30 मार्च 2013

हमने गर हुस्न और ख़ुशबू ही को तोला होता - नवीन

हमने गर हुस्न और ख़ुशबू ही को तोला होता
फिर तो हर पेड़ गुलाबों से भी हल्का होता

रब किसी शय में उतर कर ही मदद करता है
काश मैं भी किसी रहमत का ज़रीया होता
रहमत - ईश्वरीय कृपा,ज़रीया - माध्यम 

वक़्त अकेला था, मेरी नाक में कुनबे की नकेल
कम नहीं पड़ता अगर मैं भी अकेला होता

सारे ख़त उस ने कलेज़े से लगा रक्खे हैं
ये किया होता अगर मैंने - तमाशा होता

आप को आग में बस आग ही दिखती है ‘नवीन’
ये न होती तो भला कैसे उजाला होता



फाएलातुन फ़एलातुन फ़एलातुन फालुन
बहरे रमल मुसम्मन मखबून मुसक्कन
2122 1122 1122 22

25 मार्च 2013

होली के छंद, ग़ज़ल, नज़्म - नवीन

सभी साहित्य रसिकों का पुन: सादर अभिवादन और होली की शुभकामनाएँ

मन मलङ्ग, हुलसै हिया, दूर होंय दुख-दर्द|
सावन तिरिया झूमती, फागुन फडकै मर्द|

कहे सुने का बुरा न मानो ये होली का महीना है

पर्वों के गुलिस्तान "हिन्दुस्तान" में हर दिन कोई न कोई पर्व मनता ही रहता है| फिलहाल होली के पर्व ने माहौल को रंगीन बनाया हुआ है| पिछली बार की तरह इस बार भी होली के कुछ नये-पुराने रंगों [दोहे, कवित्त, सवैया, ग़ज़ल, नज़्म] के साथ आपके सामने उपस्थित हूँ|

नोक-झोङ्क भरी बातचीत – 1 [दोहे]

नायक:-
नीले, पीले, बेञ्जनी; हरे, गुलाबी लाल|
इन्द्र-धनुष के बाप हैं, गोरी तेरे गाल||

नायिका:-
रङ्गों की परवा न कर, देख दिलों दे हाल|
मैं भी लालम लाल हूँ, तू भी लालम लाल||

नायक:-
होली का त्यौहार है, कर न इसे बेरङ्ग|
साफ़ी को कस के पकड़, आ छनवा ले भङ्ग||

नायिका:-
होली के त्यौहार का, जमा हुआ है रङ्ग|
छन आएगी बाद में, घुट तो जाए भङ्ग||


नोक झोंक भरी बातचीत - २

नायक:-
गोरे गोरे गालन पे मलिहों गुलाल लाल,
कोरन में सजनी अबीर भर डारिहों|

सारी रँग दैहों सारी, मार पिचकारी, प्यारी,
अङ्ग-अङ्ग रँग जाय, ऐसें पिचकारिहों|

अँगिया, चुनर, नीबी, सुपरि भिगोय डारों,
जो तू रूठ जैहै, हौलें-हौलें पुचकारिहों|

अब कें फगुनवा में कहें दैहों छाती ठोक,
राज़ी सों नहीं तौ जोरदारी कर डारिहों||
[घनाक्षरी]

नायिका [अ]:-
फूले फूले गाल मेरे पिचकाय डारे और
अङ्गन में रङ्गन की जङ्ग सी लगाय दई

अँगिया कों छोड़ तू तौ सारी हू न रँग पायौ
अच्छे-खासे जोबन की कुगत बनाय दई

बड़ी-बड़ी बातें करीं, सपने दिखाये ढेर
शेर जहाँ बिठानौ हो बकरी बिठाय दई

नेङ्क हाथ लगते ही फूट गयी पिचकारी
ख़ैर ही मनाय तेरी इज्ज़त बचाय दई
[घनाक्षरी]

नायिका [ब]:-
पिय गाल बजाबन बन्द करौ, अरु ढीली करौ हठधर्म की डोरी
ढप-ढ़ोल-मृदङ्ग बजाए घने, झनकाउ अबै हिय-झाँझर मोरी
अधरामृत रङ्गन सों लबरेज़ तकौ तौ कबू यै निगाह निगोरी
इक फाग की राह कहा तकनी, तुमें बारहों मास खिलावहुं होरी
[सुन्दरी सवैया]


