मुहम्मद अल्वी... शब्दों का चित्रकार.. - असलम राशिद

Image result for मोहम्मद अलवीमेरे बड़े भाई मरहूम आरिफ़ "मीर" के मुँह से पहली बार ये लफ़्ज़ सुने तो अजीब लगा था, "शब्दों का चित्रकार" कैसे हो सकता है कोई, चूँकि बड़े भाई बहुत कम उम्र में भी बड़े अदबनवाज़ और पाये के शायर थे तो ऐसे ही तो कोई बात न कह सकते थे, बड़ी हिम्मत करके पूछा कि कौन हैं ये, तब उन्होंने मुहम्मद अल्वी साहब के ढेर सारे शेर सुनाये.. और अल्वी साहब की निदा फ़ाज़ली साहब की संपादित एक किताब दी, एक ही बैठक में वो छोटी सी पेपरबैक पढ़ डाली, फिर उसे कितनी बार पढ़ा ये भी याद नहीं. 

अल्वी साहब को पढ़ कर तय कर लिया कि इनको और ढूंढ़ कर पढ़ा जायेगा, उस वक़्त इंटरनेट हमारे यहां नया नया था और एक वेबसाइट थी उरडुपोएटरी.कॉम, जो आज के ज़माने की रेख़्ता की तरह ही शायरी का बेहतरीन इन्तेख़ाब रखती थी, उस पर मुहम्मद अल्वी साहब मिल गए, जितनी ग़ज़लें थीं सब पढ़ डालीं, पढ़ क्या डालीं याद कर लीं.. और मरहूम जौन एलिया के साथ साथ (जॉन एलिया साहब को हम 1994 से पढ़ सुन रहे हैं जब मरहूम उस्ताद कृष्णबिहारी नूर साहब ने अपने शागिर्द और मेरे बड़े भाई दीपक जैन 'दीप' भाई को दुबई, कराची, लाहौर के मुशायरों की वीडियो कैसेट्स दीं थीं कहा था कि इन लोगों को सुनो, और मेरे बड़े भाई आसिफ़ सर, दीपक भाई और मैंने बेशुमार बार उन कैसेट्स को सुना। आज जब इस दौर के नौजवान जॉन एलिया को अपने फ्ब स्टेटस पर जगह दे रहे हैं, हम तब उस दौर में जॉन एलिया को दिल मे जगह दे चुके थे और जब जॉन आम हुए तो बेहद ख़ुशी हुई कि हमने जौन को तब जिया जब लोगों ने उनका नाम भी न सुना था, ख़ैर...) मुहम्मद अल्वी साहब को लोगों तक पहुंचा कर अपने अलहदा इन्तेख़ाब की दाद हासिल की.. हालांकि उस्ताद लोग कहते थे, की जो पढ़ रहे हो वो दूसरों को मालूम नहीं होना चाहिए, मगर ख़ुद को रोका न जा सका इतने कमाल के शेर दूसरों तक पहुंचाने से... 

मैं ये एतराफ़ करता हूँ कि आज मेरी जितनी भी जैसी भी शायरी है, जो नयापन मैं लाने की कोशिश करता हूँ उसमें बहुत बड़ा हाथ अल्वी साहब की शायरी का है..मैंने अल्वी साहब को उस दिये की तरह दिल मे हमेशा रोशन रखा है जिसके जरिये मैं अपने ज़हनी दियों को रोशन कर रहा था, और आज भी कर रहा हूँ। उनकी पहली किताब "ख़ाली मकान" से "आख़री दिन की तलाश" "तीसरी किताब" और "चौथा आसमान" तक उनकी शायरी ने मेरे अंदर के शायर को नई ज़िन्दगी बख़्शी, जो इस्तिआरे अल्वी साहब के यहाँ इस्तेमाल हुए उनको पढ़कर हैरत होती थी कि ये मफ़हूम इतनी आसानी से शेर में कैसे ढाला जा सकता है, मगर अल्वी साहब तो शब्दों के चित्रकार थे, बेहद आसानी से अजीबोगरीब मफ़हूम को शेर में ढाल देते थे..

