हालाँकि बैंकों का राष्ट्रीयकरण राष्ट्र के हित
में था मगर एक मिनट के लिये सोचिये कि आप एक चाय की टपरी खोलते हैं फिर उसे छोटा-मोटा होटल बनाते हैं। जोख़िम उठाते हैं। फिर
उसे रेस्त्राँ में तब्दील करते हैं। फिर जोख़िम उठाते हैं और क़दम दर क़दम बढते हुये
अपनी चाय की टपरी को एक आलीशान पञ्चतारा होटल बना देते हैं। तक़रीबन एक उम्र लग
जाती है यह सब करते हुये। यह सब होने के बाद आप का हक़ बनता है कि शेष जीवन अपने
लगाये हुये पेड़ों के फलों का स्वाद लेते हुये गुज़ारें। मगर तभी अचानक एक आधी रात
को प्रधानमंत्री का आदेश निकलता है और आप का पञ्चतारा होटल अब आप का नहीं रहा, सरकार का हो गया है - ---------- ज़रा सोचिये कैसा लगेगा आप को? रातों रात अनेक निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था
- राष्ट्रीय हित में!!!!! उक्त राष्ट्रीयकरण के बाद की
कथा-व्यथाएँ सर्वज्ञात हैं।
एक और दृश्य - सन २०१६, जो कि पिछले पैंतीस-चालीस बरसों में पर्याप्त आधुनिक हो
चुका है, में स्कूल से आप का बच्चा लौटता है - हाथ में
एक declaration form होता है। आप से
पूछा जाता है कि आप की पत्नी या आप की नसबन्दी हो चुकी है या नहीं? यदि नहीं तो कब तक करवा ली जायेगी? आज सन दो हज़ार सोलह में यह बहुत मामूली बात लगती है मगर
चालीस साल पहले के समय में जा कर सोचो और बताओ कैसा लगता है? विशेष कर तब जब आप वह बच्चे हैं जो स्कूल से declaration
form ले कर लौटा है और दुर्भाग्यवश उस बच्चे के पिता
जी के देहावसान के कारण उस बच्चे की माँ विधवा हो चुकी है! परन्तु declaration
form देने वाले मूर्खों को तो बस declaration चाहिये!!! साधु-सन्तों को, बुड्ढे-बुड्ढियों को भी ज़बर्दस्ती अस्पताल में लिटा-लिटा कर नसबन्दियाँ कर दी
गयी थीं। यह कड़वा है परन्तु सत्य है।
दिन का अधिकांश हिस्सा व्हौट्सप / फ़ेसबुक पर
गुज़ारने वालों को तो यह भी इल्म नहीं था कि अपने हिन्दुस्तान में demonetization
यानि विमुद्रीकरण पहले भी सो चुका है। वह
निर्णय भी अचानक ही लिया गया था। और तब भी बहुत अफ़रातफ़री मची थी। उक्त विमुद्रीकरण
के चलते लोगों को समय पर वेतन नहीं मिल पाया था। वह समय सामञ्जस्य के साथ जीवन
जीने वालों का समय था इसलिये चर्चाएँ बहुत अधिक नहीं हुईं।
बात विमुद्रीकरण की हो या भारत-पाकिस्तान
बँटवारे की - कष्ट सामान्य जनता ही उठाती है। भाग मिल्खा भाग में कुछ झलकियाँ देख
कर अन्दाज़ा आ चुका होगा कि भारत-पाकिस्तान बँटवारे में हम लोगों ने क्या पाया
क्या खोया? काश कोई मुनव्वर राणा मुज़ाहिरनामा हिन्दुस्तान
के दृष्टिकोण से लिख पाता। ज़मीन दी, पैसा दिया, शरणार्थियों को क़ुबूल किया, रक्तपात झेला और आज भी आतंकवाद का दंश झेलने के बावुजूद
विश्व-बिरादरी के सामने कश्मीर पर बार बार सफ़ाई देने के लिये मजबूर हैं।
ग़रीबों के उत्थान के लिये आवाज़ उठाना क़तई ग़लत
नहीं है परन्तु चक्काजाम वाले दत्ता सामन्त, जोर्ज-फर्नाण्डिस आदि के आन्दोलन के बाद मुम्बई के मिल मजदूरों की जो दुर्दशा
हुई है - किसी से छुपी नहीं है। आन्दोलन के बाद मिल मजदूरों के और उन के नेताओं के
जीवन स्तर में आने वाले परिवर्तन का अध्ययन कितने समाजवादियों या वामपंथियों ने
किया है अब तक?
विमुद्रीकरण जैसे और जब मोदी ने किया है यदि वह
ग़लत है तो कैसे और कब किया जाना चाहिये था? ऐसे निर्णय कोई भी ले, कभी भी ले; ऐसे निर्णयों से कष्ट होता ही है। हम सामान्य मानवी ही कष्ट उठाते हों ऐसा भी
नहीं है! छोटे लोगों की परेशानियाँ छोटी होती हैं और बड़े लोगों की बड़ी। पैसे की
तंगी यदि हम आप सामान्य लोगों को है तो टाटा-बिड़ला जैसों को भी है। परेशान कमोबेश
हम सब हैं। मैं स्वयं प्रवास में होने के कारण पल-पल इस कष्ट का अनुभव कर रहा हूँ।
मज़े की बात यह है कि इस निर्णय का विरोध करने
वालों में अधिकांश मोदी विरोधी मिल रहे हैं। मैं सोच रहा हूँ कि यदि
भारत-पाकिस्तान बँटवारा सही था! ज़बरन करायी जाने वाली नसबन्दियाँ सही थीं, बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी सही था, "BIFR
सिस्टम" भी सही है तो बेचारे मोदी को कब
तक दोष दिया जाय?
मोदी को गरियाने से छुट्टी ले कर ज़रा BIFR का निष्पक्ष और सूक्ष्म अध्ययन करने का प्रयास करें। मेरा
दावा है कि आप यदि वास्तव में BIFR का निष्पक्ष और
सूक्ष्म अध्ययन कर सके तो स्वयं मोदी से इस BIFR के बारे में भी कुछ करने को कहेंगे। यदि आप नौकरी पेशा हैं, कुछ महीने आप नौकरी पर नहीं हैं तो क्या सरकार आप का घर
चलायेगी? नहीं न!!!!! तो फिर आमआदमी के टैक्स का पैसा
रूप बदल-बदल कर BIFR तक क्यों पहुँचे????
मेरे प्यारे साथियो! जागना है तो सच में जागो।
प्रणाम।
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