साँवरे ने होरी में बावरी सी कर डारी

नैनन सों बात कही चितचोर छलिया नें,
मुसकाय, उकसाय - बोल कें - सुकुमारी|
कमल-गुलाबन सी उपमा दईं तमाम,
माखन-मिसरी-मीठी-मादक-मनोहारी|
होरी कौ निमंत्रण पठायौ ललिता के संग,
खोर साँकरी गई इकल्ली, मो मती मारी|
देख कें अकेली मोय, प्रेम रंग में डुबोय,
साँवरे ने होरी में बावरी सी कर डारी||
[कवित्त]

साँची ही सुनी है बीर महिमा महन्तन की

इत कूँ बसन्त बीत्यौ, उत कूँ बौरायौ कन्त
सन्त भूल्यौ सन्तई कूँ मन्तर पढ्यौ भारी

पाय कें इकन्त मो सूँ बोल्यौ रति-कन्त कीट
खूब है गढ़न्त तेरे अङ्गन की हो प्यारी

तदनन्तर ह्वै गयौ मतिवन्त – रति वन्त
करि कें अनन्त यत्न बावरी कर डारी

साँची ही सुनी है बीर महिमा महन्तन की
साल भर ब्रह्मचारी, फागुन में लाचारी
[कवित्त]

लट्ठ खाय गोरिन सों घर लौट आमें हैं

महीना पच्चीस दिन दूध-घी उड़ामें और  
जाय कें अखाडें दण्ड-बैठक लगामें हैं|
 
मूछन पे ताव दै कें जङ्घन पे ताल दै कें
नुक्कड़-अथाँइन पे गाल हू बजामें हैं|
 
पिछले बरस बारौ बदलौ चुकामनौ है,
पूछ मत कैसी-कैसी योजना बनामें हैं|
 
लेकिन बिचारे बीर बरसाने पौंचते ही,
लट्ठ खाय गोरिन सों घर लौट आमें हैं||
[घनाक्षरी]

ग़ज़ल

सुस्त है कानून, कारिन्दे शरारत कर रहे हैं
सो रहा है आदमी बच्चे शरारत कर रहे हैं

कल अचानक नींद जो टूटी तो मैं क्या देखता हूँ
चाँद की शह पर कई तारे शरारत कर रहे हैं

वासता है आप को उस रात का अब आ भी जाओ
आज़ फिर उस रात के लमहे शरारत कर रहे हैं

ख़ुद ही बुलवाते हैं, और फिर पूछते हैं आये क्यूँ
आप को हम ही मिले? हमसे शरारत कर रहे हैं !!!

रस्सियाँ बल खा रही हैं उस का चर्चा तक नहीं है
शह्र भर में है ख़बर, खूँटे शरारत कर रहे हैं

रङ्गो-ख़ुशबू के लिये ही आदमी सहता है काँटे
जानते हैं ये, तभी, साले - शरारत कर रहे हैं

नर्क वाले भी इन्हें घुसने नहिन देंगे नरक में
बच्चियों के साथ जो बुड्ढे शरारत कर रहे हैं

सारा जन-जीवन शरारत की इबादत कर रहा है
डालियाँ-भँवरे, हवा-पत्ते शरारत कर रहे हैं

कम नहीं हैं आप भी, पल में बदल देते हैं सब कुछ
आप भी इन्सान से डट के शरारत कर रहे हैं

हमने हर मुश्किल को जब नज़दीक से देखा तो पाया
पायजामे चुस्त हैं, नाड़े शरारत कर रहे हैं



कविता / नज़्म
[लाला लला ललाला X 2]

चूनर पे तक चकत्ता, इत्ता बड़ा गुलाबी
कहने लगीं सहेली, वो कौन था? गुलाबी

कैसे बताए सब को, थी सोच में गुलब्बो
नज़रें चुरा के बोली, कुछ लोच में गुलब्बो

होली का पर्व है सो, पुतवा रही थी घर को
मिस्टर ने थामी कूची, मैंने गहा कलर को

दीवार पुत चुकी थी, दरवाज़ा रँग रहे थे
ठीक उस के पीछे सखियो, कुछ वस्त्र टँग रहे थे

मिस्टर तपाक बोले, इन को हटा दो खानम
मैंने कहा सुनो जी, तुम ही हटा दो जानम

कुछ और तुम न समझो, मैं ही तुम्हें बता दूँ
मैं समझी वो हटा दें, वो समझे मैं हटा दूँ