घर में क्या आया कि मुझको
दीवारों ने घेर लिया है

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किसी भी होंठ पर जा बैठती है
'हँसी' सच पूछिये तो फ़ालतू है

हमें क्या घास डालेगी भला वह
'ख़ुशी' ऊँचे घराने की बहू है

पड़ी रहती है घर मे सर झुकाए
ये 'नेकी' तो बिचारी पालतू है

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घर वाले सब झूठे हैं
सच्चा घर मे तोता है

पक्की फ़स्ल है चारों ओर
और बिजूका भूखा है

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'अल्वी' ख़्वाहिश भी थी बाँझ
जज़्बा भी ना-मर्द मिला

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अरे ये दिल और इतना ख़ाली
कोई मुसीबत ही पाल रखिए

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गुजरात के मशहूर सूफ़ी वजीहुद्दीन गुजराती के सज्जादानशीनों में शामिल अल्वी साहब तबियत से भी सूफ़ी थे.. अपने अंदर सारी कायनात को समेटे, सबके दुःख को अपना दुःख कहते हुए अल्फ़ाज़ की शक्ल में ढालते रहे.. बेहद मनमौजी तबियत के अल्वी साहब शायरी को ख़ुदाई इमदाद कहते थे, और जब लगता कि इमदाद नहीं हो रही तो ख़ामोश हो जाते और ख़ुद को कहीं और झोंक देते.. ऐसा उनके साथ कई बार हुआ.. बीच मे 7 साल तक उन्होंने एक भी शेर नहीं कहा.. और जब कहे तो वो ही कहे जो तारीख़ बन गए...

मैं ख़ुद को मरते हुए देख कर बहुत ख़ुश हूँ
और डर भी है कि मेरी आँख खुल न जाए कहीं

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काम की ख़ातिर दिन भर दौड़ लगाते हैं
बेकारी में आख़िर कुछ तो काम मिला

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कुछ नहीं था एल्बम में
फिर भी कुछ कलर चमके

सतहे आब पर अल्वी
मछलियों के पर चमके

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पड़ा था मैं इक पेड़ की छाँव में
लगी आँख तो आसमानों में था

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इन्हीं लोगों से मिल कर ख़ुश हुआ था
इन्हीं लोगों से डरता फिर रहा हूँ  

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अंधेरा है कैसे तिरा ख़त पढ़ूँ
लिफ़ाफ़े में कुछ रौशनी भेज दे

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आग अपने ही लगा सकते हैं
ग़ैर तो सिर्फ़ हवा देते हैं

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उन दिनों घर से अजब रिश्ता था
सारे दरवाज़े गले लगते थे

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अल्वी साहब ने नज़्मों को भी बहुत आला मुक़ाम अता किया..
आपकी नज़्में नज़ीर हैं आने वाली नस्लों के लिए...

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सुनते हो इक बार वहाँ फिर हो आओ
एक बार फिर उस की चौखट पर जाओ
दरवाज़े पर धीरे धीरे दस्तक दो
जब वो सामने आए तो प्रणाम करो
''मैं कुछ भूल गया हूँ शायद'' उस से कहो
क्या भूला हूँ याद नहीं आता कह दो
उस से पूछो ''क्या तुम बतला सकती हो''
वो हँस दे तो कह दो जो कहना चाहो
और ख़फ़ा हो जाए तो ....आगे मत सोचो

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क़ब्र में उतरते ही
मैं आराम से दराज़ हो गया
और सोचा
यहाँ मुझे
कोई ख़लल नहीं पहुँचाएगा
ये दो-गज़ ज़मीन
मेरी
और सिर्फ़ मेरी मिलकियत है
और मैं मज़े से
मिट्टी में घुलता मिलता रहा
वक़्त का एहसास
यहाँ आ कर ख़त्म हो गया
मैं मुतमइन था
लेकिन बहुत जल्द
ये इत्मिनान भी मुझ से छीन लिया गया
हुआ यूँ
कि अभी मैं
पूरी तरह मिट्टी भी न हुआ था
कि एक और शख़्स
मेरी क़ब्र में घुस आया
और अब
मेरी क़ब्र पर
किसी और का
कतबा नस्ब है!!

