11 अक्तूबर 2012

दोहा छंद वाली समस्या पूर्ति - शंका समाधान

नमस्कार

दोहा शब्द कानों में पड़ते ही जो दोहे हमारी स्मृतियों से झाँकते हैं वो अमूमन ये या इस प्रकार के होते हैं

कबिरा खड़ा बजार में, माँगे सब की ख़ैर
नहिं काहू सों दोसती, ना काहू सों बैर

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय
टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ पर जाय


साधू ऐसा चाहिये, जैसा सूप सुभाय
सार सार को गहि रहे, थोथा देय उड़ाय
और भी कई इस तरह के दोहे हैं जो दोहों के पर्याय बन चुके हैं। ग़ौर से देखने / पढ़ने पर हम पाते हैं कि इन दोहों में नीति या सीख का स्वर मुखर हो कर ध्वनित हो रहा है। वेदना का स्वर या तो नहीं है या बहुत कम। अपवाद छोड़ दें तो पिछले कई दशकों से नीतिपरक दोहे ही लिखे जा रहे हैं, फिर वो हरियाली पर हों, धूप पर हों, वनस्पतियों पर हों या किसी और पर। वेदना का स्वर दिन-ब-दिन कम होता जा रहा है; जीवन में से भी और काव्य में से भी। अनुभूतियाँ अक्सर ही बगलें झाँकती हुई मिलती हैं। एहसास का स्थान शब्द सज्जा ने ले लिया है। आंशिक रूप से सहमत हुआ जा सकता है कि कविता नारा या चुटकुला बन रही है। पर आज़ भी ऐसे अग्रज हैं जो हमें सही राह दिखाने के लिये सदैव उद्यत हैं। शुरुआती दौर में मेरी रचनाओं में भी वेदना का स्वर गौण हुआ करता था, अब कभी-कभी, कहीं-कहीं, थोड़ा-थोड़ा मुखर होने लगा है। इस तत्व के महत्व को महसूस करने के बाद इस बार की समस्या-पूर्ति में कुछ संकेत लिये गये जिन में मानवीय संवेदनाओं, अनुभूतियों एवं विशिष्ट अभिव्यक्तियों पर काम किया जा सके। इस उद्देश्य के साथ ही ये सात संकेत दिये गये:-
  1. ठेस
  2. उम्मीद
  3. सौन्दर्य
  4. आश्चर्य
  5. हास्य-व्यंग्य
  6. वक्रोक्ति
  7. सीख
घोषणा के उपरान्त सदैव की भाँति मंच के सहयोगियों / सहभागियों ने अपने दोहे भेजना शुरू कर दिया। ये वास्तव में ख़ुशी की बात है कि मंच के सहयोगी / सहभागी हर साहित्यिक अभियान में अपना यथेष्ट प्रस्तुत करने के लिये सदैव तत्पर रहते हैं। इन दोहों पर जब हम सरसरी नज़र डालते हैं तो पाते हैं कि इन में भी नीति का स्वर ही अधिकतर मुखर रूप में आ रहा है। कुछ साथियों से मेल / फोन के ज़रिये बात हुई, कुछ ने महसूस किया भी, और कुछ ने एक अच्छा प्रस्ताव दिया क्यूँ न उदाहरण के साथ स्पष्ट किया जाये कि कौन सा दोहा किस संकेत पर और क्यूँ बैठता है। मंच अपने दायित्व का निर्वाह करते हुये कुछ उदाहरण पेश करता है और आप सभी से भी निवेदन करता है कि इस चर्चा में शरीक हों। एक बात और भी स्पष्ट करना ज़ुरूरी है कि संभव है कि इन दोहों में शिल्प को ले कर कुछ उन्नीस जैसा हो इसलिये हम इन दोहों से संकेत प्राप्त करने भर का प्रयास करें।
केशव केसन अस करी जस अरि हू न कराय
चन्द्र वदन मृग लोचनी बाबा कहि-कहि जाय