दौनों खड़े रहे थे, जिद पे अड़े रहे थे
दौनों की जिद के चलते, कपड़े पड़े रहे थे

आगे की बात भी अब, तुम सब को मैं बता दूँ
दौनों ने फिर ये सोचा, चल मैं ही अब हटा दूँ

वाँ हाथ उठाया उन ने, इत मैं भी मुड़ चुकी थी
कब जाने सरकी चुनरी, शानों पे जो रुकी थी

फिर जो बना है बानक, कैसे बताऊँ तुमको
शब्दों से सीन सारा, कैसे दिखाऊँ तुमको

हेमन्त ने अचानक, बहका दिया था हमको
कुछ ग्रीष्म ने भी सखियो, दहका दिया था हमको

बरसात की घटा ने, दिखलाया रङ्ग ऐसा
कुछ था वसन्त जैसा, और कुछ शरद के जैसा

कर याद फिर शिशिर को, दौनों हुए शराबी
इस वास्ते चकत्ता - चूनर पे है गुलाबी
इस वास्ते चकत्ता - चूनर पे है गुलाबी
इस वास्ते चकत्ता - चूनर पे है गुलाबी


हजल [रेख़ती टच के साथ]

घड़ी में याँ ठुमकता है घड़ी में वाँ मटकता है
मेरा महबूब है या कोई बे-पैंदे का लोटा है  

वो हाथी है तो है, पर उस का चेहरा चाँद जैसा है
वो जब साहिल पे चलता है, समन्दर भी उछलता है 

बहुत सम्मान देता है उसूलों को मेरा बलमा
मुहूरत शोध कर ही वो मेरे नज़दीक आता है  

बहुत ही ध्यान रखता है सफ़ाई का मेरा चिरकुट 
मुझे मिलने से पहले वो पसीने से नहाता है  

उसे लगता है बस उल्लू पे ही आती हैं लक्ष्मी-माँ
बस इस कारन से ही वो बावला 'उल्लू का पट्ठा' है


मत्तगयन्द सवैया छन्द

छुट्टन से छमिया ने कहा छिटके मत छोकरे नैन लड़ा ले
फूल सजा गजरे में गुलाब का इत्र लगा कर मूड बना ले
नौकरिया ने शरीर में जङ्ग लगा दई है तो उपाय करा ले
चङ्ग बजाय के रङ्ग उड़ाय के भङ्ग चढाय के जङ्ग छुड़ा ले


खुशियों का स्वागत करे, हर आँगन हर द्वार|

कुछ ऐसा हो इस बरस, होली का त्यौहार||

24 मार्च 2013

चन्द अशआर - कृष्ण बिहारी नूर

कृष्ण बिहारी नूर
8 नवम्बर 1926 - 30 मई 2014

हो किस तरह से बयाँ तेरे हुस्न का आलम
ज़ुबाँ नज़र तो नहीं है नज़र ज़ुबाँ तो नहीं

*

मैं जानता हूँ वो क्यों मुझसे  रूठ जाते हैं
वो इस तरह से भी मेरे क़रीब आते हैं

*

आईना ये तो बताता है मैं क्या हूँ लेकिन
आईना इस में है ख़ामोश कि क्या है मुझमें

*

मैं एक क़तरा हूँ मेरा अलगवजूद तो है
हुआ करे जो समन्दर मेरी तलाश में है

*

बेतअल्लुक़ी उसकी कितनी जानलेवा है
आज हाथ में उस के फूल है न पत्थर है

*

किस तरह मैं देखूँ भी बातें भी करूँ तुम से
आँख अपना मज़ा चाहे दिल अपना मज़ा चाहे

*

जहाँ मैं क़ैद से छूटूँ कहीं पे मिल जाना
अभी न मिलना, अभी ज़िन्दगी की क़ैद में हूँ