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रातों को सोने से पहले
नई पुरानी यादों को
उलट-पलट करते रहना
वर्ना काली पड़ जाएँगी
इधर उधर से सड़ जाएँगी

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एक ज़ंग-आलूदा
तोप के दहाने में
नन्ही-मुन्नी चिड़िया ने
घोंसला बनाया है

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अल्वी साहब को अदब ने वो मुक़ाम नहीं बख़्शा जिसके वो मुस्तहिक़ थे, मगर अदब की तारीख़ मुहम्मद अल्वी साहब के ज़िक्र के बिना मुकम्मल नहीं होगी। अल्लाह यक़ीनन अल्वी साहब को जन्नत में आला मुक़ाम अता करेगा..


अलविदा अल्वी साहब..

देशभक्ति की कविताएँ / मुक्तक

मेरा हिन्दोसताँ सब से अलग सब से निराला है।
ये ख़ुशबूओं का गहवर है बहारों का दुशाला है।
अँधेरो तुम मेरे हिन्दोसताँ का क्या बिगाड़ोगे।
मेरा हिन्दोसताँ तो ख़ुद उजालों का उजाला है॥

ये ऋषियों का तपोवन है फ़क़ीरों की विरासत है।
ये श्रद्धाओं का संगम है दुआओं की इबारत है।
भले ही हर तरफ़ नफ़रत का कारोबार है लेकिन। 
ये इक ऐसा क़बीला है जिसे सब से मुहब्बत है॥

बुजुर्गों से वसीयत में मिले संस्कार उगलती है।
समन्वय से सुशोभित सभ्यता का सार उगलती है।
ज़माने भर के सारे तोपखाने कुछ नहीं प्यारे।
हमारे पास ऐसी तोप है जो प्यार उगलती है॥

हमारा दिल दुखा कर जाने क्या मिलता है लोगों को।
हमें यों आज़मा कर जाने क्या मिलता है लोगों को।
ये ऐसा प्रश्न है जिस का कोई उत्तर नहीं मिलता।
तिरंगे को जला कर जाने क्या मिलता है लोगों को॥

हम आपस में लड़ेंगे तो तरक़्क़ी हो न पायेगी।
अगर झगड़े बढेंगे तो तरक़्क़ी हो न पायेगी।
अगर अब भी नहीं समझे तो फिर किस रोज़ समझेंगे।
सियासत में पड़ेंगे तो तरक़्क़ी हो न पायेगी॥

जो मंजिल तक पहुँचते हैं वे रस्ते कैसे देखेंगे।
जो घर को घर बनाते हैं वे रिश्ते कैसे देखेंगे।
अगर झूठी शहादत में फ़ना होती रही नस्लें।
तो फिर हम लोग पोती और पोते कैसे देखेंगे॥

:- नवीन सी. चतुर्वेदी

ग़ज़लें - रामबाबू रस्तोगी

हम उनको प्यार करते हैं उन्हें अपना समझते हैं।
हमारा दर्द ये है वो हमें झूठा समझते हैं॥

सियासी गुफ़्तगू मत कीजिये तकलीफ़ होती है।
ज़ुबाँ चुप है मगर हम आपका लहजा समझते हैं॥

कहा कुरुक्षेत्र में श्रीकृष्ण ने आगे बढ़ो अर्जुन।
ये सारे दुष्ट केवल युद्ध की भाषा समझते हैं॥

