आओ बतियाएँ हरिगीतिका छंद पर


सभी साहित्य रसिकों का सादर अभिवादन 



उत्सवों का दौर जारी है और क्यूँ न हो - पर्वों का पावन प्रदेश जो है हमारा प्यारा हिन्दुस्तान| इस बात को ध्यान में रखते हुए ही आदरणीय 'सलिल' जी  के परामर्श अनुसार 'हरिगीतिका' छन्द को रिजर्व कर लिया गया था इन दिनों के लिए|

घनाक्षरी छन्द पर आधारित चौथी समस्या पूर्ति में आप लोगों ने सफलता के जो प्रतिमान स्थापित किये हैं, आप सभी को साष्टांग प्रणाम| पिछले आयोजन के विशेष आकर्षण रहे दो - एक तो 'विशेष पंक्ति वाले छन्द' और दूसरा 'समापन पोस्ट'| समापन पोस्ट में आप लोगों ने क़माल किया भाई क़माल| ख़ास कर भाई योगराज जी को विशेष रूप से साधुवाद देने की ज़रुरत है जिन्होंने मंच के निवेदन पर सराइकी सहित छह भाषाओं / बोलियों में प्रस्तुतियां दीं| हरियाणवी को सामान्य रूप से हास्य के लिए यूज किया जाता रहा है, पर आपने हरियाणवी में हरियाणे की प्रखर समस्या 'खाप के फैसले' को निरुपित कर एक अहम् काम को अंज़ाम दिया, जिसे आने वाले समय में लोग बार बार रेफर करते रहेंगे| भाई योगराज जी आप की इन प्रस्तुतियों के लिए सिम्पली बोले तो 'हेट्स ऑफ'|

तिलक राज कपूर जी का 'वक्ष कटि से कटा रे', महेंद्र जी का 'ठोडी पर गोरखा रूपी तिल', अजित गुप्ता जी का 'मैं तो चली काम पर', ब्रजेश  त्रिपाठी जी का 'ब्यूटी कम्पटीशन', अम्बरीश भाई की अलंकारिक जादूगरी, वीनस की 'सपा बसपा' और शेखर चतुर्वेदी का 'रात भर बदली की ओट से' ने भी काफी प्रभावित किया| श्रीमती अजित गुप्ता जी तो खैर पहले भी छन्द साहित्य से जुड़ी रही थीं, परंतु आदरणीया श्रीमती आशा सक्सेना जी के प्रयास की जितनी भी प्रशंसा की जाये कम ही होगी। मंच ने जिस जिस से भी प्रार्थना की, सभी ने उस प्रार्थना को सम्मान प्रदान करते हुए, अपना सर्वोत्तम प्रस्तुत किया| मंच को विशवास है कि अब यह सभी गुणीजन स्वत: स्फूर्त हो कर इस साहित्य सेवा में अपना अहम् योगदान अवश्य प्रदान करेंगे|  

[हाँ ये भी है कि बहुतों ने उस समापन पोस्ट को या तो पढ़ा ही नहीं, और पढ़ा भी तो टिपियाने की ज़रुरत ही नहीं समझी, और समझी भी तो बड़े ही केजुयल वे में - ये एक अपवाद भी जुड़ा है उस विशिष्ट पोस्ट के साथ, खैर अपने को तो छंद साहित्य की सेवा जारी रखनी ही है]

मई से जुलाई तक का समय कहाँ निकल गया पता ही नहीं चला| घनाक्षरी छन्द आधारित आयोजन में जिन लोगों ने चार चाँद लगाये - आगे बढ़ने से पहले, आइये मिल जुल कर उन सब का [प्रस्तुति क्रम के मुताबिक] अभिनन्दन करते हैं:-

