चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - ताड़-सा , खजूर जैसा , आठवें अज़ूबे जैसा

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

समस्या पूर्ति मंच द्वारा घनाक्षरी छन्द पर आयोजित इस चौथी समस्या पूर्ति के चौथे चक्र में आप सभी का स्वागत है| सुरेन्द्र भाई, महेंद्र भाई और योगराज भाई के बाद अब हम पढ़ते हैं बीकानेर वाले राजेन्द्र स्वर्णकार जी को| सुरेन्द्र, महेंद्र और राजेन्द्र में 'द्र' की बारंबारता से अनुप्रास [वृत्यानुप्रास] अलंकार हुआ| अनुप्रास अलंकार के पांचों प्रकार, फिल्मी गानों के माध्यम से समझने के लिए यहाँ क्लिक करें|

तो आइये घूमने चलते हैं भाई राजेन्द्र जी के कल्पना लोक में..............




घर-परिवार है साक्षात् स्वर्ग ; स्वर्ग यह
त्याग श्रद्धा स्नेह सहयोग से सजाइए !
ईर्ष्या [ईरष्या] जलन द्वेष डाह चालबाजियों से
निंदा शक़ बैर से , माहौल न बिगाड़िए !
चैनलों के किस्सों की चपेट में उलझ कर
गृहस्थी बसी-बसाई हाथों न उजाड़िए !
देवियों ! माताओं ! बहनों ! भाभियों ! विनति है –
राजनीति का अखाड़ा घर न बनाइए !

[टी वी की महारबानी से घरों में राजनीति किस कदर हावी हो चुकी है, इसे बखूबी बखाना है अपने| यही होता है कवि का धर्म, कि हमारी जड़ों को हिलाने वाले तत्वों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करे]



कलियां कोमल अंग-अंग में सजी हैं तेरे
संदली बदन तेरा दूध में नहाया है !
रूप मनहरण लुभावना है सुंदरिये !
देखतेरी सुंदरता चांद भी लजाया है !
गढ़ के विधाता-सा चितेरा भी हुआ है धन्य
तुम्हें चाव लगन से जिसने बनाया है ।
धरती क्या , स्वर्ग में पाताल में भी नहीं दूजी
तुमने सौंदर्य ऐसा अद्वितीय पाया है !

[हाँ भाई हाँ| हम तो कुण्डलिया वाले आयोजन में पहले ही मान चुके हैं|
आप सोलह आने सही कह रहे हैं| मित्रो अंदर की बात आप को बता दूँ -
इस पंक्ति के प्रणेता स्वयं राजेन्द्र भाई ही हैं]



वरमाल लिये’ खड़ी , सोचे वधू घड़ी-घड़ी ,
हाय दैया… लीला तेरी कैसी करतार है ?
ताड़-सा , खजूर जैसा , आठवें अज़ूबे जैसा ,
बिजली का खंभा कोई जैसे बिना तार है !
मानुष है ? जिन्न है ? तैमूर का लकड़दादा ,
बन्ने का बदन जैसे कुतुबमीनार है !
दुल्हनिया गश खाए , सखियां मंगल गाए ,
आया ठूंठ ; ऊंट-सा बछेरी पे सवार है !

[ताड़ सा खजूर जैसा, आठवे अजूबे जैसा............... ठूंठ ; ऊंट-सा................ ये कल्पना
तो पहले की तीनों कल्पनाओं से एक दम डिफ़्रेंट आई है भाई| तैमूर का लकड़दादा,
भाई आप तो हमें बचपन वाली कोमिक्स की दुनिया में ले गए|
हास्य के अद्भुत रंग बिखेरे हैं आपने|]

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और अब बारी है विशेष पंक्ति वाली समस्या पूर्ति की| इस मंच की पहली विशेष पंक्ति पर पहली प्रस्तुति आई है राजेन्द्र भाई के द्वारा| आपने इस पंक्ति पर छन्द लिखने की ठानी और कर भी दिखाया| इस पंक्ति को ले कर अपेक्षा के ऑल्मोस्ट करीब हैं आप| छन्द शिल्प एक ऐसा विषय है जिस पर अलग अलग व्यक्ति अलग अलग मत रखते हैं| इन सब बातों के बावजूद कहना होगा कि आज के दौर में जब कवियों को छंदों में विशेष लगाव रह नहीं गया है, ऐसे में मित्र राजेन्द्र जी द्वारा इस दिशा में उठाए गए कदम की भूरि-भूरि प्रशंसा की जानी चाहिए|

साधारण भाषा में कहें तो श्लेष अलंकार यानि रहस्य बनाए रखते हुए डबल मीनिंग वाली बात| बात का अर्थ वक्ता और श्रोता अपने अपने हिसाब से निकालने के लिए स्वतंत्र छोड़ दिये जाएँ|

अश्लील पक्ष को नज़र अंदाज़ कर दें, तो कादर खान और आनंद बक्षी जी ने फिल्मों में इस का भरपूर उपयोग किया है| श्लेष अलंकार के बारे में और अधिक जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें|