रात गँवाई सोय के, दिवस गँवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कौड़ी बदले जाय ॥

घर को खोजें रात दिन घर से निकले पाँव
वो रस्ता ही खो गया जिस रस्ते था गाँव॥
ध्यान से पढ़ें इन दोहों को। एक पूरा कथानक है इन में और निष्कर्ष में ठेस का स्वर मुखर हो रहा है। पहला दोहा केशव का है जिस में उन की पीड़ा है कि बालों ने वो किया जो कि दुश्मन भी न करे [पहली पंक्ति में जिज्ञासा उत्पन्न की गई], क्या किया? ये किया कि चाँद जैसे मुखड़े और हिरनी जैसी आँखों वाली मुझे बाबा कहती है [निष्कर्ष / अर्थ विस्फोट]! तो ये है कवि की टीस या ठेस। सुनते / पढ़ते ही मुँह से वाह निकली कि नहीं?
दूसरे दोहे में कबीर पहली पंक्ति में जिज्ञासा उत्पन्न करते हैं – सो-सो कर तो रात गँवा दी और खा-खा कर दिन..... अगली पंक्ति का अर्थ विस्फोट / निष्कर्ष देखिये “ हीरा जैसा अनमोल जीवन कौड़ियों के बदले जा रहा है”। समय का मोल समझने वाले जातक के दिल के दर्द का स्वर मुखर है इस दोहे में।
तीसरे दोहे में निदा फ़ाजली क्या कहते हैं आप आसानी से असेस कर सकते हैं। अब एक और दोहा:-
कागा सब तन खाइयो, चुन चुन खइयो माँस
दो नैना मत खाइयो पिया मिलन की आस
शायद दोहों के इतिहास में सब से लंबी दूरी करने वाला जनप्रिय दोहा है ये। 'शायद' इसलिये कि बहुश्रुत के अनुसार यह ग्यारहवीं सदी वाले बाबा फ़रीद खान का दोहा है। इस के तुकांत की कमी [माँस – आस] को हम फिलहाल इग्नोर कर रहे हैं। इस दोहे में आप पायेंगे विरह की वेदना, प्रेम की अनुभूति परंतु जो स्वर यहाँ मुखर है वो है उम्मीद का। जातक की उम्मीद है कागा उस के दो नैनों को न खाये क्यूँकि उन में पिया से मिलने की आस है।
साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधु न भूखा जाय ॥ [कबीर]
हालाँकि इसे नीति का दोहा माना जाता है परंतु इस दोहे में भी आस यानि उम्मीद का स्वर ही मुखर है। अति सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर उपरोक्त दो दोहों में विनय का स्वर भी मिलेगा आप को।
अब तीन दोहों के माध्यम से हम सौन्दर्य के दोहों का उदाहरण समझने का प्रयास करते हैं:-
गोरे मुख पै तिल बन्यो, ताहि करौं परनाम।
मानो चंद बिछाइकै, पौढ़े सालिगराम॥ [बिहारी]

बिन गुन जोबन रूप धन, बिन स्वारथ हित जानि।
सुद्ध, कामना ते रहित, प्रेम सकल रसखानि॥ [रसखान]

तरुवर शाखा पात पर, नूतन नवल निखार।
लाल गाल संध्या किए, दस दिश दिव्य बहार।। [संजीव वर्मा सलिल’]
भरे-पूरे कथानक, सीधे भाव-सम्प्रेषण और अर्थ-विस्फोट के साथ ऊपर के तीनों दोहे सौन्दर्य / खूबसूरती का बखान कर रहे हैं। जहाँ एक ओर बिहारी के दोहे की कल्पना अद्भुत है वहीं रसखान के दोहे का कथ्य-सम्प्रेषण बहुत प्रभावित करता है। अमूमन सौंदर्य का विवेचन करते वक़्त कहा जाता है कि ये है, वो है, ऐसा है, वैसा है वगैरह-वगैरह। पर यहाँ रसखान द्वारा विवेचित प्रेम  का सौन्दर्य बता रहा है कि ये-ये न हो। अपने आप में अनूठा उदाहरण है ये दोहा। एक्च्युअली सच बोलें तो हमें सिर्फ़ पढ़ने की बजाय थोड़ा समझने का प्रयास भी करना चाहिये।
अब वो उदाहरण आ रहे हैं जिन के बारे में सब से अधिक माथापच्ची महसूस हो रही है। पहले आश्चर्य वाले दोहे लेते हैं :-
मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दिल ने दिल से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार॥

