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एक राष्ट्र एक चुनाव - नवीन

एक राष्ट्र एक चुनाव - 

21 जनवरी रविवार को टाइम्स नाउ पर भारत के प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी जी का इण्टरव्यु देखने को मिला और जैसा कि अपेक्षित था बहुत से लोगों ने इस साक्षात्कार पर अपनी-अपनी सोच के अनुसार नुक्ताचीनी भी की। ख़ैर, हम लोग दुनिया के वयस्क लोकतंत्रों में शुमार होते हैं इसलिए उस नुक्ताचीनी का स्वागत करना ही श्रेयस्कर है। इस साक्षात्कार ने हमारे सामने कई उदाहरण प्रस्तुत किये हैं यथा ट्विटर पर सवाल-जवाब के बजाय इस तरह भी शिष्ट रहते हुये, विषय पर केन्द्रित रहते हुये, एक साथ बहुत से लोगों तक शालीनता से अपने विचार पहुँचा सकते हैं। हम सब देख रहे हैं अमूमन हर चेनल पर किस तरह नेता लोग तू-तू मैं-मैं करने लगे हैं और टी वी चेनल वाले उन को बाक़ायदा ‘लताड़ने’ लगे हैं। इस तरह से तो हम अशिष्टताओं की समस्त सीमाओं का उल्लंघन करते हुये किसी अनपेक्षित काल के गर्त में ही समा पायेंगे। “सोचना भूलने लगे हैं हम – वक़्त रहते उपाय सोचा जाय”॥ हम सब की प्रययक्ष-अप्रयक्ष सहमति से ही ऐसा अवांछित वातावरण बना है इसलिये हम सब पर फर्ज़ है कि समय रहते बेहतरी की पैरोकारी की जाये। 

इस साक्षात्कार को कुछ लोग प्रायोजित साक्षात्कार भी कह रहे हैं, मगर मैं ने उस बिन्दु को दरकिनार कर मोदी जी द्वारा प्रस्तावित ‘एक राष्ट्र-एक चुनाव’ के विचार पर मनन-चिंतन किया। 

पिछले अनेक वर्षों से हम सब चुनावों के प्रभावों में जी रहे हैं। ईमानदारी से कहा जाय तो हर चुनाव से पहले और बाद में राष्ट्रीय -उत्पादिकता पर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अनेक प्रभाव पड़ते हैं जो कि ऊपर से नीचे की दिशा में गतिशील होते हुये सर्व-सामान्य मानवी के जीवन व्यवहार तक पहुँच कर उसको प्रभावित करते हैं। हमें मान लेना चाहिए कि हर चुनाव, भारतीय-मनीषा की धुरी मानी जाने वाली सहिष्णुता को निरन्तर कमजोर करता जा रहा है। हमारे बच्चे चाहे वे किसी भी क़ौम के हों, किसी भी आयु-वर्ग के हों; दिन-ब-दिन अ-संस्कारित होते जा रहे हैं। जब राजनीति दूकान बन ही चुकी है तो उस का बाज़ार के नियमों के अनुसार चलना-चलाना भी अपरिहार्य होता जा रहा है। बात  राजनीति की आती है तो राजनीति से जुड़े लोग अराजनीतिक कैसे बने रह सकते हैं? घोडा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या? चुनाव में अगर कोई व्यक्ति साम-दाम-दण्ड-भेद पर काम न करे तो उस की प्रासंगिकता खतरे में पड़ जाती है। यह हमारे समय का सत्य है और बेहतर है कि हम इस सत्य को ईमानदारी के साथ स्वीकार कर लें। 

स्वयं मोदी जी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’ को अमल में लाना न ख़ुद अकेले उन के, न ही अकेले भारतीय जनता पार्टी के बूते में है बल्कि अगर इस विचार को वास्तविकता का अमली जामा पहनाना है तो समग्र राष्ट्र ही को इस विषय पर मिल कर दिशा तय करना होगी। वार्तालाप होना चाहिये। समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में आलेख आने चाहिये। टी वी चेनल्स पर स्वस्थ बहसें चलाना चाहिये। सोशल साइट्स पर सीमोल्लंघन से बचते हुये विचारों का परस्पर आदान-प्रदान होना चाहिये। विचारों का समुद्र-मंथन होगा तो समाधान रूपी अमृत अवश्य मिलेगा। 