तो आइये अब पढ़ते हैं उस विशेष पंक्ति वाली पहली प्रस्तुति:-


घर में न हो तो सूना-सूना लगे घर ; कोई
चीज़ न ठिकाने मिले और चूल्हा जले ना !
मिले न कलाई में मरीज़ की तो बैद कहे
जान का है ख़तरा जो टाले से भी टले ना !
साथ न निभाए तो शरीर मुरझाए , और
दुनिया में घर भी किसी का फूले-फले ना !
जीवन-आधार नारी-नाड़ी’ ; स्वर्णकार कहे
काम जीव का कोई भी नारबिन चले ना

[राजेन्द्र भाई ने 'नार' शब्द के जो दो अर्थ लिए हैं उन में से एक है नारी / स्त्री और दूसरा
है नाड़ी| मंच की प्रार्थना पर आप ने अपना सर्वोत्तम प्रस्तुत कर के साबित किया है कि
आप छंदों को ले कर कितने संजीदा हैं| व्यक्तिगत रूप से मैं आप के इस प्रयास की
जितनी भी तारीफ करूँ कम होगी]




हर मंच का दायित्व होता है कि स्थापित रचनाधर्मियों के साथ साथ नवोदित एवम् स्थापित परंतु विधा विशेष में आरम्भिक प्रयास करने वाले कवि / कवियात्रियों को भी स-सम्मान स्थान दें| इस क्रम में अगली बार हम कुछ नये सदस्यों से मिलेंगे और उन के प्रयासों को पढ़ेंगे| जिन सदस्यों को अपने छन्दों में कुछ सुधार की ज़रूरत लग रही हो, वे जल्द से जल्द नये छन्द भेजने की कृपा करें|

आप सभी राजेन्द्र भाई के कल्पना लोक की सैर करें और ये अद्भुत रचना संसार आप को कैसा लगा, टिप्पणियों के माध्यम से व्यक्त कर इस साहित्यिक आयोजन को वेग प्रदान करें, और हम वही करते हैं - एक और पोस्ट की तैयारी|

जय माँ शारदे!

अंतर श्लेष और यमक अलंकार के बीच

अक्सर देखा गया है है कि कई शोधार्थी यमक और श्लेष अलंकार के अंतर में ही उलझ के रह जाते हैं| दरअसल दोनों अलंकार एक दूसरे के विपरीत हैं| यथा :-

शब्द एक बार ही आए अर्थ अनेक हों तो श्लेष अलंकार होता है
शब्द एक से अधिक बार आए और अर्थ भी एक से अधिक हों तो यमक अलंकार होता है


श्लेष अलंकार :-

आइये पहले उदाहरण के द्वारा श्लेष अलंकार को समझने का प्रयास करते हैं|

प्रसिद्ध कवि रहीम जी का एक दोहा लेते हैं :-


रहिमन पानी राखिये,बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरै, मोती मानुष चून।
इस दोहे में कही गई बात बिलकुल साफ है| यदि पानी नहीं तो मोती, मनुष्य और चून / आटे की कोई महत्ता नहीं| मोती के संदर्भ में पानी का अर्थ हुआ चमक, मनुष्य के संदर्भ में पानी का आशय हुआ रुतबा या कि फिर यूं कहो कि मान-सम्मान और चून / आटे के संदर्भ में तो ये पानी ही हुआ|


शब्द एक ही आए, एक बार ही आए पर अर्थ अनेक निकलते हों, तो वहाँ श्लेष अलंकार होता है| आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी के शब्दों में:-
वक्ता- श्रोता जब करें, भिन्न शब्द के अर्थ
रचें श्लेष वक्रोक्ति कवि, जिनकी कलम समर्थ..

एक शब्द के अर्थ दो, करे श्लेष-वक्रोक्ति.
श्रोता-वक्ता हों सजग, समझें न अन्योक्ति..

जहाँ पर एक से अधिक अर्थवाले शब्द के प्रयोग द्वारा वक्ता का एक अर्थ पर बल रहता है किन्तु श्रोता का दूसरे अर्थ पर, वहाँ श्लेष वक्रोक्ति अलंकार होता है. इसका प्रयोग केवल समर्थ कवि कर पाता है चूँकि विपुल शब्द भंडार, उर्वर कल्पना शक्ति तथा छंद नैपुण्य अपरिहार्य होता है. उदाहरण के लिए मेरा एक दोहा भी देखिये :-

सीधी चलते राह जो, रहते सदा निशंक|
जो करते विप्लव, उन्हें, 'हरि' का है आतंक||

ऊपर के दोहे में प्रयुक्त 'हरि' शब्द के दो अर्थ हैं बंदर और ईश्वर - यह देखिये -
जो लोग सीधे चुप चाप रास्ते से निकल जाते हैं, वो निशंक रहते हैं यानि उन्हें कोई प्राबलम नहीं होती| पर जो विप्लव करते हैं यानि छेड़खानी करते हैं - वो ही बंदरों से आतंकित भी होते हैं|
जो लोग जीवन सीधे रास्ते जीते हैं उन्हें कोई भय नहीं| परंतु जो लोग विप्लवी होते हैं यानि कि सीधी राह नहीं चलते; हरि यानि ईश्वर का आतंक भी उन्हें ही होता है|
तो ये होता है श्लेष अलंकार| मेरा एक और छन्द देखिएगा:-


