कहै हम राज्य सरकार के तौ कोई
कहै हम केंद्र सरकार के अधिकारी हैं। बड़ी निराली बात लगी। इलाकौ एक और राज करवे
बारे इतने। सबके सब मेरी तरफ सिकारी की नजर सौं घूरते मिले। जगह-जगह उत्कोच,
अरे रिस्वत, जाते तुम पृथ्वी वासी अब
सेवाशुल्क कहौ, दैते-दैते दम फूल गयौ। एक जगह तौ ऐसौ
इरझ्यौ कै भैया बरसन बाद घर लौटनौ है रह्यौ है। कछू सज्जन मिले, कहवे लगे आमन्दनी की जाँच करवे बारे बिभाग ते हैं, पानी कहाँ ते लाये, बही-खाते दिखाऔ, मैनें लाख समझाए भैया जि पानी तौ मैं हर बरसात में सागर सौं लाय कै
धरती कू दैतौ आयौ हूँ, इतनी सुनकै दूसरे सज्जन कड़क अवाज
में बोले अच्छा, सफेद झूठ। चल बताय, समुद्र कौ खारौ पानी लै कै कौनसी प्रोसेसिंग यूनिट में मीठौ करै और
समुद्र का तेरौ रिस्तेदार लगै सो वाते बिना बिल-परचा पानी मिल जाय। एक तीसरे सज्जन
ने मेरी बात सुनी तौ चौंकवे के अंदाज में कहवे लगे अरे, हर
बरसात काम करै और बच कै निकर जाय, तेरौ सबरौ कारौ कारोबार
अब हमारी निगाह में आय गयौ है। देखें अब कैसें छूटैगौ।
इतने दिन सेवाशुल्क अदा करते-करते मैं एक दम खाली
है गयौ हतो और कहाँ ते लामतौ सो इन सबके घर-दफतरन के चक्कर मारते-मारते का खबर कितने साल बीत गए, न
मैं कहूँ पानी पहुँचाय पायौ और न घर की कछू खबर-सुध लै पायौ। भैया, सौगंध खाय लई अब सन्देस तौ दूर मैं काहू जगह पानी हू न लाऊँ। मेघ कौ
दर्द देख्यौ तौ हम अपनी बिरह-ब्यथा भूल गए। खाली एक सलाह दै कै हमनें भरे मन सौं
बरसन के बिरही मेघ कू बिदा कियौ कै मित्र, अब अगर ऐसी
स्थिति में फिर कहूँ घिरवे लगौ तौ निर्भय है कै काऊ निरीह-निर्धन की आँखिन में
स्थान ग्रहण कर लीजौं , ता पीछै जितने चाहौ बरसते राहियों, तुम न राजा
की आँखिन में आऔगे, न राज की और न राजकरमचारिन की।
मदन मोहन 'अरविन्द'
9897562333