सीधा साधा डाकिया जादू करे महान
इक ही थैली में भरे आँसू अरु मुस्कान ॥

बच्चा बोला देखके मस्जिद आलिशान
अल्ला' तेरे एक को इत्ता बड़ा मकान॥

कहति नटति रीझति खिजति मिलति खिलति लजि जात।
भरे भौन में होत हैं, नैनन ही सों बात॥
पहले तीन दोहे निदा साहब के हैं और चौथा महाकवि बिहारी का। निदा साहब के पहले दोहे में बेशक़ दर्द है, परंतु जो स्वर मुखर हो रहा है वो है आश्चर्य का। बिना चिट्ठी या बिना तार [Telegram] के दो दिलों में होने वाली बात का अच्छा उदाहरण दिया गया है, और ये वाक़ई मानव जीवन से जुड़ी आश्चर्य की बातों में से एक अति महत्वपूर्ण बात है। दूसरा दोहा नीति की बात अवश्य कर रहा है पर यहाँ भी कथानक आश्चर्य के स्वर को ही मुखर कर रहा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये बड़ा ही प्यारा दोहा है। निदा साहब के तीसरे दोहे के आश्चर्य का स्वर उन के उपरोक्त तीनों दोहों में सर्वोत्कृष्ट है। ये इसलिये लिखा जा रहा है कि आश्चर्य के उदाहरण समझने के इच्छुक रचनधर्मियों को अच्छा, अधिक अच्छा और बहुत अच्छा जैसा संकेत भी मिल सके। बिहारी का उपरोक्त दोहा आश्चर्य की पराकाष्ठा है। अतिशयोक्ति नहीं है, सिर्फ और सिर्फ सीधा-सादा आश्चर्य है, मीठी-मीठी अनुभूति के साथ।
अब चलते हैं वक्रोक्ति की तरफ़। साहित्यकारों ने वक्रोक्ति के कई भेद-विभेद किए हैं। परंतु जैसा कि मैं पहले भी कभी कह चुका हूँ कि हम जमात दर जमात आगे बढ़ रहे हैं, सीधे पीएचडी / डी लिट के लेवल पर छलांग नहीं लगानी, सो इस बार सहज रूप से समझ आ जाने वाली वक्रोक्ति पर काम कर रहे हैं। वक्र + उक्ति = वक्रोक्ति। वक्रोकित यानि टेढ़ी / उल्टी बात वो भी तर्क संगत। आइये कुछ उदाहरण देखते हैं:-
या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होइ॥
स्याम यानि काले रंग में डूबने वाले को तो काला होना चाहिए, परंतु कवि ने तर्क दे कर समझाया कि चित्त जितना श्याम [काले] रंग में डूबेगा उतना ही उज्ज्वल होगा।यहाँ श्लेष का भी बड़ा ही अनुपम प्रयोग किया है कवि ने। श्लेष श्याम के दो अर्थ उत्पन्न कर रहा है, श्याम यानि कृष्ण और श्याम यानि काला - श्याम का रंग काला - इस तरह बहुत ही उत्कृष्ट वक्रोक्ति का उदाहरण सिद्ध होता है ये दोहा।
तंत्रीनाद, कवित्तरस,  सरस रास रतिरंग।
अनबूड़े बूड़े, तरे - जे बूड़े सब अंग।। 
डूबने वाला तो डूब ही जाता है, पर यहाँ कवि की कल्पना ने वक्रोक्ति के सहारे न डूबने वाले को डुबा दिया और सर्वांग डूबने वाले को पार लगा दिया। वक्रोक्ति हमारी रचना क्षमता तथा कल्पना-शक्ति की परिचायक साबित होती है।  
हास्य-व्यंग्य या सीख के दोहे लिखने में तो हम लोग पहले से ही एक्सपर्ट हैं सो उन के उदाहरण की आवश्यकता महसूस नहीं हो रही।