माना कि विकास, बीज - से ही होता है मगर
इस का प्रयोग किए- बिना, बीज फले ना|

इस में मिठास हो तो, अमृत समान लगे
खारापन हो अगर, फिर दाल गले ना|

इस का प्रवाह भला कौन रोक पाया बोलो
इस का महत्व भैया टाले से भी टले ना|

चाहे इसे पानी कहो, चाहे इसे ज्ञान कहो
सार तो यही है यार, 'नार' बिन चले ना||

इस छन्द में प्रयुक्त 'नार' शब्द के दो अर्थ हैं| पहला अर्थ है 'पानी' और दूसरा अर्थ है 'ज्ञान'| आप इस पूरे छन्द को दो बार पढ़ें, आप को लगेगा कि इस में कहा गया है कि पानी के बिना नहीं चलता / ज्ञान के बिना नहीं चलता| यही होता है श्लेष अलंकार का जादू| खासकर पूरे छन्द में जब सिर्फ एक ही शब्द के कारण पूरे के पूरे छन्द के दो अर्थ हो जाते हैं, तो ये एक जटिल काव्य कृति मानी जाती है| इसे विद्वतजन बहुव्रीहि समास कह कर भी संबोधित करते हैं|

और अब यमक अलंकार :-

एक शब्द एक से अधिक बार आए और अर्थ भी अलग अलग निकलें तो यमक अलंकार होता है| बहुत पुराना दोहा जो अमूमन हर साहित्य प्रेमी जानता है:-

कनक - कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय|
या खाएं बौराय जग, वा पाएँ बौराय|

यहाँ शब्द 'कनक' के दो अर्थ हैं| धतूरा और सोना / स्वर्ण| कवि कह रहा है कि धतूरे से ज्यादा मादक / नशीला है सोना| धतूरा खा कर आदमी बौराता है / पगलाता है परंतु सोना तो पाने के साथ ही बौरा जाता है|

यमक अलंकार का एक और उदाहरण भूषण कवि के कवित्त के माध्यम से:-

ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहन वारी
ऊँचे घोर मंदर के अन्दर रहाती हैं।
कंद मूल भोग करें कंद मूल भोग करें
तीन बेर खातीं, ते वे तीन बेर खाती हैं।
भूषन शिथिल अंग भूषन शिथिल अंग,
बिजन डुलातीं ते वे बिजन डुलाती हैं।
‘भूषन’ भनत सिवराज बीर तेरे त्रास,
नगन जड़ातीं ते वे नगन जड़ाती हैं॥
अर्थ -
[1] ऊंचे घोर मंदर - ऊंचे विशाल घर-महल / ऊंचे विशाल पहाड़
[2] कंद मूल - राजघराने में खाने के प्रयोग में लाये जाने वाले जायकेदार कंद-मूल वगैरह / जंगल में कंद की मूल यानि जड़
[3] तीन बेर खातीं - तीन समय खाती थीं / [मात्र] तीन बेर [फल] खाती हैं
[4] भूषन शिथिल अंग - अंग भूषणों के बोझ से शिथिल हो जाते थे / भूख की वजह से उन के अंग शिथिल हो गए हैं
[5] बिजन डुलातीं - जिनके इर्द गिर्द पंखे डुलाये जाते थे / वे जंगल-जंगल भटक रही हैं
[6] नगन जड़ातीं - जो नगों से जड़ी हुई रहती थीं / नग्न दिखती हैं

यमक अलंकार का एक उदाहरण डा. सरोजिनी प्रीतम की आधुनिका कविता / हास्य क्षणिका से :-

तुम्हारी नौकरी के लिए कह रखा था,
सालों से,
सालों से।

एक दोहा मेरी तरफ से भी

आने वाले वक्त में, दुर्लभ होगी यार|
कर दे बुक अड्वान्स में, 'पिंगल' बुक दो चार|

मुझे लगता है कम से कम इस दोहे का अर्थ तो हर कोई समझ ही जाएगा| पिंगल बुक यानि पिंगल शास्त्र की वो किताब जिसमें तमाम छंदों के बारे में विस्तार से समझाया गया है| आने वाले समय में ऐसी पुस्तकें [बुक्स] आसानी से उपलब्ध नहीं होंगी, लिहाजा उन्हें अभी से ही बुक कर देना चाहिए|

चलते चलते एक बार फिर से दोहराते हैं:-

एक शब्द एक बार आए अर्थ अनेक हों तो श्लेष अलंकार
और
एक शब्द एक से अधिक बार आए और अर्थ भी एक से अधिक हों तो यमक अलंकार

[आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के मार्गदर्शन और आशीर्वाद के साथ]

फिल्मी गानों में अनुप्रास अलंकार

'अनु' तथा 'प्रास' इन दो शब्दों के मेल से बनाता है शब्द अनुप्रास| 'अनु' का अर्थ है बार-बार और 'प्रास' का अर्थ है वर्ण / अक्षर| इस प्रकार अनुप्रास का शाब्दिक अर्थ हुआ कि जब एक अक्षर बार बार आए तो वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है| बहुचर्चित पंक्ति ही काफी है अनुप्रास अलंकार को समझने के लिए:-

चंदू के चाचा ने चंदू की चाची को चाँदनी चौक में चाँदी की चम्मच से चाँदनी रात में चटनी चटाई

