कुल
सपूत जान्यौ परै लखि सुभ लच्छन गात।
होनहार
बिरवान के होत चीकने पात॥
क्यों
कीजै ऐसो जतन जाते काज न होय।
परवत
पर खोदी कुआँ, कैसे निकसे तोय॥
तोय - पानी
करत
करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान।
रसरी
आवत जात ते सिल पर परत निसान॥
रसरी - रस्सी, सिल - [यहाँ] कुएँ का पत्थर
जैसो
गुन दीनों दई, तैसो रूप निबन्ध ।
ये
दोनों कहँ पाइये, सोनों और सुगन्ध ॥
मूढ़
तहाँ ही मानिये, जहाँ न पण्डित होय ।
दीपक
को रवि के उदै, बात न पूछै कोय ॥
बिन
स्वारथ कैसें सहै, कोऊ करुवे बैन ।
लात
खाय पुचकारिये, होय दुधारू-धैन ॥
दुधारू-धैन - दूध देने वाली गाय
विद्याधन
उद्यम बिना कहौ जु पावै कौन?
बिना
डुलाये ना मिले ज्यों पङ्खा की पौन॥
उद्यम - प्रयत्न, कोशिश ; पौन - हवा
फेर न
ह्वै हैं कपट सों, जो कीजै व्यौपार।
जैसे
हाँडी काठ की, चढ़ै न दूजी बार॥
अति
परिचै ते होत है अरुचि अनादर भाय।
मलयागिरि
की भीलनी, चन्दन देति जराय॥
वृन्द
कल 30/09/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
जवाब देंहटाएंधन्यवाद!
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंवृन्द के दोहे इतने उन्नत और कालजयी हैं कि वे जन मानस की आम ज़िन्दग़ी का अन्योन्याश्रय हिस्सा बन लोकोक्तियाँ और जीवन संदर्भ का पर्याय बन गये हैं.
जवाब देंहटाएंसबसे बड़ी बात तो यह कि यहाँ प्रस्तुत दो-तीन दोहे हम सब की दिनचर्या की बातचीत में शामिल मसल हैं लेकिन रचयिता से या तो हम सब अनभिज्ञ थे या किसी और को रचयिता मान कर चल रहे थे.
आपकी इस प्रस्तुति के लिये हार्दिक बधाई, नवीनभाई जी.
अहा, अत्यन्त पठनीय
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ...
जवाब देंहटाएंउम्दा प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंइस समूहिक ब्लॉग में पधारें, हुमसे जुड़ें और हमारा मान बढ़ाएँ |
काव्य का संसार
बहुत अच्छा लगा पढ़ कर...
जवाब देंहटाएंवृन्द के दोहे में ज्ञान का अथाह सागर है जिसमें पारिवारिक,सामाजिक,नैतिक,प्राकृतिक एवं अन्यान्य ज्ञान भरा हुआ है जिसका मनुष्य लाभ उठाकर अपना जीवन धन्य बना सकता है। 💐जय हो हिंदुस्तानी साहित्य की।💐
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