नमस्कार
बचपन की यादें सभी
के साथ जुड़ी होती हैं, और उन के याद आने का कोई नियत समय नहीं होता है; बस
कभी भी कहीं भी अचानक ही आ धमकती हैं हमेँ गुदगुदाने के लिये। हमारा एक सहपाठी हुआ
करता था [नाम न पूछो यार, मुझे भी याद नहीं आ रहा] उस का
मुख्य कार्य था लोगों मेँ कमियाँ ढूँढना, मसलन किसी की शर्ट
कितनी मैली है, किसी के जूतों पर पोलिश नहीं है, किसी का बस्ता कहीं से फटा हुआ है और कुछ न मिले तो किसी ने बालों मेँ
ढंग से कंघी नहीं की है, और यह भी न मिले तो भाई आप के दो
पैर आगे पीछे क्यूँ पड़ रहे हैं – ऐसी ऐसी कमियाँ ढूँढ लेता
था वह मेधावी बालक। दूसरी तरफ़ अगर उस की बात करें तो वह अपने आप मेँ ख़ामियों की एक
जीती-जागती प्रतिमूर्ति था मगर अन्य लड़के / लड़कियाँ उस के मुँह लगने को समय की
बरबादी समझते थे। बचपन की यादें हैं, बस कभी कभार गुदगुदा
जाती हैं। मैं तो कभी-कभी सोचता हूँ कि आजकल वह किन-किन को कृतार्थ कर रहा होगा, बड़ा ही बेशर्म टाइप प्राणी था, सोचता हूँ अब भी
वैसा ही होगा...... न न भाई मेधावी था तो अब तो और भी उन्नति की होगी, ख़ैर वह जहाँ भी हो परमपिता परमेश्वर उस की आत्मा को तुष्टि प्रदान
करें........... अबे हँसो मत........ उस ने सुन लिया तो अपन सब की ख़ैर नहीं :) आप
श्री तो आप श्री जो ठहरे :)
साथियो,
कौन बनेगा करोड़पति मेँ अमिताभ बच्चन द्वारा पढ़ा गया यह दोहा शायद आप मेँ से कुछ की
स्मृतियों मेँ हो :-
तू ताती ता तात ते,
ता ते तातौ तात
"याद नहीं है
ठीक से",
तूत तात तत्तात
आप को जान कर हर्ष
होगा कि इस विलक्षण दोहे को अमिताभ जी तक पहुँचाने वाले हमारे समय के ख्याति-लब्ध
रचनाधर्मी भाई श्री शरद तैलंग जी आज इस मञ्च पर उपस्थित हो रहे हैं अपने दोहों के
साथ। शरद जी के दोहे यानि अपनी ही तरह के स्पेशल दोहे,
पहले नम्बर पर जो दोहा है उसे भी अमित जी ने अपनी वाणी प्रदान की थी KBC के किसी एक एपिसोड मेँ। शरद जी पहली बार मञ्च पर पधार रहे हैं तो आइये हम
सभी उन का सहृदय स्वागत करते हुये उन के दोहों का रसास्वादन करें :-
पहन हवाई चप्पलेँ, जाओगे जब मित्र
बरसातोँ मेँ पीठ पर, बन जायेगा चित्र
वर्षा के ही साथ मेँ, तेज़ हवा जब आय,
डर रहता इस बात का, छाता पलट न जाय
सडकोँ पर निकलो अगर, पहन साफ परिधान,
गाडी निकले पास से, रखना उनका ध्यान
सूरज छुपता फिर रहा, ले सागर से कर्ज़,,
मेघोँ ने चुकता किया और निभाया फर्ज़
वर्षा ॠतु मेँ कर रहे, तेज़ कलम की धार,
रचना रचने के लिए, सारे रचनाकार
मिलकर मेघोँ ने किया, सूरज का घेराव,
वो बेचारा क्या करे, भूल गया सब ताव
सावन मेँ जब झूम के, आई ये बरसात,
नदियाँ नाले खुश हुए, पाकर ये सौगात
ज़ोर दिखा कर मेघ ने, किए गाँव कुछ नष्ट,
फिर आगे को चल दिया, दे कर सबको कष्ट
छाते वाले सब कहेँ, मेघोँ से - 'सरकार'
"अब के बरसो झूम के, चल निकले व्यापार"
पानी जब चूने लगे, करके बिस्तर गोल
शक्कर और सिमेण्ट का, डालो छ्त पर घोल