१. श्री सुरेन्द्र सिंह झंझट 
२. श्री महेंद्र वर्मा
३. श्री योगराज प्रभाकर 
४. श्री राजेन्द्र 'स्वर्णकार'
५. श्रीमती आशा सक्सेना 
६. श्रीमती अजित गुप्ता 
७. श्री सुशील जोशी 
८. श्री आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
९. श्री धर्मेन्द्र कुमार 'सज्जन'
१०. श्री राणा प्रताप सिंह 
११. श्री ब्रजेश त्रिपाठी 
१२. श्री शेखर चतुर्वेदी 
१३. श्री अम्बरीश श्रीवास्तव 
१४. श्री वीनस केशरी 
१५. श्री तिलक राज कपूर 
१६. श्री रविकांत पाण्डेय 
१७. श्री रविकर 
१८. श्री शेष धर तिवारी
और 
१९. ये खाक़सार नवीन सी. चतुर्वेदी

जैसा कि आप सभी जानते हैं कि मैं समस्या पूर्ति के सभी आयोजनों से दूर रहता हूँ [प्रस्तुति विषयक], परन्तु समापन पोस्ट में गुजराती और मराठी के कारण मैंने अपना ये उसूल तोड़ा| आइये अब पढ़ते हैं उन कवियों के नाम जिन्होंने चुनौती पूर्ण विशेष पंक्ति पर प्रस्तुतियां दीं:- 

१. श्री राजेन्द्र 'स्वर्णकार' 
२. श्री आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
३. श्री रविकांत पाण्डेय 

इस आयोजन में जिन भाषाओं / बोलियों पर छन्द प्रस्तुत हुए उन के नाम :-

१. प्रचलित हिंदी
२. भोजपुरी 
३. ब्रजभाषा 
४. अवधी [प्रताप गढ़]
५. राजस्थानी [बीकानेर]
६. छत्तीसगढ़ी [रायपुरिहा]
७. हिंदी+उर्दू [पंजाब आंचलिक]
८. पंजाब 
९. पंजाबी [पटियाला]
१०. हरियाणवी 
११. सराइकी 
१२. हिमाचली 
१३. अवधी [वाचाल]
१४. बुन्देली 
१५. छत्तीसगढ़ी [जबलपुर]
१६. निमाड़ी 
१७. मालवी 
१८. राजस्थानी [जयपुर]
१९. हिंदी + उर्दू [मध्य भारत आंचलिक]
२०. भोजपुरी [गोरखपुर]
२१. अवधी [नैमिष]
२२. गुजराती
२३. मराठी 

यदि किसी का उल्लेख होने से रह गया हो तो हमें बताने की कृपा करें, हम क्षमा प्रार्थना सहित अगली पोस्ट में इसे अवश्य कवर करेंगे| तो ये तो थी पिछले आयोजन सम्बंधित बातें| अब बतियाते हैं अगले आयोजन के बारे में|

जैसा कि आप सभी को मालुम है कि अगला आयोजन हरिगीतिका छन्द पर होने जा रहा है| हर बार की भाँति इस बार भी हम सब से पहले इस छन्द पर बतियाते हैं| मंच कुछ उदाहरण दे रहा है, आप सभी भी अपनी अपनी जानकारियाँ [सिर्फ हरिगीतिका सम्बंधित] यहाँ सभी के साथ साझा करने की कृपा करें| इस परिचर्चा के बाद समस्या पूर्ति की पंक्ति की घोषणा की जायेगी|


हरिगीतिका छन्द के बारे में 
  • हरिगीतिका छन्द एक मात्रिक सम छन्द होता है 
  • ये छन्द कुल चार चरणों वाला छन्द होता है
  • प्रत्येक दो पंक्तियों में तुकांत समान होना चाहिए, वैसे चारों पंक्तियाँ भी समान हो सकती हैं|
  • प्रत्येक चरण में १६+१२=२८ मात्रा 
  • १६ वीं मात्र पर यति [बोलते हुए रुकने का क्रम]
  • प्रत्येक चरण के अंत में लघु गुरु अनिवार्य 
  • इस छन्द में हर्फ़ /अक्षर / वर्ण गिराना स्वीकार्य नहीं 
  • इस छंद की लय कुछ इस तरह से होती है :- 
                   ला - ला - ल - ला         ला - ला - ल - ला -  ला
                   ला - ल - ला        ला - ला - ल - ला


