बदन
की आग दिखाई गई थी साज़िश से ।
बदन
में आग लगा दी गई थी साज़िश से ॥
हम
उसको धर्म की आँधी समझ रहे थे मगर ।
वो धूल आँख में झोंकी गई थी साज़िश से ॥
मिलेगी
राह तो मुर्दे भी उठ के दौड़ेंगे ।
वो
कब्र इसलिए खोदी गई थी साज़िश से ॥
उस
एक बेल ने पानी पे कर लिया कब्ज़ा ।
जो
बेल ताल में डाली गई थी साज़िश से ॥
नदी
को पार कराने का आसरा दे कर ।
भँवर
में नाव भी मोड़ी गई थी साज़िश से ॥
मचल-मचल
के चराग़ों से जा लिपटती थी ।
हवा
दयार में भेजी गई थी साज़िश से ॥
चरस
जो दूर तलक लहलहा रही है यहाँ ।
ये
ख़ुद नहीं उगी, बोई गई थी साज़िश से ॥
हमारे
ख़्वाब तो बेचे ही ताजिरों ने मगर ।
हमारी
नींद भी बेची गई थी साज़िश से ॥
मयंक
अवस्थी
❤️💙
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