इस पंक्ति में 'च' अक्षर के बार बार आने से यहाँ अनुप्रास अलंकार हुआ|


अनुप्रास अलंकार के भी कई भेद हैं, यथा:-

[१] छेकानुप्रास
[२] वृत्यानुप्रास
[३] लाटानुप्रास
[४] अंत्यानुप्रास
[५] श्रुत्यानुप्रास

अब इन को समझते हैं एक एक कर के|

छेकानुप्रास

किसी पंक्ति में एक से अधिक अक्षरों का बार बार आना

उदाहरण :-
नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए
बाकी जो बचा वो काले चोर ले गए

हिन्दी फिल्म के इस गीत में 'न' - 'र' - 'म' तथा 'क' अक्षरों की बारंबारता के लिए छेकानुप्रास अलंकार का आभास होता है|


वृत्यानुप्रास

किसी पंक्ति में एक अक्षर का बार बार आना

उदाहरण :-
चन्दन सा बदन, चंचल चितवन

हिन्दी फिल्म के इस गीत में 'च' अक्षर की बारंबारता के लिए वृत्यानुप्रास अलंकार का आभास होता है|

लाटानुप्रास

किसी पंक्ति में एक शब्द का बार बार आना

उदाहरण :-

आदमी हूँ, आदमी से प्यार करता हूँ

हिन्दी फिल्म के इस गीत में 'आदमी' शब्द की बारंबारता के लिए लाटानुप्रास अलंकार का आभास होता है|


अंत्यानुप्रास

सीधे सादे शब्दों में कहा जाये तो पंक्ति के अंत में अक्षर / अक्षरों की समानता को अंत्यानुप्रास कहते हैं| दूसरे शब्दों में कहें तो छन्द बद्ध सभी कविताओं में तुक / काफिये के साथ अंत्यानुप्रास पाया जाता है| इस का महत्व संस्कृत के छंदों में अधिक प्रासंगिक है| यथा :-

श्रीमदभवतगीता का सब से पहला श्लोक

धर्मक्षेत्रे, कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव:|
मामका: पाण्डवाश्चैव, किमकुर्वत संजय||

आप देखें छन्द बद्ध होने के बावजूद इस में अंत में तुक / काफिया नहीं है| अब संस्कृत के एक और श्लोक को देखते हैं:

नमामि शमीशान निर्वाण रूपं
विभुं व्यापकं ब्रम्ह्वेद स्वरूपं
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं
चिदाकाश माकाश वासं भजेहं

तो अब आप को स्पष्ट हो गया होगा कि अंत्यानुप्रास का महत्व कब और क्यों प्रासंगिक है| आज कल तो छन्द बद्ध रचनाएँ तुकांत होने के कारण अंत्यानुप्रास युक्त होती ही हैं| गज़लें तो सारी की सारी अंत्यानुप्रास के साथ ही हुईं [गैर मुरद्दफ वाली गज़लें छोड़ कर]|

कबीरा खड़ा बजार में मांगे सबकी खैर|
ना काहू से दोसती, ना काहू से बैर||

ऊपर के दोहे की दोनों पंक्तियों के अंत में 'र' अक्षर आने के कारण अंत्यानुप्रास अलंकार हुआ| अंत्यानुप्रास के कुछ और उदाहरण :-

आए हो मेरी ज़िंदगी में तुम बहार बन के|
मेरे दिल में यूं ही रहना, तुम प्यार प्यार बन के||

चौदहवीं का चाँद हो या आफ़ताब हो|
जो भी हो तुम ख़ुदा की क़सम लाज़वाब हो|

संस्कृत श्लोकों के अलावा आधुनिक कविता में अंत्यानुप्रास की प्रासंगिकता उल्लेखनीय हो जाती है, यथा :-

ऑस की बूंदें
हासिल हैं सभी को
बिना किसी भेद भाव के
बराबर
निरंतर
यहाँ पर
वहाँ पर

श्रुत्यानुप्रास

इसे समझने से पहले समझते हैं कि एक वर्ग के अक्षर कौन से होते हैं| जैसे क-ख-ग-ग एक वर्ग के अक्षर हुए| च-छ-ज-झ एक वर्ग के अक्षर हुए| ट-ठ-ड-ढ एक वर्ग के अक्षर हुए|

जब किसी एक वर्ग के अक्षर बार बार आयें तो वहाँ श्रुत्यानुप्रास अलंकार होता है|

उदाहरण :-

एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा, जैसे खिलता गुलाब, जैसे शायर का ख़्वाब 

हिन्दी फिल्म के इस गीत में एक ही वर्ग के कई अक्षर जैसे कि 'क' 'ख' 'ग' अक्षरों के आने से श्रुत्यानुप्रास अलंकार का आभास होता है| एक और उदाहरण:-

दीदी तेरा देवर दीवाना - 'द' - 'त' व 'न' एक ही वर्ग से हैं इसीलिए यहाँ श्रुत्यानुप्रास अलंकार हुआ|


आशा करते हैं कि हिन्दी फिल्मों के गानों के माध्यम से अनुप्रास अलंकार के विभिन्न रूपों की ये व्याख्या आप को पसंद आएगी| फिर मिलेंगे| नमस्कार|

[आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के मार्गदर्शन और आशीर्वाद के साथ]