                   श्री - रा - म - चं        द्र  कृ  - पा - लु - भज      -  मन
                   हर - ण - भव       भय - दा - रु - णं

[ऊपर की पंक्ति में 'चंद्र' का 'द्र' और 'कृपालु' का 'कृ' संयुक्त अक्षर की तरह एक मात्रिक गिने गए हैं]               

अब एक उदाहरण तुलसी कृत रामायण से :-

श्री राम चन्द्र कृपालु भज मन हरण भव भय दारुणं।
नव कंज लोचन कंज मुख कर कंज पद कंजारुणं ।।
कंदर्प अगणित अमित छवि नव-नील नीरद सुन्दरं ।
पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि नौमि  जनकसुता वरं।।
[यह स्तुति यू ट्यूब पर भी उपलब्ध है]

मात्रा गणना :-

श्री राम चन्द्र कृपालु भज मन 
२ २१ २१ १२१ ११ ११ = १६ मात्रा और यति  

हरण भव भय दारुणं 
१११ ११ ११ २१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु 

नव कंज लोचन कंज मुख कर 
११ २१ २११ २१ ११ ११ = १६ मात्रा और यति 

कंज पद कंजारुणं
२१ ११ २२१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु 

कंदर्प अगणित अमित छवि नव 
२२१ ११११ १११ ११ ११ = १६ मात्रा और यति 

नील नीरद सुन्दरं
२१ २११ २१२ = १२ मात्रा, अंत में लघु गुरु 

पट पीत मानहु तड़ित रूचि शुचि 
११ २१ २११ १११ ११ ११ = १६ मात्रा और यति 

नौमि जनकसुता वरं
२१ ११११२ १२ = १२ मात्र, अंत में लघु गुरु 

हमारे कुछ साथियों को शंका थी कि ये तो संस्कृत या बहुत ही शुद्ध हिन्दी वाला छन्द है| ख़ास कर उन मित्रों के लिए दो उदाहरण राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त जी वाले:-

वो वस्त्र कितने सूक्ष्म थे, कर लो कई जिनकी तहें।
शहजादियों के अंग फिर भी झांकते जिनसे रहें ।।
थी वह कला या क्या कि कैसी सूक्ष्म थी अनमोल थी ।
सौ हाथ लम्बे सूत की बस आध रत्ती तोल थी ।।
[भारत भारती से]




अभिमन्यु-धन के निधन से, कारण हुआ जो मूल है।
इस से हमारे हत हृदय को, हो रहा जो शूल है ।।
उस खल जयद्रथ को जगत में, मृत्यु ही अब सार है ।
उन्मुक्त बस उस के लिए रौ'र'व नरक का द्वार है ।।

[जयद्रथ वध से]
[यहाँ 'जयद्रथ' को संधि विच्छेद का प्रयोग तथा उच्चारण कला का इस्तेमाल करते हुए यूँ बोला जाएगा 'जयद्द्रथ'। पुराणों के अनुसार नरकों के विभिन्न प्रकारों में 'रौरव [रौ र व] नरक' बहुत ही भयानक नरक होता है]
 
तो ये थे तीन उदाहरण| पहले की मात्रा गणना के अनुसार बाकी दो की मात्रा गणना सहज ही की जा सकती है| फिर भी किसी नवागंतुक को कठिनाई आ रही हो तो मंच को सूचित करने की कृपा करें| हर संभव सहायता यहाँ सभी के लिए सहज ही उपलब्ध है| नो गुरु चेला - ओनली साहित्य मेला| वैसे ठाले बैठे पर भी इस छंद के कुछ  उदाहरण देखे जा सकते हैं:- 



श्री गणेश वंदना हरिगीतिका छन्द में


कुछ परामर्श भी चाहिए आप लोगों से

१. क्या 'विशेष पंक्ति' वाली घोषणा को जारी रखा जाए ?
२. क्या समस्या पूर्ति के लिए एक से अधिक विकल्प दिए जाएँ [पंक्ति/शब्द] ?
३. क्या एक व्यक्ति के द्वारा भेजे जाने वाले छंदों की संख्या निश्चित की जाए ?
४. क्या अन्य भाषाओं / बोलियों वाला प्रयोग जारी रखा जाए ?
५. और यदि [४] पर हाँ है, तो क्या इसे सम्बंधित कवि की उसी पोस्ट के साथ ही जोड़ दिया जाए - या फिर पिछले आयोजन की तरह समापन पोस्ट में लिया जाए ?

