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नवगीत - लुप्त हों न पलाश

Palash


लुप्त हों न पलाश

बिन तुम्हारे होलिका त्यौहार
था इक कल्पना भर
हाट में बाक़ायदा
तुम स्थान पाते थे बराबर

अब कहाँ वो रंग
वो रंगीन भू-आकाश
लुप्त हों न पलाश



'मख-अगन' सा दृष्टिगोचर
है तुम्हारा यह कलेवर
पर तुम्हारे पात नर ने
वार डाले बीडियों पर


गाँव तो सब जानते हैं
नगर समझें काश
लुप्त हों न पलाश




शब्दों के अर्थ

हाट = बाजार
मख-अगन = हवन की अग्नि
कलेवर = शरीर
पात = पत्ते / पत्तियाँ

हमारे संस्कार - वट वृक्ष यानि बरगद का पेड़

यूँही नहीं बने हमारे संस्कार
कुछ न कुछ तो है
हर रीति रिवाज के पीछे
ज़रूरत है
उन्हें समझने की

वट वृक्ष का
हमारे रीति रिवाजों में
काफ़ी अहम स्थान है
यदि हम समझें
और समझ कर मानने को
उद्यत हों - तो

वट वृक्ष
यानि बरगद का पेड़
इसलिए अहम नहीं
कि उस में
ब्रह्मा-विष्णु-महेश निवास करते हैं

बल्कि इसलिए
कि ये प्रतीक है
दीर्घायु का

ये सुंदर उदाहरण है
वसुधैव कुटुम्बकम का

ये सहारा है
हर आते जाते पथिक का
बिना किसी भी तरह के भेदभाव के

बरगद का पेड़
देखता रहता है
पीढ़ियों को
बच्चे से जवान
और फिर बूढ़ा होते हुए
और एक दिन
उन्हें अपने असली गंतव्य तक जाते हुए भी

हर बरगद
एक एनसइक्लॉपीडिया है
बदलते युगों का

ज़रूरत है हमें
जानकारियाँ
उस से अर्जित करने की

बरगद
बदलते समय के साथ साथ
कम हरा हुआ है

बदलते सरोकारों के साथ
बदला है
उसका पता ठिकाना

बदलते मूल्यों के साथ
घटी हैं उस की जटायें भी

और छोटा हुआ है
उस का परिवार भी

बरगद
दर्ज हो रहा है
डाक्टरेट्स में
और हट रहा है
जन जीवन से

बरगद
दूर हो कर हमारी पहुँच से
पहुँचने लगा है
सील पेक गत्ते के छोटे बड़े बक्सों में

यूँही तो नहीं बनाया गया होगा
बरगद को
पूज्य
वट सावित्री के व्रत से जोड़कर
कुछ तो रहे होंगे कारण
कुछ तो रहे होंगे प्रयोजन

पर सच कहूँ तो मैं भी तो
बस अनुमान ही लगा रहा हूँ ना
काश दादी / नानी से पूछ पाता ये
बनिस्बत पुस्तकों में पढ़ने के
तो कहीं अच्छी तरह समझ पाता
इस के औचित्य को

हाँ
ये सच है
औचित्य अब हमें
पुस्तकों से नहीं
अपने
सामान्य ज्ञान से
खोज निकालने की आवश्यकता है...............