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - दुनिया को ताज लगे, उसे मुमताज लगे


सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन



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घनाक्षरी छंद के बारे में हम ने एक बात नोट की| पढ़ कर समझने की बजाय जब लोगों ने इस को औडियो क्लिप के जरिये सुना तो तपाक से बोल उठे अरे ये तो वो वाला है, हाँ मैंने सुना है इसे, अरे मैं तो जानता हूँ इसे| इस तरह की बातों को ध्यान में रखते हुए हम घोषणा के वक्त दी गयी औडियो क्लिप्स को दोहराना जारी रखते हैं:-




तिलक भाई द्वारा गाई गई रचना श्री चिराग जैन जी की है, और कपिल द्वारा गाई गई - मेरी|
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मुंबई में बरखा रानी की कृपा हो गयी और भाई हमने भी उस का स्वागत आलू के पराठों के साथ कर दिया है| कल गंगा दशहरा है - गंगा स्नान की प्रथा है, नाशिक जाएँगे - राम घाट पर स्नान करने| हालांकि बदलते समय के साथ नदियों का स्वरूप बदला है, पर श्रद्धा और आस्था भी अपनी जगह है भाई| पश्चिमी सभ्यता के लिए हर जगह सब कुछ एडजस्ट कर लेते हैं हम; तो अपने संस्कारों के लिए थोड़ा बहुत क्यूँ नहीं? फिर रविवार को एकादशी है तो उस दिन इच्छा है त्र्यंबकेश्वर दर्शन की|

आलू के पराठों की याद आते ही याद आ जाता है पंजाबी लहजा| तो ठेठ पंजाबी लहजे वाले और काव्य के किसी भी प्रारूप में भाषाई चौधराहट को सिरे से नकारने वाले योगराज प्रभाकर जी के घनाक्षरी कवित्तों के मजे लेते हैं आज| योगराज जी ने श्रंगार रस वाली पंक्ति को ताजमहल संदर्भित प्रेम से जोड़ कर अभिनव प्रस्तुति दी है| सामान्यत: श्रंगार रस का नाम आते ही हम लोग रीति काल की कल्पना करने लगते हैं या फिर बिहारी, सूरदास, तुलसी, केशव, सेनापति और घनानन्द जैसे तमाम कवियों द्वारा रचित काव्य का स्मरण करने लगते हैं| दरअसल श्रंगार रस का क्षेत्र काफी वृहद है और अब तो इंटरनेट पर उपलब्ध भी है, सो हम यहाँ उस विशाल शास्त्र की तरफ सिर्फ इंगित करते हुए आगे बढ़ते हैं|






हरेक दीवार तोड़, एक छत नीचे आ के ,
छोटी मोटी बातें खुद, बैठ निपटाइए|

अपना ये घर टूटे, सब इसी ताक में है,
इसे टूटने न देंगे, कसम ये खाइए |

खोलो ऑंखें समझ लो, दुशमन के मंसूबे,
उसके भुलावे में न, हरगिज़ आइए |

फूट पड़ी घर में तो, घर बच पायेगा न,
राजनीति का अखाड़ा, घर न बनाइए ||

[फूट पड़ी घर में तो............. 'मुख्य पंक्ति' को यथार्थ के काफी करीब ले गए हैं आप|
'वसुधेव कुटुम्बकम' को समर्पित इस पंक्ति पर आप ने वाकई जबर्दस्त प्रस्तुति दी है]


देख रूप रंग तेरा, सुध बुध भूले सभी,
तेरे इस रूप ने तो, जग भरमाया है |

ताब तेरी झेल पाना, आदमी के बस कहाँ,
देख तेरी सुन्दरता, चाँद भी लजाया है |

रूप का खज़ाना रख, यमुना के तीर पर,
मालिक ने प्रेमियों को, तो'फ़ा भिजवाया है |

दुनिया को ताज लगे, उसे मुमताज लगे,
जिस प्रेमी बादशा' ने, तुझको बनाया है ||

[इस छन्द ने तो 'मुख्य पंक्ति' से ऊपर चढ़ कर बात कही है भाई| और इसे ही कहते हैं कवि की
कल्पना| मुझे लगता है इस छन्द की तारीफ़ आप लोग मुझ से बेहतर करेंगे]



शरमाये काला तवा, बन्नो का दरश कर
लगे जैसे नैरोबी से आई कोई नार है |

कौवा जैसे निकला हो भींज कर चूने में से,
बन्ने की सूरत पे भी, ऐसा ही निखार है |

सीढ़ी लगवायी जब, जयमाल डालने को,
बन्नो जी को तब हुआ, बन्ने का दीदार है |

बन्नो जया भादुरी का, एक बटा तीन लगे,
बन्ने का बदन जैसे, क़ुतुब मीनार है ||

["जया भादुरी का एक बटा तीन" बाप रे बाप कैसी कैसी कल्पनाएं आ रही हैं -
यार खुश कर दित्ता|]



अंग्रेज़ियत के रंग में अमूमन रँग चुके आज के दौर में ऐसे छंदों को पढ़ने का आनंद ही और है| 'विशेष पंक्ति' वाले छन्द पर काम करने वाले कवियों की संख्या अब हो गई है तीन| आप लोग आनंद लीजिएगा योगराज जी के छंदों का, और हाँ, अपनी बहुमूल्य राय देना न भूलें प्लीज| तब तक हम तैयारी करते हैं एक और धमाकेदार पोस्ट की|

जय माँ शारदे!

