सजल दृगों से कह रहा, विकल हृदय का ताप।
मैं जल-जल कर त्रस्त हूँ, बरस रहे हैं आप।।
झरनों से जब जा मिला, शीतल मंद समीर।
झरनों से जब जा मिला, शीतल मंद समीर।
निखर गईं तनहाइयाँ, बिखर गये हालात।
तरु को तनहा कर गये, झर-झर झरते पात।।
अपनी मरज़ी से भला, हुई कभी बरसात?
नाहक उस से बोल दी, अपने दिल की बात।।
अब तक है उस दौर की, आँखों में तस्वीर।
बचपन बीता चैन से, कालिन्दी के तीर।।
[कालिन्दी - यमुना]
बित्ते भर की बात है, लेकिन बड़ी महान।
मानव के संवाद ही, मानव की पहिचान।।
:- नवीन सी. चतुर्वेदी
मानव के संवाद ही, मानव की पहिचान।।
:- नवीन सी. चतुर्वेदी
नमस्कार। लम्बे अन्तराल के बाद फिर से हाज़िर हूँ आप के दरबार में। सलिल जी अपनी सेवानिवृत्ति की तरफ अग्रसर होने के कारण व्यस्त थे तो इस दौरान मैंने भी समय का सदुपयोग करते हुए ग़ज़ल की थोड़ी बहुत ख़िदमत करने की कोशिश की। कुछ बातें बतियानी हैं आप से :-
पहली बात, हम सोच रहे थे कि समस्या-पूर्ति के पहले चक्र की रचनाओं को पुस्तक-बद्ध किया जाये। शुरू से ही मेरा हठ रहा कि रचनाधर्मी पैसे क्यूँ लगाएँ? आज भी इसी हठ पर कायम हूँ। जिन लोगों से इस विषय पर बात हुई, वहाँ सम्मान का पुट बहुत कम मिला। सम्मान के बिना साहित्य क्या होता है, बताने की ज़ुरूरत नहीं! तो ख़ैर....... वैसे भी अन्तर्जालीय संग्रह [ब्लोगस] अब कहीं आगे बढ़ चुके हैं। यदि आप को मेरे विचार उपयुक्त न लगें तो निस्संकोच बताइएगा।
पहली बात, हम सोच रहे थे कि समस्या-पूर्ति के पहले चक्र की रचनाओं को पुस्तक-बद्ध किया जाये। शुरू से ही मेरा हठ रहा कि रचनाधर्मी पैसे क्यूँ लगाएँ? आज भी इसी हठ पर कायम हूँ। जिन लोगों से इस विषय पर बात हुई, वहाँ सम्मान का पुट बहुत कम मिला। सम्मान के बिना साहित्य क्या होता है, बताने की ज़ुरूरत नहीं! तो ख़ैर....... वैसे भी अन्तर्जालीय संग्रह [ब्लोगस] अब कहीं आगे बढ़ चुके हैं। यदि आप को मेरे विचार उपयुक्त न लगें तो निस्संकोच बताइएगा।
दूसरी बात, हम समस्या पूर्ति का दूसरा चक्र आरम्भ करने की सोच रहे हैं - दोहों के साथ। यदि आप लोगों की राय हो कि समस्या-पूर्ति में दोहों की बजाय कोई अन्य छन्द लिया जाये तथा तब तक 'वार्म-अप राउंड' की तरह से वातायन के अंतर्गत इछ्चुक रचनाधर्मियों के दोहों का प्रकाशन ज़ारी रखा जाये, तो भी बताइएगा।
तीसरी बात, पहले चक्र में हम सम्पादित रचनाएँ प्रकाशित करते थे। दूसरे चक्र में उसे ज़ारी रखें या फिर यथावत प्रकाशित कर के अपनी राय व्यक्त करें, इस विषय पर भी आप के विचार जानने के इच्छुक हैं।
आप की राय की प्रतीक्षा है, खुल कर अपने विचार व्यक्त कर हमारा मार्गदर्शन करें।
समस्या-पूर्ति मंच के पहले चक्र की प्रस्तुतियाँ पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें
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अभी आपकी पोस्ट देखी है,तसल्ली से पढ़ती हूं। फिर अपनी टिप्पणी करती हूं।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गज़ल.....
जवाब देंहटाएंलाजवाब...
