वक़्त को मैने
कुछ इस तरह बदलते देखा
चढ़ते सूरज को सर-ए-शाम ही ढलते देखा
हुस्न जो संग की मानिंद था वक़्त ए इज़हार
वस्ल की शब उसी
पत्थर को पिघलते देखा
परवरिश जिनकी हुई
इसकी निगहबानी में
बाग़बाँ को उन्ही
कलियों को मसलते देखा
बज़्म में तुम नज़र अंदाज़
जिसे करते रहे
सुबह तक मैंने उसी
शम्म को
जलते देखा
जिसके हमराह सफ़र में था इरादा मोहकम
उसको आसानी से मुश्किल से निकलते देखा
इश्क़ के शह्र की
हर राह है फिसलन से भरी
अच्छे अच्छों को
यहाँ मैंने फिसलते देखा
ज़ुल्म पर अपने तू
इस दर्जा न इतरा ज़ालिम
हमने फ़िरऔन का
लहजा भी बदलते देखा
सामने माँ के 'हसन' आए जो औलाद कोई
मैंने बच्चों की
तरह उसको मचलते
देखा
: हसन फ़तेहपुरी
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