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - ठोढ़ी पर तिल जैसे, गोरखा बिठाया है

सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन



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घनाक्षरी छंद के बारे में हम ने एक बात नोट की| पढ़ कर समझने की बजाय जब लोगों ने इस को औडियो क्लिप के जरिये सुना तो तपाक से बोल उठे अरे ये तो वो वाला है, हाँ मैंने सुना है इसे, अरे मैं तो जानता हूँ इसे| इस तरह की बातों को ध्यान में रखते हुए हम घोषणा के वक्त दी गयी औडियो क्लिप्स को एक बार फिर से यहाँ दोहराते हैं:-




तिलक भाई द्वारा गाई गई रचना श्री चिराग जैन जी की है, और कपिल द्वारा गाई गई - मेरी|
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धमाकेदार शुरुआत को आगे बढ़ाते हुए, घनाक्षरी छंद पर आधारित चौथी समस्या पूर्ति के दूसरे चक्र में हम पढ़ते हैं - एक से अधिक विधाओं में सृजन के पक्षधर - भाई महेंद्र वर्मा जी के छन्द:-



मान-सम्मान करें, प्यार औ दुलार करें,

घर में सभी से नेह, प्रीत किए जाइए।

सभी मिल-जुल कर, काम-काज निपटाएं,
खेलिए सभी के साथ, हँसिए-हँसाइए।

राग-द्वेष, निंदा-छल, कपट-ईरख-बैर,
आएं जब निकट तो, तुरत भगाइए।

साम-दाम, दंड-भेद, इनसे न कीजे मेल,
राजनीति का अखाडा, घर न बनाइए।

[वाह महेंद्र भाई शिल्प वो भी उत्कृष्ट कोटि का| क्या शब्दों से चित्रों को उकेरा है, भई वाह]


नयना हैं शरमीले, अधर सुधा रसीले,
गाल नवनीत जैसे, कंचन सी काया है।

लट घुंघराली काली, बल खाती नागिन सी,
गजरा कली का, गली-गली महकाया है।

लगे न नजर तुझे, देखे न शहर तुझे,
ठोढ़ी पर तिल जैसे, गोरखा बिठाया है।

रंग तेरा मोतियों सा, रूप तेरा परियों सा,
देख तेरी सुंदरता, चांद भी लजाया है।

[अलंकारों के साथ साथ "गोरखा' अरे बाप रे, क्या कल्पना है सर जी, मजा आ गया| गजरा कली का, गली गली - वाह वाह वाह| आप की आज्ञा हो तो वो वाली बात कह दूँ? इमारत बुलंद थी...............]



ऊंची भी है मोटी भी है, गोल भी मटोल भी है,
बन्नो का बदन जैसे, कुतुब मीनार है।

बीस बार खाती और, तीस बार पीती है ये,
बीच बीच में पचास, चूसती अचार है।

एक सखी कमर पे, एक सखी गले पर,
एक सखी सजाने को, जूड़े पे सवार है।

साठ साड़ी जोड़ कर, निकली पहन कर,
छोटा सा बलम देख, रोती जार जार है।

[साठ साड़ी जोड़ कर, और सजाने को तीन तीन सखियाँ, हास्य में भी धमाल है सर जी]



घनाक्षरी छन्द तो वाकई आप सभी का मन पसंद छन्द साबित हो रहा है| सुरेन्द्र भाई के तुरंत बाद महेंद्र भाई का आना किस अलंकार का परिचायक है? सोचें .............. और टिप्पणियों के माध्यम से बताने की कृपा करें|

कानून का पालन होना चाहिए - हम सब जानते हैं, पढ़ने के बाद टिप्पणी देनी चाहिए - हम सब ये भी जानते हैं; और सत्य क्या है वो भी हम सब जानते तो हैं ही| तो साथियो, साहित्य की इस सेवा में आप सभी अपना अमूल्य योगदान पूर्ववत जारी रखें, यही सविनय निवेदन एक बार फिर करता हूँ|

एक और खुशी की बात जो आप लोगों के साथ साझा करना चाहता हूँ - दो साथियों ने विशेष पंक्ति पर छन्द प्रक्रिया आरंभ कर दी है| आपने वो चुटकुला तो सुना होगा कि किसी कवि / शायर को सजा देनी हो तो उसे दूसरे की शायरी पर दाद देने को कह दीजिएगा| भई सच बोलूँ तो मुझे भी कई दिनों से लग रहा था कि एक बार मैं भी इस आयोजन में शिरकत कर ही लेता हूँ; तो आप लोगों के रेडी-रेफेरेंस के लिए वो विशेष पंक्ति वाला छन्द यहाँ प्रस्तुत करता हूँ| पहले आप इस छन्द को 'पानी' के बारे में समझ कर पढ़ें और दूसरी बार 'ज्ञान' के बारे में| इस छन्द में कही गई हर बात दोनों अर्थों का प्रतिनिधित्व करती है :-