ये कैसा दौर है बेटे नसीहत भी नहीं सुनते।
इधर हम आज भी माँ- बाप का चेहरा समझते हैं॥

हम अपने ख़ून से जिस सरज़मीं को सींचते आये।
सियासतदाँ उसे चौपाल का हुक्का समझते है॥

 * 

समंदर के जिगर में आजकल सहरा निकलता है।
जिसे भी मोम कहता हूँ वही शीशा निकलता है॥

र'वादारी , मोहब्बत , दोस्ती , एहसान , कुर्बानी।
हमारे दौर में हर रंग क्यों कच्चा निकलता है॥

सियासत फूल में , पत्तों में ,काँटों में , हवाओं में।
जिसे सच्चा समझता हूँ , वही झूठा निकलता है॥

सियासत में कई अनहोनियाँ होती ही रहती हैं।
यहाँ अमरूद के पौधे से चिलगोज़ा निकलता है॥

इसी जम्हूरियत के ख़्वाब ने जी भर हमें लूटा।
मैं जो सिक्का उठाता हूँ वही खोटा निकलता है॥

बदलते मौसमों में हाल है ऐसा गुलाबों का।
जहाँ से इत्र मिलता था वहाँ सिरका निकलता है॥


घर में बैठे रहें तो भीगें कब।
बारिशों से बचें तो भीगें कब॥

पत्थरों का मिज़ाज रख के हम।
यूँ ही ऐंठे रहें तो भीगें कब॥

आँसुओं का लिबास आँखों पर।
ये भी सूखी रहें तो भीगें कब॥

जिस्म कपडें का जान पत्तों की।
हम भी काग़ज़ बनें तो भीगें कब॥

उनके बालों से गिर रही बूँदें।
हम ये शबनम पियें तो भीगें कब॥

तेरे हाथों में हाथ साहिल पर।
अब न आगे बढ़ें तो भीगें कब॥

दूर तक बादलों का गीलापन।
और हम घर चलें तो भीगें कब॥



बदली नज़र जो उसने तो मंज़र बदल गये।
क़ातिल वही हैं हाथ के खंज़र बदल गये॥

किसका करें यक़ीन करें किस पे एतबार।
दरिया की प्यास देख समंदर बदल गये॥

गाँधी निराश हो के यही देखते रहे।
आबो- हवा के साथ ही बंदर बदल गये॥

दुनिया को जीतने की हवस दिल में रह गयी।
होके कफ़न में क़ैद सिकन्दर बदल गये॥

अरसे के बाद लौटा हूँ मैं अपने गाँव में।
हैरान हूँ कि राह के पत्थर बदल गये॥


जफ़ायें साथ चलती हैं ख़तायें साथ चलती हैं।
मैं मुजरिम हूँ मेरी सारी सज़ायें साथ चलती हैं॥

चरागों को तभी इस युद्ध का एहसास होता है।
खुले मैदान में जब भी हवायें साथ चलती हैं॥

हमारी ज़िंदगी इस दौर की है इक महाभारत।
यहाँ सच- झूठ की सारी कथायें साथ चलती हैं॥

यहाँ भगवान भी हर एक को ख़ुश रख नहीं सकते।
ये दुनिया है यहाँ आलोचनायें साथ चलती हैं॥

मुझे मायूसियाँ अक्सर डराती हैं मगर लोगो।
हर इक मुश्किल में मेरी आस्थायें साथ चलती हैं॥


रामबाबू रस्तोगी 

दोहे - रामबाबू रस्तोगी

हंस रेत चुगने लगे, बिना नीर का ताल।
मछुआरे खाने लगे , काट- काट कर जाल॥

जिसकी जैसी साधना , उसके वैसे भाग।
तितली कड़वी नीम पर , बैठी पिये पराग॥

सपनों के बाज़ार में , आँसू का क्या मोल।
यह पत्थर दिल गाँव है , यहाँ ज़ख़्म मत खोल॥

