19 जनवरी 2014

यादों के गलियारों से - नवीन

यादों के गलियारों से - लेट एटीज़ या अर्ली नाइन्टीज़ के चन्द अशआर

रह-रह कर जो टूटा, वह विश्वास मेरी ग़ज़लों में है
कुछ अपना कुछ औरों का एहसास मेरी ग़ज़लों में है
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हर गाँव की चौपाल हर घर का अहाता कह रहा
मंज़िल बदलनी थी, मगर, बस रासते बदले गये
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ख़ुद ही बढ़ते रहते हैं निज शाख़ों को फैलाते हैं
बरगद इतने बढ़े नये पौधे फल फूल न पाते हैं
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हर कोई पाकोसाफ़ है हर एक पर इल्ज़ाम हैं
तब्दीलियों के दौर में ये वारदातें आम हैं
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ताज़्ज़ुब न कर हर मुल्क में दिखता यही इक माज़रा
पब्लिक पड़ी है हाशिये पर ऐश करते बादशा
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बस एक इस उम्मीद में कुछ दिन तसल्ली से कटें
ख़ुद अपने से ही आप कटता जा रहा हर आदमी
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माँ-बेटे एक साथ नज़ारे देख रहे
हर घर की बैठक में इक जलसाघर है
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उस पार परबतों के तनवीर दिख रही है
ख़ुशहाल ज़िन्दगी की तसवीर दिख रही है
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जनता के तारनहार बड़े मासूम बड़े दरियादिल हैं
तर जाएँगी सातों पीढ़ी लिख डाले हैं इतने पट्टे
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ये ज़िन्दगी अन्धा कुआँ है, जानते हैं सब
पर इस कुएँ में हौसलों की रस्सियाँ भी हैं
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सही अर्थ में कहें अगर तो घिसते जा रहे हैं हम
अगर मगर की चक्की में बस पिसते जा रहे हैं हम
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खच्चर पसन्द आने लगे जब से हमें
बाज़ार में घोड़ों का टोटा हो गया
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हरिक सूबा है सठियाया हरिक तबका सनक पर है
कहीं हिन्दोसताँ रशिया न बन जाये, यही डर है
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कहीं नादानों की नादानियाँ कुछ गुल खिला न दें
बड़े मासूम हैं बच्चे मेरे, ये सोच आहत हूँ
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शीतलता को कहाँ तलाशें
यहाँ अवा का अवा गरम है
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चैन से दो जून की रोटी तो दे
भेड़ियों की बस्तियों वाले शहर
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दो दिलों के बीच है जो फ़ासला
बीच उस के भी कई दीवार हैं
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कुछ इक जगह पे यूँ भी करते हैं पेश ख़ुद को
गोया कि रहनुमा हों ख़ुद हुक़्मुरान के हम
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गाँवों से हुये तंग तो हम शहरों में आये
अब और कहाँ जाएँगे शहरों से बिछड़ कर
*
फूल-काँटे तो नाम हैं केवल
जो मिला मुझ को यादगार मिला


:- नवीन सी. चतुर्वेदी

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