27 सितंबर 2012

बिहारी के दोहे

नहिं पराग नहिं मधुर मधु नहिं विकास इहि काल।
अली कली में ही बिंध्यो आगे कौन हवाल।।

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर॥

कोटि जतन कोऊ करै, परै न प्रकृतिहिं बीच।
नल बल जल ऊँचो चढ़ै, तऊ नीच को नीच।।


या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होइ॥

कहति नटति रीझति खिजति मिलति खिलति लजि जात।
भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात॥

गोरे मुख पै तिल बन्यो, ताहि करौं परनाम।
मानो चंद बिछाइकै, पौढ़े सालीग्राम॥

1 टिप्पणी:

  1. सतसइया के दोहरे अरु नाविक के तीर
    देखन में छॊटन लगें, घाव करें गंभीर ...

    साझा किये गये बिहारीदास के दोहों में पहला ही दोहा अपने अद्भुत और अन्वर्थ के लिये प्रसिद्ध रहा है.
    फिर दूसरे दोहो को क्या कहा जाय ! .. वाह !!

    या अनुरागी चित्त की.. . पर पन्ने-पन्ने भरे जा सकते हैं.
    कहति नटति रीझति खीजति.. . में इंगितों का लालित्य अपने पूरे निखार पर है.
    कहना नहीं होगा, बिहारी बिहारी हैं !

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