हरसिंगार की चाह में , हम हो गये बबूल।
शापित हाथों में हुआ , मोती आकर धूल॥

अलग-अलग हर ख़्वाब का, अलग- अलग महसूल।
एक भाव बिकते नहीं सेमल और बबूल॥

राजपथों पर रौशनी , बाकी नगर उदास।
उम्र क़ैद है चाँद को , सूरज को वनवास॥

घर का कचरा हो गये , अब बूढ़े माँ- बाप।
बेटे इंचीटेप से उम्र रहे हैं नाप॥


स्पर्श का आनंद - गणेश कानाटे


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मेरे दिल के नन्हे नर्म गालों पर उम्र चढ़ी ही नहीं!

स्पर्श क्षणिक होता है
स्पर्श का आनंद अमर होता है
माँ और बाबूजी का चूमना
मेरे नन्हे नर्म गालों को
मेरे दिल के नन्हे नर्म गालों को अब भी याद है
मेरे दिल के गालों पर
उम्र चढ़ी ही नहीं!

बाबूजी तो रहे नहीं
उनके गाल चूमने का स्मरण है
अम्मा अब बूढ़ा गयी है
मैं भी अधेड़ हो गया हूँ
अम्मा अब भी चूमती है मेरे गाल
मेरी सालगिरह पर

मै इस नए चूमने का स्मरण
और बचपन के चूमने का स्मरण
दोनों को मिला देता हूँ
मेरे दिल के नन्हे नर्म गाल
सुरक्षित रखेंगे यह सारे स्मरण
उस क्षण तक
जब मैं खुद एक स्मरण हो जाऊंगा

अंततः धरती माँ सहेज कर रखती है
हर बच्चे के नन्हे नर्म गालों को चूमने के स्मरण
जब वें आसमान को चूमने चलें जाते हैं...


गणेश कनाटे

मृद्गन्ध - गणेश कनाटे

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अब जो बारिश आती है 
अब जो मिट्टी भीग जाती है
अब जो गीली मिट्टी की गंध आती है
- बदली बदली सी आती है

इस मृद्गन्ध में अब घुल गयी है सड़ांध
सड़ांध उन मुर्दा जिस्मों की
जो बेटे थे मिट्टी के
पर मिट्टी में मिल गए
उसी मिट्टी में मजबूती से खड़े
पेड़ों पर लटक कर

मैं इस नई गंध के लिए
ढूंढ रहा हूँ, एक नया नाम

आपको सूझे तो लिख दीजियेगा
अपने पास ही कहीं गीली मिट्टी पर
मुझ तक वह गंध पहुंच जाएगी...

गणेश कनाटे

हजारों की संख्या में आत्महत्या करते किसानों को श्रद्धांजलि देते हुए...


* औसतन, हर आधे घंटे में एक किसान आत्महत्या, यह हमारे देश का सच है.

मृद्गन्ध का नया नाम ढूंढ रहा हूँ...

"Philosophers have hitherto interpreted the world; the point however, is to change it." - Karl Marx

दोहे - मधुर बिहारी गोस्वामी

चहूँ ओर भूखे नयन, चाहें कुछ भी दान।
सूखी बासी रोटियाँ, लगतीं रस की खान।।

भूखीं आँखें देखतीं, रोटी के कुछ कौर।
एक बार फिर ले गया, कागा अपने ठौर ।।

लुटती पिटती द्रौपदी, आती सबके बीच ।
अंधे राजा से सभी, रहते नज़रें खींच।।

पेट धँसा, मुख पीतिमा, आँखें थीं लाचार।
कल फिर एक गरीब का, टूटा जीवन तार।।

यह कैसा युग आ गया, कदम कदम पर रोग।
डरे - डरे रस्ते दिखें, मरे-मरे सब लोग।।

जहाँ चलें दिखती वहाँ, पगलायी सी भीड़।
आओ बैठें दूर अब , अलग बना कर नीड़।।


डा. मधुर बिहारी गोस्वामी

तिश्ना कामी का सुलगता हुआ एहसास लिये - सालिम शुजा अंसारी

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तिश्ना कामी का सुलगता हुआ एहसास लिये
लौट आया हूँ मैं, दरिया से नई प्यास लिये