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अब कुछ बातें रचना प्रक्रिया के संदर्भ में। मुझे लगता है कि यदि हमें ठेस पर दोहा लिखना है तो हमें फ़ुरसत के चंद लमहात तलाशने के बाद आँखें बंद कर अतीत की गुफ़ाओं में विचरण करते हुये उन घटनाओं [घटना का चयन आप को ही करना है, कौन सी सब से अच्छी रहेगी अर्थ विस्फोट के लिहाज़ से] को याद करना चाहिये जब हमारे दिल ने टीस महसूस की, हमारा दिल दुखा। और बस उस घटना को संभवत: संकेतों के ज़रिये दोहे में उतार देना चाहिये। घटना के दो पंक्तियों में आ जाने के बाद फिर शिल्प, सम्प्रेषण और अर्थ विस्फोट पर ग़ौर करना चाहिये। और बस......हो गया। वैसे तो रचनाधर्मी अपनी-अपनी रुचि अनुसार कुछ-कुछ ऐसा ही करते हैं, पर जो इस प्रक्रिया से अनभिज्ञ हैं वो आज़मा कर देख सकते हैं।
इस आलेख के बाद कुछ संशय रहना तो नहीं चाहिये, परन्तु फिर भी यदि कुछ अनकहा रह गया हो तो पोस्ट पर कमेंट्स के माध्यम से हम लोग और भी डिटेल में बतिया सकते हैं।

33 टिप्‍पणियां:

  1. या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।
    ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होइ॥

    स्याम यानि काले रंग में डूबने वाले को तो काला होना चाहिए, परंतु कवि ने तर्क दे कर समझाया कि चित्त जितना श्याम [काले] रंग में डूबेगा उतना ही उज्ज्वल होगा।यहाँ श्लेष का भी बड़ा ही अनुपम प्रयोग किया है कवि ने।

    यहाँ स्याम ( काले ) रंग का तात्पर्य श्याम ( कृष्ण ) से है ....

    बहुत गहनता से सारे दोहों का विश्लेषण किया है .... नि: संदेह यह शृंखला बहुत कुछ समझने में सहायक होगी । आभार

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  2. इस पोस्ट से बहुत सारी बातें स्पष्ट हो गई हैं, जो दोहे लिखने में बहुत सहायक सिद्ध होंगी। ठेस, आश्चर्य और वक्रोक्ति में अब कोई संशय नहीं रहा। बहुत बहुत धन्यवाद नवीन भाई का इस विस्तृत पोस्ट के लिए।

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  3. आपसे कुछ अनकहा नहीं रहा। पाठकों का दोहा लिखना बाकी रहा।

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  4. सहमत नहीं --नवीन जी..
    --जिन दोहों में आपने ठेस, आश्चर्य ,सौंदर्य का भाव बताया है ..वह सटीक प्रतिध्वनि नहीं है ...
    १---बाबा कहि ---में आवश्यकता नहीं कि ठेस लगी हो कवि को अपितु हैरानी व आश्चर्य भी हो सकता है---टीस व ठेस में अंतर होता है... अतः यह तर्क लगाना कि ठेस का दोहा है सही नहीं है...रात गंवाई व घर ..--में भी ठेस नहीं अपितु अनुभव द्वारा नीति-उपदेश ही है...
    २.-----बिन गुन ...में प्रेम की महत्ता है सौंदर्य कहाँ है ...तरुवर में प्रकृति सौंदर्य है...सौंदर्य नहीं |
    ---मैं रोया...आदि में आश्चर्य कहाँ वस्तु-स्थिति वर्णन है..
    ---- इसी प्रकार ..या अनुरागी...श्लेष एवं विरोधाभास अलंकार है.. वक्रोक्ति कहाँ है ...