*

मुद्दत से एक रात भी अपनी नहीं हुई
हर शाम कोई आया उठा ले गया मुझे

*

शख़्स मामूली वो लगता था, मगर ऐसा न था
सारी दुनिया जेब में थी, हाथ में पैसा न था

*

ये किस मुक़ाम पे ले आई जुस्तजू तेरी
कोई चिराग़ नहीं, और रौशनी है बहुत

*

मैं जिस हुनर से हूँ पोशीदा अपनी ग़ज़लों में
उसी तरह वो छुपा सारी कायनात में है

*

किसी के रुख़ से जो परदा उठा दिया मैंने
सज़ा ये पाई कि दीवानगी की क़ैद में हूँ

*

अपनी पलकों से उस के शरारे उठा
ओस की उँगलियों से शरारे उठा

*

उस से अपना ग़म कह कर किस क़दर हूँ शर्मिन्दा
मैं तो एक क़तरा हूँ और वो समन्दर है

*

हज़ार ग़म सही दिल में मगर ख़ुशी यह है
हमारे होंठों पे माँगी हुई हँसी तो नहीं

*

हुई जो जश्नेबहाराँ के नाम से मन्सूब
ये आशियानों के जलने की रौशनी तो नहीं

*

हर एक पेड़ से साये की आरज़ू न करो
जो धूप में नहीं रहते वो छाँव क्या देंगे

*

जहाँ न सुख का हो एहसास और न दुख की कसक
उसी मुक़ाम पे अब शायरी है और मैं हूँ

*

ज़मीर काँप तो जाता है आप कुछ भी कहें
वो हो गुनाह से पहले कि हो गुनाह के बाद

*

हो के बेचैन मैं भागा किया याहू [हिरन] की तरह 
बस गया था मेरे अन्दर कोई ख़ुशबु की तरह

  
मैं तो छोटा हूँ झुका दूँगा कभी भी अपना सर
सब बड़े ये तय तो कर लें - कौन है सब से बड़ा


सन 2008 में राजपाल एंड संज द्वारा प्रकाशित और कन्हैयालाल नन्दन जी द्वारा सम्पादित पुस्तक "आज के प्रसिद्ध शायर - कृष्ण बिहारी 'नूर' से उद्धृत। दादा उस्ताद के कलाम को गुलाम अली, असलम खाँ, पीनाज़ मसानी, भूपेन्द्र और रवीन्द्र जैन जैसे उच्च-कोटि के शायरों ने अपना स्वर दिया है।


दादा उस्ताज़, प्रणाम।

23 मार्च 2013

अब यक़ीनी लग रहा है घर में नन्हा आएगा - योगराज प्रभाकर

फेसबुक के शुरुआती दौर में जब मैं हाथ-पाँव मार रहा था ऐसे में आदरणीय योगराज भाई जी ने मुझे फेसबुकिया होने से बचाया। छंद और ग़ज़ल दौनों से मुहब्बत करने वाले भाई योगराज जी ने इस तरह और भी कई रचनाधर्मियों की उँगली थामी। पिछले कई महीनों से भाई योगराज जी स्वास्थ्य संबन्धित समस्याओं से जूझ रहे हैं। आइये हम परमपिता परमेश्वर से उन के शीघ्र स्वास्थ्य-लाभ हेतु प्रार्थना करते हुये उन की चंद ग़ज़लें पढ़ें:- 

[1]
मेरे बच्चों को खाना मिल गया है,
मुझे सारा ज़माना मिल गया है !

कि जबसे तेरा शाना मिल गया है,
मेरे ग़म को ठिकाना मिल गया है !

परेशानी पड़ौसी की है बस ये

22 मार्च 2013

ज़ुल्मत की रह में हर इक तारा बिछा पड़ा है - नवीन

ज़ुल्मत की रह में हर इक तारा बिछा पड़ा है
और चाँद बदलियों के पीछे पड़ा हुआ है

फिर से नई सहर की कुहरे ने माँग भर दी
और सूर्य अपने रथ पर ख़्वाबों को बुन रहा है

नींदें उड़ाईं जिसने, उस को ज़मीं पे लाओ
तारों से बात कर के किस का भला हुआ है

मिटती नहीं है साहब खूँ से लिखी इबारत
जो कुछ किया है तुमने कागज़ पे आ चुका है 

जोशोख़रोश,जज़्बा; ख़्वाबोख़याल, कोशिश
हालात का ये अजगर क्या-क्या निगल चुका है

जब जामवंत गरजा हनुमत में जोश जागा
हमको जगाने वाला लोरी सुना रहा है

बहरे मज़ारे मुसम्मन अखरब
मफ़ऊलु फ़ाएलातुन मफ़ऊलु फ़ाएलातुन

२२१ २१२२ २२१ २१२२

21 मार्च 2013

ब्रज की होली के रसिया

ब्रज की होली के रसिया

कान्हा पिचकारी मत मार
मेरे घर सास लडेगी रे।
सास लडेगी रे मेरे घर ननद लडेगी रे।

सास डुकरिया मेरी बडी खोटी,
गारी दे ने देगी मोहे रोटी,
दोरानी जेठानी मेरी जनम की बेरन,

