3 जनवरी 2025

बुलबुल का भी दिल अब पिंजरे में शायद बेताब नहीं होता - मसऊद जाफ़री



बुलबुल का भी दिल अब पिंजरे में शायद बेताब नहीं होता

जिस दिन से सुना है   फूलों पर वो हुस्नो शबाब नहीं होता

 

मैं उन का क़सीदा क्या लिक्खूँ इस शहरे सितम बरदोश में अब

नहीं आँख रही नर्गिस की तरह कोई गाल गुलाब नहीं होता

 

साक़ी भी वही मैख़ाना भी,क्या बात है जाने क्यूँ यारो

पहले जो हुआ करता था कभी वो रंगे शराब नहीं होता

 

शैतान हर इक सू रक्साँ है पस्ती प् हमारी खन्दाँ है

इस अह्द में शायद अब लोगो कोई कारे सवाब नहीं होता

 

चेहरों प् सजे चेहरे हैं यहाँ तुम इन को नहीं पढ़ पाओगे

इस दौर में शायद चेहरा भी अब दिल की किताब नहीं होता

 

वो बज़्म है बज़्मे-अहले-ख़िरद वाँ हद्दे अदब भी ज़रूरी है

ये अहले जुनूँ की महफ़िल है यहाँ आप जनाब नहीं होता

 

हाँ, शौक़े जुनूँ के रस्ते में इक मंज़िल ऐसी आती है

जहाँ फ़र्के दुई मिट जाता है और कोई हिजाब नहीं होता

 

मज़लूम की खातिर रक्खे हैं मुंसिफ ने हज़ारों दार ओ रसन

क़ातिल यूँ ही फिरता रहता है और  कोई हिसाब नहीं होता

 

इस अह्द के हाथों में लोगो आते हैं सहीफ़े वो जिन में

दुन्या की हिकायत होती है बस प्यार का बाब नहीं होता

 

मैं अपने पुराने कपड़ो में ये सोच के खुश हो लेता हूँ

मसऊद सभी को दुन्या में हासिल कमखाब नहीं होता

: मसऊद जाफ़री

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