    ---मेरे विचार में 'कागा... वाला दोहा...जायसी का है, पदमावत से | हाँ इसमें उम्मीद का भाव स्पष्ट है...

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  5. @ आचार्य जी, चरण वंदन।

    पूरा पाठ पढ़ लिया है। बहुत सी बातों के लिए आपने अच्छे से निर्देश भी किया है। नए और पुराने दोनों काव्य-अभ्यासियों के लिए यह बहुत लाभदायक सिद्ध होगा।

    गुरुवर, आजकल की छंदोबद्ध कविता पहले की अपेक्षा कमतर क्यों लगती है? -- इसके कारणों पर विचार किया। और इस सम्बन्ध में स्पष्टीकरण को बाध्य हूँ, यदि मेरे बताये कारण 'नाच ना आये आँगन टेढा' को चरितार्थ करते हों तो भी बताइयेगा 'ऐसा क्यों नहीं?' :

    — अब के लेखक कविता में खड़ी बोली को ही अहमियत देने कारण से भावों को व्यक्त करने में उतने स्वतंत्र नहीं होते जितने की अवधी और ब्रज भाषा वाले। एक ही काल में एक ही क्रिया के एकाधिक रूप (तिर्यक रूप) बाक़ी बोलियों में देखे जा सकते हैं।

    — खडी बोली पर उसका व्याकरण अनुशासन बनाए है जबकि अन्य हिन्दी बोलियाँ ('धारा 370' जैसे) विशेषाधिकार का लाभ ले रही हैं।

    — खडी बोली के लेखक भाव व्यक्त करने में तुकांत सीमित होने के कारण से ही तुकांत को मनमाना गेयतात्मक लचीलापन नहीं दे पाते। इसलिए इस युग में बिहारी, कबीर, तुलसी, रहिमन के समकक्ष नहीं खड़े हो पाते। जो लेखक शब्दों के विभिन्न तिर्यक रूप प्रयोग में लाते भी हैं वे जबरन तुक भिडाने को लाते हैं।

    — खडी बोली में भी अच्छे मात्रिक छंद लिखे जा सकते हैं लेकिन हरिऔध, प्रसाद आदि जैसी साधना सबके बूते की बात नहीं।

    .... आज ये भी देखने को मिल रहा है जो छंद में बहुत अधिक अभ्यास कर रहे हैं वे 100 में 20-25 प्रतिशत ही स्तरीय लिख रहे हैं। शायद वे 20-25 प्रतिशत स्तरीय इसलिए भी लिख पा रहे हैं कि वे अभ्यास आकलन के हिसाब से 100 प्रतिशत कर रहे हैं।

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  6. केशव केसन अस करी जस अरि हू न कराय
    चन्द्र वदन मृग लोचनी बाबा कहि-कहि जाय
    @ मुझे प्रतीत होता है यहाँ केशव के मन स्थित 'रति स्थायी भाव' को ठेस पहुँची है और तात्कालिक अनुभावों को 'टीस' पहुँची है। 'टीस' क्योंकि स्थायी नहीं है इसलिए वह समय के साथ समाप्त भी हो सकती है। जब चंद्रमुखी केशव को 'बाबा' की बनिस्पत 'बाबू' (रसीले अंदाज़ में) बोलने लगे। :)

    केशव केश को काले करके आयेंगे तो मृगलोचनी शायद उन्हें 'अंकल' (बाबा) नहीं बोलेगी। :)

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  7. डॉ. श्याम गुप्त जी ने बहुत गहनता से विश्लेषण किया है .... साधुवाद।


    अब मैं अपनी दृष्टि से स्वानुभूत 'वक्र' उक्ति को बताता हूँ :