सादर
अनु
शानदार और जानदार शुरुआत... बहुत-बहुत बधाई... एक दोहा मुक्तिका अलग से भेजी है.
जवाब देंहटाएंआपकी यह बेहतरीन रचना शनिवार 22/09/2012 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुंदर शानदार दोहे,,,,,
जवाब देंहटाएंRECENT P0ST ,,,,, फिर मिलने का
दोहे बहुत अच्छे लगे |बिना सही किये यदि आप कोइ छंद ब्लॉग पर डालेंगे तो हास्यास्पद लगेगा किसी लेखक को हंसी का पात्र बनाना हो तो और बात है |सही ढंग से शुद्ध रचना यदि सबके सामने आएगी तो उसका अपना महत्त्व होगा |
जवाब देंहटाएंआशा
जवाब देंहटाएंदोहे तो शानदार हैं ही ..कोई शक नहीं ..
-----परन्तु...झर-झर झरते पात.... झर-झर.. शब्द में क्रमिकता भाव है अतः पत्तों के झरते ...के साथ इसका संयोग भावानुरूप उचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि पत्ते नदी या झरने के बहने की भांति ..झर झर नहीं झरते अपितु ...उनका झरना स-व्यवधान होता...अतः भाव-दोष है...
---मेरे विचार से रचनाकार की रचनाओं को यथावत प्रकाशित करना चाहिए ... यदि यह लगता है कि कुछ सुधार होसकता है तो उसे पृथक से जोड़ा/सुझाया जा सकता है , बिना मूल कविता को छेड़े ...
अत्यन्त उत्कृष्ट दोहे..बस प्रभावित करते चले गये।
जवाब देंहटाएंबित्ते भर की बात है, लेकिन बड़ी महान।
जवाब देंहटाएंमानव के संवाद ही, मानव की पहिचान
सभी दोहे बेहद प्रभावी
जवाब देंहटाएंबित्ते भर की बात है, लेकिन बड़ी महान।
मानव के संवाद ही, मानव की पहिचान।।
बहुत बढ़िया दोहावली लाये हो ,पर बहुत देर से आये हो .
सजल दृगों से कह रहा, विकल हृदय का ताप।
जवाब देंहटाएंमैं जल-जल कर त्रस्त हूँ, बरस रहे हैं आप।।
कितने शहरी हो गए लोगों के ज़ज्बात ,
सबके मुंह पे सिटकनी क्या करते संवाद .बढ़िया प्रस्तुति है भाई साहब. बहुत दिन बाद आये हो ,पर माल बढ़िया लाये हो .
बरस बीतते बरसते,जल जल बनता भाप |
जवाब देंहटाएंचक्र यही चलता हुआ , मन देखे चुपचाप ||
झरना झरता नैन से, मस्ती हो या पीर |
आँसू से शायद लिखी , नैनों की तकदीर ||
तनहा तरु है शाख से,झरते जाते पात |
सभी परिंदे उड़ गये, टूटे रिश्ते-नात ||
बिना गर्जना घन घिरे,बिना चमक थी गाज |
बेमौसम बरखा हुई , बस मैं जानूँ राज ||
हर्षित करता आज भी,वह बचपन का साथ |
कभी कभी लगता मुझे,बुला रही शिवनाथ ||
[शिवनाथ = दुर्ग शहर की नदी]
अंतर्मन को छू गई, बित्ते भर की बात |
प्रेरित जग को कर रहे,नमन नमन हे भ्रात ||
दोहा छंद दुबारा लिया जा सकता है। दोहे समस्यापूर्ति की शुरुआत में ही लिए गए थे इसलिए उस समय लोग खुलकर और खिलकर दोहे नहीं लिख पाए थे। आप अपने ये दोहे देखिए और पुराने दोहे देखिए अंतर स्पष्ट हो जाएगा। दोहे को दुबारा जरूर लिया जाना चाहिए।
जवाब देंहटाएंरही बात दोहे ठीक करने की तो मेरे विचार में दोहा बहुत प्रसिद्ध छंद है और एक बार पहले भी लिया जा चुका है तो ज्यादा त्रुटियाँ नहीं होंगी इस बार। इसलिए जस का तस रखा जा सकता है।
हर दोहा बहुत सुंदर ... सार्थक संदेश देते हुये
जवाब देंहटाएंसर्वप्रथम विलम्ब हेतु क्षमा-प्रार्थी हूँ, भाईजी.