भैँसेँ गोबर कर गईं, आज सडक के बीच
पहियोँ मेँ लग आ गईं, घर मेँ माटी-कीच
सावन मेँ जाने लगे
, साजन यदि परदेस
रस्से से बाँधो उसे , लगे न मन मेँ ठेस
सावन मेँ आयें न जो, साजन अपने द्वार
बीमारी का झूठ ही, भेजो उनको तार
रस्से से बाँधो उसे , लगे न मन मेँ ठेस
सावन मेँ आयें न जो, साजन अपने द्वार
बीमारी का झूठ ही, भेजो उनको तार
इस मौसम मेँ यदि मिलें, गर्म पकौडे-चाय
सच मानो बरसात का, बहुत मज़ा आ जाय
धो डाले कपडे सभी, दिन
था जब इतवार,
अब तक वे सूखे नहीँ , दिवस हो गये चार
ज्योँ ही निकली धूप तो, रखा सूखने माल
वानर टोली आ गई, चट कर डाली दाल
वर्षा मेँ जाना पडा, था आवश्यक काम,
वापस आये तो हुआ, नजला और जुकाम
छत से पानी चू रहा, कमरे मेँ चहुँ ओर
सो न सके हम रात भर, जब तक हुई न भोर
अब तक वे सूखे नहीँ , दिवस हो गये चार
ज्योँ ही निकली धूप तो, रखा सूखने माल
वानर टोली आ गई, चट कर डाली दाल
वर्षा मेँ जाना पडा, था आवश्यक काम,
वापस आये तो हुआ, नजला और जुकाम
छत से पानी चू रहा, कमरे मेँ चहुँ ओर
सो न सके हम रात भर, जब तक हुई न भोर
बाढ बहा लाई कई , सायकिल, बाइक
कार
नदिया देने चल पडी, सागर
को उपहार
सही कहा था न – शरद
तैलंग जी के दोहे यानि अपनी तरह के स्पेशल दोहे, एक भरा-पूरा
शब्द-चित्र नहीं बल्कि एक मुकम्मल पिछवाई बना कर पेश कर दी है आपने। गाँव से ले कर महानगर तक को
समेट लिया है इन दोहों मेँ। एकाधा ठीक-ठाक दोहा लिख कर ख़ुद को साठ मार खाँ [तीस
मार खाँ का दुगुना :) ] समझने वालों को
शरद जी की सहजता से कुछ सीखना चाहिये। एक और बात भी शायद आप सभी ने नोट की होगी और वह यह कि शरद जी ने चन्द्र बिन्दी और अनुस्वार का बड़ा ही सुन्दर प्रयोग किया है। कुछ समय से हम कोशिश कर रहे हैं कि यथा सम्भव लिपि के शुद्ध प्रारूप को प्रयोग करें, शरद जी का यह इनीशियेटिव बहुतों के लिये प्रेरणा बनेगा ऐसा विश्वास है। इस पोस्ट में हम सभी जगह चन्द्र बिन्दी / अनुस्वार को अमल में नहीं ला सके हैं, पर भविष्य में ऐसा करने का प्रयास अवश्य करेंगे।
साथियो अगली पोस्ट
धरम प्रा जी की पोस्ट है यानि समापन पोस्ट। तब तक आप सभी तन-मन भिगोते इन दोहों का
आनन्द लें और अपने सुविचार भी अवश्य प्रकट करें। चलते-चलते अरुण निगम जी को टिप्पणियों में अपने विलक्षण दोहों को प्रस्तुत करने के पुन: बहुत-बहुत बधाई।
बड़ी मजेदार पोस्ट है। मजेदार दोहों पर मजेदार कमेंट्री। बहुत बहुत बधाई शरद जी को जिस सहजता से उन्होंने दोहे कहे हैं उसके लिये।
ReplyDeleteआज के असली दोहे हैं ये ,जो रीतिकाल के प्रतिमानो और आरोपणों से मुक्ति पा कर, वर्तमान जीवन को उसकी वास्तविकता के साथ व्यक्त करने में समर्थ हैं -बधाई !
ReplyDeleteबहुत मज़ेदार दोहे ....
ReplyDeleteजहाँ तक अनुस्वार और अनुनासिका की बात है तो अनुनासिका का चिह्न ( चन्द्रबिन्दु ) शिरोरेखा के ऊपर आने वाली मात्राओं में नहीं लगाया जाता ।
बहुत ही सहज ................वाह !