    मैं अपनी प्रियंवदा को गहन प्रेम में आकर 'आबू' कहता हूँ। जब वे विवाह के प्रथम वर्ष अपने मइके थीं तब मुझे कुछ महीनों बाद उनसे मिलने जाना था।


    मैंने एक 'सन्देश' जाने की पूर्व संध्या को 'अपनी' डायरी में कुछ यूँ लिखा : "कल आबू पास होऊँगा मैं।" इस पंक्ति की बार-बार दोहरावट में मन की एक गुप्त इच्छा भी ध्वनित है, जिसे कविता के मर्मज्ञ ही पहचान सकते हैं। ...... यहाँ उक्ति में वक्रता है।

    यदि इसे काव्यबद्ध करके ले आऊँ तो 'वक्रोक्ति अलंकार' माना जाए।


    शेष चर्चा कल ही कर पाउँगा ...

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  8. आ. प्रतुल जी

    आप का चरण-वन्दन मैंने सलिल जी तक पहुँचा दिया है, क्योंकि वही निर्देशक हैं इस पोस्ट के। आप वार्ता में अभिरुचि पैदा करने वाले सहभागी हैं। आप के ब्लॉग पर भूतकाल में काव्य संबन्धित कई चर्चाएँ पढ़ चुका हूँ मैं।

    आप का बहुत-बहुत आभार।

    आज मैं आप को फोन करने की कोशिश कर रहा था, पर पहले मैं उलझा रहा और फिर बाद में शायद आप का फोन। दरअसल मुझे हरिशंकर परसाई के एक व्यंग्य आलेख के बारे में आप से मालूमात लेनी थी।

    बहरहाल पोस्ट को अपना बहुमूल्य समय देने तथा अपना अर्जित ज्ञान व अनुभव हम सभी के साथ बाँटने के लिए आभार।

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  9. धर्मेन्द्र भाई इस पोस्ट के प्रणेता आप भी हैं, जिस के लिए मंच आप का आभार प्रकट करता है।

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  10. आ. संगीता दीदी प्रणाम

    'श्यामरंग' वाले दोहे पर ध्यानाकर्षण के लिए आभार।

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  11. भाई देवेन्द्र जी बहुत-बहुत आभार

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  12. आपकी असहमति समझ सकता हूँ मैं, श्याम जी। पोस्ट पर पधारने के लिए आभार।

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  13. आभार !!!!!शंका समाधान के लिए सार्थक पोस्ट|

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  14. ऋता जी आभार। आप के सुझाव पर अमल किया गया है। वक्रोक्ति और विरोधाभास को ले कर अभी बात अधूरी है, आगे भी पढ़िएगा।

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  15. आ. सलिल जी

    वक्रोक्ति और विरोधाभास को लेकर जो शंकाएँ उत्पन्न हो रही हैं, उन के समाधान हेतु विवेचन प्रस्तुत करने हेतु प्रार्थना।

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  18. १- सत्य बचन---खड़ी बोली में गेयात्मक लचीलापन नहीं है अतः उसमें काव्य-अभिव्यक्ति कठिन है और समय व उच्च साधना चाहिए ....अत्युत्तम साहित्यिक श्रेणी वाले होते हुए भी आज कितने लोगों को प्रसाद, महादेवी के गीत याद हैं, कंठस्थ हैं क्योंकि उनमें खड़ी बोली के अप्रचलित शब्द हैं जो प्रायः जन सामान्य से दूर हैं..
    २ .--प्रतुल जी मेरे विचार से तथ्य विपरीत है....ठेस तात्कालिक अनुभाव है जबकि टीस...जो स्थायी रह जाती है ..
    --केशव की अभिव्यक्ति वास्तव में ठेस नहीं अपितु टीस है जो घटना के उपरान्त स्मरण से काव्योक्ति में व्यक्त हुई कि काश मेरे बाल सफ़ेद न होते ..शिकायत मृगनयनी से नहीं अपितु काले बालों से है ....
    ३--आपके सन्देश में सीधी सीधी तीब्र हार्दिक इच्छा की अभिव्यक्ति है...वक्रोक्ति जैसी कोई बात नहीं ..