वर्तमान में हम लोग तक़रीबन आधा राष्ट्रीय-समय चुनावों के हवन-कुण्ड में आहुति बना कर झोंक रहे हैं। अगर इस समय-गणना में सर्वज्ञात छुट्टियाँ एवं टाइम-पास आदि भी जोड़ लिये जायेँ तो शायद हम लोग तीन चौथाई यानि पचहत्तर फीसदी राष्ट्रीय-समय बर्बाद कर रहे हैं। आइये एक पल के लिये सोचा जाये - यदि सर्व-सम्मति से पाँच साल में एक बार ही  चुनाव कराये जाएँ और भले ही वह प्रक्रिया कुल जमा छह महीने के राष्ट्रीय-समय का उपभोग कर भी ले तो भी हमारे हाथ में पूरा-पूरा साढ़े चार साल का राष्ट्रीय-समय बचता है जो कि निश्चित ही बेहतरी के कामों में उपयोग हो सकेगा। संसाधनों का इस से बेहतर उपयोग और क्या हो सकता है! मुझे भी लगता है कि मोदी जी के इस प्रस्ताव पर राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार से चर्चाएँ की जानी चाहिये। मैं मोदी जी के ए’एक राष्ट्र – एक चुनाव’ के प्रस्ताव से सहमत हूँ! क्या आप भी सहमत हैं? 
नवीन सी. चतुर्वेदी 
navincchaturvedi@gmail.com 
9967024593

मोदी वाला विमुद्रीकरण

हालाँकि बैंकों का राष्ट्रीयकरण राष्ट्र के हित में था मगर एक मिनट के लिये सोचिये कि आप एक चाय की टपरी खोलते हैं  फिर उसे छोटा-मोटा होटल बनाते हैं। जोख़िम उठाते हैं। फिर उसे रेस्त्राँ में तब्दील करते हैं। फिर जोख़िम उठाते हैं और क़दम दर क़दम बढते हुये अपनी चाय की टपरी को एक आलीशान पञ्चतारा होटल बना देते हैं। तक़रीबन एक उम्र लग जाती है यह सब करते हुये। यह सब होने के बाद आप का हक़ बनता है कि शेष जीवन अपने लगाये हुये पेड़ों के फलों का स्वाद लेते हुये गुज़ारें। मगर तभी अचानक एक आधी रात को प्रधानमंत्री का आदेश निकलता है और आप का  पञ्चतारा होटल अब आप का नहीं रहा, सरकार का हो गया है - ---------- ज़रा सोचिये कैसा लगेगा आप को? रातों रात अनेक निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था - राष्ट्रीय हित में!!!!!  उक्त राष्ट्रीयकरण के बाद की कथा-व्यथाएँ सर्वज्ञात हैं।

एक और दृश्य - सन २०१६, जो कि पिछले पैंतीस-चालीस बरसों में पर्याप्त आधुनिक हो चुका है, में स्कूल से आप का बच्चा लौटता है - हाथ में एक declaration form होता है। आप से पूछा जाता है कि आप की पत्नी या आप की नसबन्दी हो चुकी है या नहीं? यदि नहीं तो कब तक करवा ली जायेगी? आज सन दो हज़ार सोलह में यह बहुत मामूली बात लगती है मगर चालीस साल पहले के समय में जा कर सोचो और बताओ कैसा लगता है? विशेष कर तब जब आप वह बच्चे हैं जो स्कूल से declaration form ले कर लौटा है और दुर्भाग्यवश उस बच्चे के पिता जी के देहावसान के कारण उस बच्चे की माँ विधवा हो चुकी है! परन्तु declaration form देने वाले मूर्खों को तो बस declaration चाहिये!!! साधु-सन्तों को, बुड्ढे-बुड्ढियों को भी ज़बर्दस्ती अस्पताल में लिटा-लिटा कर नसबन्दियाँ कर दी गयी थीं। यह कड़वा है परन्तु सत्य है।