17 मार्च 2013

आसमाँ तेरी ख़लाओं से गुज़र मेरा भी है - नवीन

आसमाँ तेरी ख़लाओं से गुज़र मेरा भी है
रौशनी जैसा फ़साना दर-ब-दर मेरा भी है

मैं नहीं उड़ता तो क्या? ख़ाहिश तो उड़ती है मेरी
हर परिन्दे में जड़ा एकाध पर मेरा भी है

उसका दरवाज़ा मेरी सूरत नहीं पहिचानता
बावजूद इस के मिरे भाई का घर मेरा भी है

या तो जन्नत खोल दे, या फिर ज़मीं को भूल जा
तू ही तो मालिक नहीं रुतबा इधर मेरा भी है

मैं नहीं तो वो नहीं और वो नहीं तो तू नहीं
ध्यान रखना चाँदनी तेरा क़मर मेरा भी है

कोई भी रस्ता नहीं बनता है पत्थर के बग़ैर
मख़मली राहों में तेरी कुछ हुनर मेरा भी है

नूर के रुतबे को यूँ तो कौन पहुँचेगा ‘नवीन’

हाँ मगर अंदाज़ थोड़ा कारगर मेरा भी है

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

हसीनों की तरह से पेश आती है सभी के साथ - नवीन

हसीनों की तरह से पेश आती है सभी के साथ।
हवा मिलती है सब से पर नहीं टिकती किसी के साथ॥



कहाँ रह पाते हैं इनसाँ हमेशा रौशनी के साथ।
हज़ारों हस्तियाँ रुख़सत हुई हैं बेबसी के साथ॥

 
हमें अपनों ने लूटा है मगर इसमें अजब क्या है।
ग़ज़ब ये है कि ये क़िस्सा जुड़ा है हर किसी के साथ॥



अवध की शान के सदक़े मगर ये भी हक़ीक़त है।
बुरा बरताव करती है रियाया१ जानकी के साथ॥



न जाने क्यों हमीं को चाहिये हर पल सुकूनोचैन।
ये दुनिया तो सँवरती जा रही है खलबली के साथ॥



कन्हैया बस तुम्हारा नाम ही जपती रही राधा। 
मगर तुम ने तो खेला खेल भोरी-भामरी के साथ॥



तमाम आलम२ बँटा हो जैसे दो ही दायरों में बस।
अगर आवारगी के संग या बेचारगी के साथ॥

 
सभी को याद है "जीना यहाँ मरना यहाँ"* अब तक।
नसीहत कारगर होती है अक्सर दिल्लगी के साथ॥



भटकती ज़िन्दगानी हो कि हों लहरें समुन्दर की।
पलट कर भी पलट पातीं नहीं ज़िंदादिली के साथ॥





१ जनता, पब्लिक  २ संसार, लोगबाग
* 'मेरा नाम जोकर' फिल्म में राज कपूर पर फिल्माया गया गाना "जीना यहाँ मरना यहाँ इस के सिवा जाना कहाँ"




:- नवीन सी. चतुर्वेदी

जब भी सर चढ़ के बहा है दरिया - नवीन

जब भी सर चढ़ के बहा है दरिया
सब की आँखों में चुभा है दरिया

आब को अक़्ल भी होती है जनाब
कृष्ण के पाँव पड़ा है दरिया

ख़ुद-ब-ख़ुद अपनी हिफ़ाज़त करना
राम को लील चुका है दरिया

बेकली से ही उपजता है सुकून
जी! सराबों का सिला है दरिया

बाक़ी दुनिया की तो कह सकता नहीं
मेरी धरती पे ख़ुदा है दरिया

ख़ुद में रखता है अनासिर सारे
एक अजूबा सा ख़ला है दरिया

:- नवीन सी. चतुर्वेदी 

बहरे रमल मुसद्दस मखबून मुसककन
2122 1122 22

फ़ाएलातुन फ़एलातुन फ़ालुन