वक़्त ने नौच ली चेहरे से तमाज़त लेकिन
मैं भटकता हूँ अभी तक वही बू बास लिये

ये अगर सर भी उतारें, तो क़बाहत क्या है
लोग आये हैं , मिरे दर पे बड़ी आस लिये

मुन्तख़िब होगी बयाज़ों की ज़ख़ामत अब के
और मैं हूँ यहाँ इक पुर्ज़ा ए क़िरतास लिये

आज़माइश है शहीदान ए वफ़ा की "सालिम"
मैं तह ए ख़ाक हूँ गन्जीना ए इनफ़ास लिये
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📚{लुग़त}📚
तिश्ना कामी=प्यास, तमाज़त=चमक, क़बाहत= दिक्क़त, मुनतख़िब= चुना जाना, बयाज़= वो डायरी जिस पर शेर नोट होते हैं, ज़ख़ामत= मोटाई, पुर्ज़ा ए क़िरतास= काग़ज़ का टुकड़ा, गंजीना= ख़ज़ाना, इनफ़ास= साँसें

हो रहा जो देखकर विस्मित हुए - अशोक नीरद


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हो रहा जो देखकर विस्मित हुए
जो अवांछित थे वो ही चयनित हुए

बुद्धि पथदर्शक हुई तो यह हुआ
मन की काशी से बहुत वंचित हुए

रंगमंचों का है जीवन सिलसिला
कैसे-कैसे नाट्य हैं मंचित हुए

टिप्पणी उपलब्धियों पर व्यर्थ है
कोष में सुख के कलह संचित हुए

राम जाने अब कहाँ हैं ऐसे लोग
जो समय की मार से प्रेरित हुए

सर छिपाए आचरण जाकर कहाँ
संत जब लंपट यहाँ साबित हुए

हर तरफ़ "नीरद" विरोधाभास है
यश जिन्हें मिलना था अपमानित हुए

:- अशोक नीरद 

अंतिम आलिंगन के आगोश में प्रवेश - गणेश कनाटे


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अंतिम आलिंगन के आगोश में प्रवेश
मेरे प्राणतत्त्व की थकान
अब थक चुकी है, पूर्णतः

मुश्किल है अब
पलकों को उलटकर देखना
सपनों की आंखों में
जो बेहद डरी डरी है हकीकत देखकर

मुश्किल है अब
कानों में प्राण रखना और सुनना
वो आदिम चीखें, चीत्कार
जो उपस्थित है अब भी हवाओं में

मुश्किल है अब
देखना प्राणवान उंगलियों को
जिनसे झरते हैं रंग सतरंगी
और बनाते हैं एक चित्र -
आदम और हव्वा की वेदना का

मुश्किल है अब
साक्षीभाव से देखना
अपने ही शुक्राणुओं को
जीवन का बोझ ढोते हुए...
बड़ा ही मुश्किल है....

मैं और मेरा प्राणतत्त्व अब खड़े हैं थकान के इस अंतिम छोर पर
तुम भी तो थक चुकी हो इस सफर में और खड़ी हो यहां मेरे पास

चल, अब हम छोड़ देते है सारी फिक्र
- फिक्र इस दुनिया के वीभत्स होने की
- फिक्र इस दुनिया के विषम होने की
- फिक्र ये दुनिया बदलेगी या नहीं इसकी

चल ओढ़ लेते हैं एक रजाई
और करते हैं प्रवेश
हमारे अंतिम आलिंगन के आगोश में!


गणेश कनाटे