अपने-अपने सुविचारों को रखते हुए आप सभी इस परिचर्चा को आगे बढायें, उस के बाद फिर हर बार की तरह समस्या पूर्ति की पंक्ति की घोषणा की जायेगी| अगली पोस्ट में कुछ औडियो लिंक्स भी दिये जाएँगे|




जय माँ शारदे!

आवाज़ की जगह तो स्विचों ने संभाल ली - नवीन

वो बात क्या कि जिस में हक़ीक़त बयाँ न हो |
वो शे'र क्या कि जिस पे समय का निशां न हो |१|

कर देगा सूर्य भस्म हमें इक सेकंड में |
फैला हमारे सर पर अगर आसमाँ न हो |२|

'विनिवेश' वक़्त की है ज़रूरत, कुबूल है |
पर यह गुलामियत का नया तर्जुमाँ न हो |३|

मंदी में और पुख्ता  हुई है हमारी सोच |
उपलब्धि है ये, इस पे हमें क्यूँ गुमाँ  न हो |४|

आवाज़ की जगह तो स्विचों ने संभाल ली |
कल आने वाली नस्ल कहीं बेज़ुबाँ न हो |५|

उम्मीद करता हूँ कि कठिन बहर और ट्रेडीशनल काफ़ियों का प्रयोग करते हुए ozon, disinvestment, recession और technology की अंधी होड पर कहे गए ये अशआर आप लोगों को ज़रूर पसंद आएंगे|

मफ़ऊलु फाएलातु मुफ़ाईलु फाएलुन
221 2121 1221 212
बहरे मुजारे मुसमन अखरब मकफूफ़ महजूफ

श्री गणेश वंदना

SHRI GANESH

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वन्‍दहुँ विनायक, विधि-विधायक, ऋद्धि-सिद्धि प्रदायकम्।
गजकर्ण, लम्बोदर, गजानन, वक्रतुण्ड, सुनायकम्।।
श्री एकदन्त, विकट, उमासुत, भालचन्द्र भजामिहम।
विघ्नेश, सुख-लाभेश, गणपति, श्री गणेश नमामिहम ।।

नवीन सी. चतुर्वेदी

[इस हरिगीतिका छंद को स्वर दिया है भाई श्री राजेन्द्र स्वर्णकार जी ने]

Youtube Link:- https://www.youtube.com/watch?v=MVeJargL3eI

दुष्यंत कुमार की शायरी में मुहब्बत और ज़िंदगी

..................पिछली पोस्ट से जारी 

यही बोला और समझा जाता रहा है कि दुष्यंत कुमार एक क्रांन्तिकारी कवि / शायर थे| परन्तु दुष्यंत कुमार का ग़ज़ल संसार सिर्फ इतना ही नहीं था [एक पाठक के लिए] हाँ ये ज़रूर है कि दुष्यंत कुमार की पहिचान क्रांतिकारी कवि / शायर वाली ही बनी|

कुछ ऐसे शेर छांटे हैं जो उन की क्रांतिकारी छवि से अलग हैं| देखिये ये अशआर और उस शख्सियत की मुहब्बत वाली छवि के दर्शन कीजिए :- 

वो घर में मेज़ पे कोहनी टिकाये बैठी है
थमी हुई है वहीं उम्र आजकल, लोगो

ये पूरी की पूरी ग़ज़ल तो मुहब्बत को ही समर्पित है:-

चांदनी छत पे चल रही होगी 
अब अकेली टहल रही होगी 

फिर मेरा ज़िक्र आ गया होगा 
बर्फ़-सी वो पिघल रही होगी 

कल का सपना बहुत सुहाना था 
ये उदासी न कल रही होगी 

सोचता हूँ कि बंद कमरे में 
एक शम्मा सी जल रही होगी 

तेरे गहनों सी खनखनाती थी 
बाजरे की फ़सल रही होगी 

जिन हवाओं ने तुझ को दुलराया 
उन में मेरी ग़ज़ल रही होगी


'मेज़ पर कोहनी टिकाए बैठे' होने का भाव हो या 'गहनों की खनक' और 'बाजरे की फ़सल' के बीच का तारतम्य - अद्भुत कल्पना का नज़ारा पेश करते हैं| 