दिन का अधिकांश हिस्सा व्हौट्सप / फ़ेसबुक पर गुज़ारने वालों को तो यह भी इल्म नहीं था कि अपने हिन्दुस्तान में demonetization यानि विमुद्रीकरण पहले भी सो चुका है। वह निर्णय भी अचानक ही लिया गया था। और तब भी बहुत अफ़रातफ़री मची थी। उक्त विमुद्रीकरण के चलते लोगों को समय पर वेतन नहीं मिल पाया था। वह समय सामञ्जस्य के साथ जीवन जीने वालों का समय था इसलिये चर्चाएँ बहुत अधिक नहीं हुईं।

बात विमुद्रीकरण की हो या भारत-पाकिस्तान बँटवारे की - कष्ट सामान्य जनता ही उठाती है। भाग मिल्खा भाग में कुछ झलकियाँ देख कर अन्दाज़ा आ चुका होगा कि भारत-पाकिस्तान बँटवारे में हम लोगों ने क्या पाया क्या खोया? काश कोई मुनव्वर राणा मुज़ाहिरनामा हिन्दुस्तान के दृष्टिकोण से लिख पाता। ज़मीन दी, पैसा दिया, शरणार्थियों को क़ुबूल किया, रक्तपात झेला और आज भी आतंकवाद का दंश झेलने के बावुजूद विश्व-बिरादरी के सामने कश्मीर पर बार बार सफ़ाई देने के लिये मजबूर हैं।

ग़रीबों के उत्थान के लिये आवाज़ उठाना क़तई ग़लत नहीं है परन्तु चक्काजाम वाले दत्ता सामन्त, जोर्ज-फर्नाण्डिस आदि के आन्दोलन के बाद मुम्बई के मिल मजदूरों की जो दुर्दशा हुई है - किसी से छुपी नहीं है। आन्दोलन के बाद मिल मजदूरों के और उन के नेताओं के जीवन स्तर में आने वाले परिवर्तन का अध्ययन कितने समाजवादियों या वामपंथियों ने किया है अब तक?

विमुद्रीकरण जैसे और जब मोदी ने किया है यदि वह ग़लत है तो कैसे और कब किया जाना चाहिये था? ऐसे निर्णय कोई भी ले, कभी भी ले; ऐसे निर्णयों से कष्ट होता ही है। हम सामान्य मानवी ही कष्ट उठाते हों ऐसा भी नहीं है! छोटे लोगों की परेशानियाँ छोटी होती हैं और बड़े लोगों की बड़ी। पैसे की तंगी यदि हम आप सामान्य लोगों को है तो टाटा-बिड़ला जैसों को भी है। परेशान कमोबेश हम सब हैं। मैं स्वयं प्रवास में होने के कारण पल-पल इस कष्ट का अनुभव कर रहा हूँ।

मज़े की बात यह है कि इस निर्णय का विरोध करने वालों में अधिकांश मोदी विरोधी मिल रहे हैं। मैं सोच रहा हूँ कि यदि भारत-पाकिस्तान बँटवारा सही था! ज़बरन करायी जाने वाली नसबन्दियाँ सही थीं, बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी सही था, "BIFR सिस्टम" भी सही है तो बेचारे मोदी को कब तक दोष दिया जाय?

मोदी को गरियाने से छुट्टी ले कर ज़रा BIFR का निष्पक्ष और सूक्ष्म अध्ययन करने का प्रयास करें। मेरा दावा है कि आप यदि वास्तव में BIFR का निष्पक्ष और सूक्ष्म अध्ययन कर सके तो स्वयं मोदी से इस BIFR के बारे में भी कुछ करने को कहेंगे। यदि आप नौकरी पेशा हैं, कुछ महीने आप नौकरी पर नहीं हैं तो क्या सरकार आप का घर चलायेगी? नहीं न!!!!! तो फिर आमआदमी के टैक्स का पैसा रूप बदल-बदल कर BIFR तक क्यों पहुँचे????

मेरे प्यारे साथियो! जागना है तो सच में जागो। प्रणाम।