ReplyDeleteशरद जी के दोहों ने देश की माटी की गंध और बारिश में भीगने का मज़ा याद करा दिया ... हकीकत से जुड़े ... व्यवहारिक दोहे हैं ...
ReplyDeleteकुछ लाइनें मेरे मन में भी आ गयीं जो प्रस्तुत हैं ....
सूखा हूं परदेस में, मन में है विश्वास
पत्नी बूँदें लाएगी, मिट जाएगी प्यास
(दुबई में बारिश का अता पता नहीं और पत्नी देश गई हुई है)
छम छम मेरे देश में, मतवाली बरसात
सूरज का कुछ पता नहीं, चाँद न आया रात
वाह, सुलझे और सहज..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और रोचक दोहे...
ReplyDeleteACHCHHE DOHE PADHWAANE KE LIYE
ReplyDeleteAAPKAA AABHAAR .
सहज सुंदर दोहे...सादर बधाई !!
ReplyDeleteबहुत सुंदर और मज़ेदार दोहे पढ़कर आनंद आ गया। आदरणीय शरद जी को हार्दिक बधाई
ReplyDeleteभाई तैलन्ग जी के दोहों ने मन को गुदगुदाते हुए एक सच्ची तस्वीर प्रस्तुत की जो बरसात के मौसम को बिभिन्न रूपों मे सच्चाई के साथ दिल की गहराइयों तक पहुँचाती है शरद भाई जय हो ...सूरज तकता रात भर मेरी बारी आय ....चंदा तारे हँस रहे कौन इसे समझाए ....जय हो आप की
ReplyDeleteहम-आप के दैनिक जीवन के क्षण जब रचनाकर्म का हिस्सा होते हैं तो रचनाएँ पाठकों से बतियाने लगती हैं.
ReplyDeleteशरद तैलंगजी की छंद-रचनाएँ हम-आप से बतियाती है. सुख-दुख साझा करती है. चाहे बरसात में हवाई चप्पल पहने हुओं की परेशानी हो या बरसातों में सिमेण्ट-पानी के घोल से छत में उभर आयी दरारों को भरने की क़वायद हो. या फिर, बरसाती दिनों में कपड़ों के न सूखने की टेंशन ! शरद भाई ने ऐसे कई विन्दुओं को अपनी छंद-रचना का विषय बनाया है.
हृदय से आपको बधाइयाँ.
सादर
जीवन की वास्तविकता को अपने में समाहित किये मुखरित हो रहे हैं सारे दोहे हार्दिक बधाई आदरणीय तथा आदरणीय नवीन जी का ह्रदय से आभार प्रकट करता हूँ. जिनके सत्प्रयास से एक से बढ़कर एक प्रतिभाशाली रचनाकारों के दोहे पढने का सुअवसर प्राप्त हो सका है.
ReplyDeleteआपने लिखा....हमने पढ़ा....
ReplyDeleteऔर लोग भी पढ़ें; ...इसलिए शनिवार 13/07/2013 को
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
पर लिंक की जाएगी.... आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
लिंक में आपका स्वागत है ..........धन्यवाद!
सोंधे दोहे मदभरे , सहज सादगी पूर्ण
ReplyDeleteसरल सुस्वादु लग रहे,मानों त्रिफला चूर्ण ||
दिनचर्या भर गये , जीवन दर्शन रंग
दाद हृदय से लीजिये,मित्र शरद तैलंग ||
हो सुंदरता नैन में , प्रेम हृदय के बीच
फिर तो मनभावन लगें,गोबर माटी कीच ||
कर्जदार सूरज हुआ,बचता फिरे लुकाय
अय हय हय क्या बात है,जय जय जय कविराय ||
नदिया सागर के लिए, लिये चली उपहार
शब्दहीन हूँ किस तरह, प्रकट करूँ उद्गार ?
* (टंकण त्रुटि संशोधित)
ReplyDeleteदिनचर्या में भर गये, जीवन दर्शन रंग
दाद हृदय से लीजिये,मित्र शरद तैलंग ||
चंद्रबिंदु के नियम पर आदरणीया संगीता स्वरूप जी को समर्थन.
ReplyDeleteसुंदर भाव...
ReplyDeleteयही तोसंसार है...
आदरणीय शरद तैलंग जी
बहुत अच्छे दोहे लिखे हैं , मज़ेदार भी
बधाई !
शुभकामनाओं सहित
सादर...
राजेन्द्र स्वर्णकार