माना कि विकास, बीज - से ही होता है मगर
इस का प्रयोग किए- बिना, बीज फले ना|

इस में मिठास हो तो, अमृत समान लगे
खारापन हो अगर, फिर दाल गले ना|

इस का प्रवाह भला कौन रोक पाया बोलो
इस का महत्व भैया टाले से भी टले ना|

चाहे इसे पानी कहो, चाहे इसे ज्ञान कहो
सार तो यही है यार 'नार' बिन चले ना||

समस्या पूर्ति मंच द्वारा आयोजित, भारतीय छन्द साहित्य की सेवा में समर्पित इस आयोजन को आप लोगों का जो समर्थन मिल रहा है, उस की जितनी प्रशंसा की जाए कम है| पहले कभी भी छन्द न लिखने वाले तमाम कवि / कवियत्रियों का इस दिशा में रुझान काबिलेतारीफ है| इस बार भी कुछ नए सदस्य इस मंच का हिसा बनेंगे|

आप सभी वर्मा जी के छंदों का आनंद लेने के साथ-साथ अपने टिप्पणी रूपी पुष्पों की वर्षा कीजिये, तब तक हम अगली पोस्ट की तैयारी करते हैं|

जय माँ शारदे!

हमारे संस्कार - वट वृक्ष यानि बरगद का पेड़

यूँही नहीं बने हमारे संस्कार
कुछ न कुछ तो है
हर रीति रिवाज के पीछे
ज़रूरत है
उन्हें समझने की

वट वृक्ष का
हमारे रीति रिवाजों में
काफ़ी अहम स्थान है
यदि हम समझें
और समझ कर मानने को
उद्यत हों - तो

वट वृक्ष
यानि बरगद का पेड़
इसलिए अहम नहीं
कि उस में
ब्रह्मा-विष्णु-महेश निवास करते हैं

बल्कि इसलिए
कि ये प्रतीक है
दीर्घायु का

ये सुंदर उदाहरण है
वसुधैव कुटुम्बकम का

ये सहारा है
हर आते जाते पथिक का
बिना किसी भी तरह के भेदभाव के

बरगद का पेड़
देखता रहता है
पीढ़ियों को
बच्चे से जवान
और फिर बूढ़ा होते हुए
और एक दिन
उन्हें अपने असली गंतव्य तक जाते हुए भी

हर बरगद
एक एनसइक्लॉपीडिया है
बदलते युगों का

ज़रूरत है हमें
जानकारियाँ
उस से अर्जित करने की

बरगद
बदलते समय के साथ साथ
कम हरा हुआ है

बदलते सरोकारों के साथ
बदला है
उसका पता ठिकाना

बदलते मूल्यों के साथ
घटी हैं उस की जटायें भी

और छोटा हुआ है
उस का परिवार भी

बरगद
दर्ज हो रहा है
डाक्टरेट्स में
और हट रहा है
जन जीवन से

बरगद
दूर हो कर हमारी पहुँच से
पहुँचने लगा है
सील पेक गत्ते के छोटे बड़े बक्सों में

यूँही तो नहीं बनाया गया होगा
बरगद को
पूज्य
वट सावित्री के व्रत से जोड़कर
कुछ तो रहे होंगे कारण
कुछ तो रहे होंगे प्रयोजन

पर सच कहूँ तो मैं भी तो
बस अनुमान ही लगा रहा हूँ ना
काश दादी / नानी से पूछ पाता ये
बनिस्बत पुस्तकों में पढ़ने के
तो कहीं अच्छी तरह समझ पाता
इस के औचित्य को

हाँ
ये सच है
औचित्य अब हमें
पुस्तकों से नहीं
अपने
सामान्य ज्ञान से
खोज निकालने की आवश्यकता है...............

चौथी समस्या पूर्ति - घनाक्षरी - एक नहीं, सभी सास-बहुओं से विनती है

समस्त साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन

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घनाक्षरी छंद के बारे में हम ने एक बात नोट की| पढ़ कर समझने की बजाय जब लोगों ने इस को औडियो क्लिप के जरिये सुना तो तपाक से बोल उठे अरे ये तो वो वाला है, हाँ मैंने सुना है इसे, अरे मैं तो जानता हूँ इसे| इस तरह की बातों को ध्यान में रखते हुए हम घोषणा के वक्त दी गयी औडियो क्लिप्स को एक बार फिर से यहाँ दोहराते हैं:-




तिलक भाई द्वारा गाई गई रचना श्री चिराग जैन जी की है, और कपिल द्वारा गाई गई - मेरी|
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चौपाई, दोहा, रोला और कुण्डलिया के बाद जब हमने घनाक्षरी पर चर्चा शुरू की तो मस्तिष्क में पाँचवी समस्या पूर्ति दर्ज हो गई, और इसी कारण त्रुटि वश 'पाँचवी समस्या पूर्ति' लिख भी दिया| पर चूँकि हमने रोला छन्द से सीधी कुण्डलिया पर जम्प मार दी थी, सो ये होनी चाहिए थी चौथी वाली| बाद में पता चला, तो सुधार कर दिया गया है , और आइये श्री गणेश करते हैं घनाक्षरी छन्द पर आयोजित इस चौथी समस्या पूर्ति का|