ये अशआर भी मुहब्बत की जागीर ही कहे जाएँगे:- 

मैं तुम्हें छू कर ज़रा—सा छेड़ देता हूँ
और गीली पाँखुरी से ओस झरती है
***

तुम कहीं पर झील हो मैं एक नौका हूँ
इस तरह की कल्पना मन में उभरती है 
***

अगर ख़ुदा न करे सच ये ख़्वाब हो जाए
तेरी सहर हो मेरा आफ़ताब हो जाए
***


दुष्यंत कुमार की शायरी में ज़िंदगी को भी बड़े ही सलीक़े से बतियाया गया है - देखिए कुछ बानगियाँ:-

पत्तों से चाहते हो बजें साज़ की तरह
पेड़ों से पहले आप उदासी तो लीजिए 
***

बच्चे छलाँग मार के आगे निकल गये
रेले में फँस के बाप बिचारा बिछुड़ गया
***

दुख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें
सुख तो किसी कपूर की टिकिया-सा उड़ गया
***

लेकर उमंग संग चले थे हँसी—खुशी
पहुँचे नदी के घाट तो मेला उजड़ गया
***

जिन आँसुओं का सीधा तअल्लुक़ था पेट से
उन आँसुओं के साथ तेरा नाम जुड़ गया.
***

जैसे किसी बच्चे को खिलोने न मिले हों
फिरता हूँ कई यादों को सीने से लगाए
***

मुझको ईसा बना दिया तुमने
अब शिकायत भी की नहीं जाती
***

ख़रगोश बन के दौड़ रहे हैं तमाम ख़्वाब
फिरता है चाँदनी में कोई सच डरा—डरा 
***

तेरे सर पे धूप आई तो दरख़्त बन गया मैं
तेरी ज़िन्दगी में अक्सर मैं कोई वजह रहा हूँ
***


बेशक़ शराब पर भी लिखा है दुष्यंत कुमार ने:-

हमने भी पहली बार चखी तो बुरी लगी
कड़वी तुम्हें लगेगी मगर एक जाम और
***

एक आदत-सी बन गई है तू
और आदत कभी नहीं जाती
***

जैसा कि कई गुणी जन बताते हैं कि दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों में कई जगह गंभीर खामियाँ हैं, इस बात से बिल्कुल भी असहमति नहीं है, परन्तु साथ ही एक पाठक की हैसियत से इतना ज़रूर आभास होता है कि अगर कुछ खामियों को छोड दें तो उन्होने वाक़ई बहुत अच्छी प्रस्तुतियां दी हैं| उन्होने रमल या हज़ज़ जैसी सीधी सादी बहरों के अलावा कामिल और उस जैसी अन्य कठिन बहरों पर भी काम किया है| ग़ज़ल की बारीक़ जानकारियाँ रखने वाले लोग उन्हें पढ़ चुके हैं, अब तक कई बार|

दुष्यंत कुमार को चंद पोस्ट्स में समेट पाना मुश्क़िल है| फिलहाल उन के ही एक शेर के साथ यहाँ विश्राम लेते हैं, आगे यदि आप लोगों की रज़ामंदी रही तो कुछ और भी ले कर हाज़िर होंगे:-

उनका कहीं जहाँ में ठिकाना नहीं रहा
हमको तो मिल गया है अदब में मुकाम और.

साथियों का आदेश मिल चुका है 'हरिगीतिका' पर काम शुरू करने के लिए तो जल्द ही इस पर काम शुरू किया जाएगा, परन्तु उस के पहले अगले हफ्ते आप लोगों के साथ एक कालजयी कृति साझा करनी है|