जवाब देंहटाएंसार्थक दोहों के लिये हार्दिक धन्यवाद. कुछेक विन्दुओं पर कतिपय सुधी पाठकों ने अपनी राय जाहिर कर दी है. मैं उन विन्दुओं पर आगे नहीं कहूँगा.
आपका विलम्ब से आना परन्तु शुभ संदेश के साथ आना.. . वाह-वाह-वाह !
हम समस्या पूर्ति का दूसरा चक्र आरम्भ करने की सोच रहे हैं - दोहों के साथ। यदि आप लोगों की राय हो कि समस्या-पूर्ति में दोहों की बजाय कोई अन्य छन्द लिया जाये
जो सोचा है आपने उसी सोच पर हम भी हैं. अन्य छंदों पर बात इसी श्रेणी में क्रमशः हो. दोहे जितने आसान प्रतीत होते हैं, वैसे होते नहीं. शिल्पजन्य शाब्दिकता को दोहा कहने में मुझे अवश्य संकोच होगा.
पहले चक्र में हम सम्पादित रचनाएँ प्रकाशित करते थे। दूसरे चक्र में उसे ज़ारी रखें या फिर यथावत प्रकाशित कर के अपनी राय व्यक्त करें
जिनकी रचनाएँ संपादित हो कर लगीं थी, क्या उन रचनाकारों की लिखाई में आवश्यक सुधार हुआ है? उन्हें मालूम हुआ कि संपादन की जरूरत कहाँ हुई थी? यदि हाँ तो उक्त प्रयास सराहनीय था. अन्यथा, किसी का स्वमान्य ’बहुत अच्छा लिखते हैं’ का भ्रम जागरुक पाठकों के धैर्य और समय की परीक्षा लेता लगता है. भद्द साधकों और संयमियों की नहीं पिटती. वे इसी क्रिया-प्रतिक्रिया के दौरान बहुत कुछ सीख जाते हैं और ’विद्वान सर्वत्र पूज्यते’ को सच कर दिखाते हैं.
आपकी पहली बात के प्रति मैं निर्विकार रहना उचित समझूँगा, क्यों कि संभवतः उन दिनों मैं इस प्रवाह में संभवतः नहीं हुआ करता था.
आपकी पहली बात के प्रति मैं निर्विकार रहना उचित समझूँगा, क्यों कि संभवतः उन दिनों मैं इस प्रवाह में संभवतः नहीं हुआ करता था.
जवाब देंहटाएंखेद है, भूलवश ऐसा कह गया, नवीनभाईजी. सही बात तो यह है कि आपने मुझे ठोंक-पीट कर पाँचवीं समस्यापूर्ति के आयोजन में शामिल होने लायक बना लिया था. :-))))
सादर
सुन्दर शुरुआत
जवाब देंहटाएंआ. मयंक अवस्थी जी द्वारा मेल पर भेजा गया सन्देश:-
जवाब देंहटाएंनवीन भाई !! सादर अभिवादन !!
बहुत प्रसन्नता है कि आप समस्या पूर्ति पुन: आरम्भ करने जा रहे हैं ।
दोहा सही विकल्प है -- इसके लिये विषय आप दे सकते हैं -- कारण यह है कि
कम समय में कहा जा सकता है -- याद रह जाता है --मारक क्षमता बहुत होती है
और सामर्थ्य के अनुसार सहयोगी 1,2,3,4,5,6, कितने भी दोहे भेज् सकते हैं।
दूसरी बात कि आप समस्या पूर्ति ही क्यों ठाले -बैठे को पुस्तक रूप में
छापिये और किन रचनाओं को अनिवार्य रूप से स्थान दिया जाय इसपर जिन्होंने
सहयोग किया है उनकी राय लीजिये। पैसा कौन खर्च करेगा ?!! यह प्रश्न
महत्वपूर्ण है -- मैं सहयोग करने को तैयार हूँ --अन्य मित्रों से राय ले
सकते हैं।
रचनायें सम्पादित करने हेतु रचनाधर्मी से पूछ सकते हैं कुछ को सम्पादन
पसन्द नहीं आता -कुछ को आता है --इसलिये रचनाधर्मी की राय ले सकते हैं
--- शुभकामनाओं सहित --मयंक