उम्मीद के मुताबिक़ इस घनाक्षरी छन्द पर भी आप लोगों का रुझान काबिलेतारीफ है| कई सारी प्रविष्ठियां मिली हैं, कुछ पर काम भी चल रहा है| सब से पहली प्रविष्टि मिली सुरेन्द्र भाई की तो इस आयोजन की शुरुआत भी करते हैं उन के साथ ही| खास बात ये कि 'झंझट' शब्द सिर्फ इन के नाम में ही जुड़ा है - बाक़ी इनके छंदों में कोई झंझट नहीं है|



एक नहीं, सभी सास-बहुओं से विनती है,
आपसी लड़ाई में जिंदगी बिताइए|

बहू और बेटी में होता कोइ फर्क, आप -
सास हैं! तो मातु जैसी ममता लुटाइए|

बहू जी! सुसौम्यता की भी प्रतीक बन आप
प्रेमगंग धार ससुराल में बहाइये|

तीन पांच और तीन तेरह में फँसकर,
राजनीति का आखाड़ा घर बनाइये||

[वाह वाह वाह, क्या खूब अनुप्रास की छटा दिखलाई है| और 'प्रेम गंग' वाली बात तो भाई क्या कहने| समस्या पूर्ति की पंक्ति को पूरी तरह सार्थकता प्रदान करता हुआ छन्द]



गोल हैं कपोल दोनों, रंग है गुलाबी जैसे ,
फाग ने गुलाल भींच भींच के लगाया है|

काले-काले कुन्तलों की छवि है निराली कैसी?
बादलों ने जैसे चन्द्र-मुख को छुपाया है|

कारे कजरारे नैन काजल की लीक, तामें-
काम ने धनुष मानो खींच के चढ़ाया है|

देखो बदली की ओट छुपा है बेचारा आज,
देख तेरी सुन्दरता चाँद भी लजाया है||


[भींच भींच के - क्या बात है बन्धु| अलंकारों की छटा यहाँ भी दर्शनीय है| काले काले कुन्तलों - वाह वाह, श्रृंगार रस से सुसज्जित मस्त मस्त छन्द| जियो मित्तर जियो| इस छन्द को पढ़ कर कौन कहेगा कि छंदों में बात को सहजता से कहना दुष्कर होता है| बस जरुरत है इच्छा शक्ति की]


वर और वधू की है जोड़ी ये अजीब देखो,
एक है बबूल जैसा, दूजी रतनार है|

बन्ना पतझर का ज्यों ठूँठ है छुहारा जैसा ,
बन्नो का तो अंग अंग जैसे कचनार है|

जाने भगवान की है कैसी ये अनोखी लीला ,
दोनों पे चढ़ा हुआ जी! प्यार का बुखार है|

बन्नो का है कद साढ़े तीन फुट लम्बा और ,
बन्ने का बदन जैसे क़ुतुब मीनार है||


[ठूँठ है छुहारा जैसा, बाप रे - क्या तुलना की है| कसम से यार, बहुत हँसाया है आप के इस छन्द ने| इस पंक्ति के साथ भी आप ने पूरा न्याय करते हुए अपने कवि होने को सार्थक किया सुरेन्द्र भाई]


इन्डियन टीम भले ही ओपनिंग की समस्या से जूझे, पर भाई यहाँ तो एक से बढ़ कर एक ओपनिंग बैट्समेन भरे पड़े हैं| बस इसी तरह आप लोग हमें आप के भिन्न भिन्न रूपों के दर्शन कराते जाइयेगा, और हम ऐसे ही मजे लूटते रहें| कविता-ग़ज़ल तो पढ़ने को मिल ही रही थीं हर ओर, अब आप लोगों ने छंदों को ले कर जो कर्मठता दिखाई है, दिल गार्डन गार्डन हो गया है भाई|

इस समस्या पूर्ति का विशेष आकर्षण है विशेष वाली चौथी पंक्ति| उस बारे में कई मित्रों ने पूछा है तो एक बार फिर से बतिया लेते हैं| वो पंक्ति "नार बिन चले ना" छन्द के किसी भी चरण के चतुर्थांश में सकती है| सामान्यत: इस का आखिरी चरण के चतुर्थांश में आना सही लग रहा है| नार" शब्द छन्द में एक बार ही आना है, पर छन्द ऐसे लिखना है कि इस शब्द के एक से अधिक अर्थों को संप्रेषित करता हो - कम से कम दो| श्लेष अलंकार के साथ वाले अपने एक दोहे का उदाहरण देता हूँ:-


सीधी चलते राह जो, रहते सदा निशंक|
जो करते विप्लव, उन्हें - "हरि'" का है आतंक||


इस दोहे में प्रयुक्त शब्द 'हरि' के दो अर्थ हैं - एक है नारायण / ईश्वर और दूसरा है बन्दर| अब इस दोहे को पहले आप ईश्वर से सम्बंधित कर के पढ़िए और फिर बन्दर से| यही होता है श्लेष अलंकार का जादू| घनाक्षरी छन्द में इस प्रकार का प्रयोग बड़ा ही आनंद देगा| कठिन है पर असंभव नहीं| इस छन्द को लिखने का आनंद - लिखने वाला - लिखने के बाद ही महसूस कर सकेगा|

आप सुरेन्द्र भाई के खूबसूरत छंदों का आनंद लीजिएगा तब तक हम तैयारी करते हैं अगली किश्त की|



जय माँ शारदे!