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  19. आदरणीय डॉ . गुप्त जी,


    काव्य में वक्रोक्ति का अर्थ सीमित नहीं होता :

    — बात में कैसी भी चतुराई हो जो व्यंजना और लक्षणा से अर्थ ग्रहण करवाती हो, चाहे वह ध्वनि सापेक्ष ही क्यों न हो ... उक्ति की वक्रता ही कहलायेगी।

    — कैसा भी बांकपन हो। या फिर विरोधाभास ही क्यों न हो। वस्तुजगत में आप शीर्षासन (उलट) कर सकते हैं, पीठ कर (पलट) सकते हैं, तकिये के खोल की तरह अन्दर का बाहर कर सकते हैं। सर्पिल रूप दे सकते हैं। किन्तु उक्ति में यह सब कहने की चतुराई पर निर्भर करता है या फिर थोड़े बहुत शिल्प के हेर-फेर पर निर्भर करता है। ....

    'वक्रोक्ति अलंकार' 'वक्रोक्ति सम्प्रदाय' तो है नहीं .... यदि आप किसी स्पष्ट उदाहरण से बात स्पष्ट करें तो हम सब जिज्ञासुओं का संशय दूर हो।


    आपके लिए मेरी 'वक्र उक्ति' तीव्र इच्छा हो सकती है लेकिन दूसरी या कई बार के प्रयास में समझ आने वालों के लिए वह 'वक्रोक्ति' ही होगी। :)


    'टीस और ठेस' में मैं भी काफी समय तक पशोपेश में रहा ... फिर इस निष्कर्ष पर पहुँचा :

    — केशव के मन में स्थिर रति भाव को ... 'बाबा' शब्द से ठेस पहुँची। यदि टीस पहुँची होती तो वह अपने बीते यौवन को धिक्कारते हुए नज़र आते।


    दूसरी बात से समझे हैं : एक मेकप की हुई प्रोढ़ा महिला को 'माताजी' कह दिया उसे उस बात से क्षणिक टीस होगी ... और वह टीस दोबारा तब नहीं होगी जब उसे उसी के द्वारा पुनः 'दीदी' या फिर उसका पसंदीदा संबोधन नहीं मिल जाता।

    हाँ ठेस उसके मन स्थिर 'रति भाव' को जरूर पहुँचेगी। और आप जानते ही हैं 'रति' स्थायी भाव है। :)

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  20. आ. प्रतुल जी, ठेस और टीस के बीच का बारीक अंतर हम तक पहुंचाने के लिए बहुत बहुत आभार

    कुछ अप्रत्याशित या अनपेक्षित घटित हो जाने पर दिल को ठेस पहुँचती है, और किसी ज़ख्म में रह-रह कर होने वाले दर्द को टीस की तरह समझा जाता है..... मैं भी यही समझा था। मैं भी एक उदाहरण देने का प्रयास करता हूँ - "तूने मेरी मुहब्बत ठुकरा कर मेरे दिल को जो गहरी ठेस पहुँचाई! वो क्या कम थी? जो मेरे पड़ौसी से शादी कर के मुझे ज़िंदगी भर के लिये टीस का तुहफ़ा भी दे दिया"

    ख़ैर दोहे भेजने वालों के लिए इसे और भी आसान कर देते हैं, ठेस संबन्धित दोहे में ठेस / टीस / पीड़ा / दर्द / ग़म / तकलीफ़ / मुश्किल वगैरह वगैरह का भाव लीजिएगा, कोशिश करें कि दोहा ठेस के अधिक नज़दीक हो

    सौन्दर्य के बारे में भी और अधिक खुलासा कर देते हैं - सुंदरता सिर्फ़ श्रंगार आधारित यानि नायक / नायिका वाली ही हो ऐसा आवश्यक नहीं, सुंदर इमारत भी हो सकती है, कुदरत में भी ख़ूबसूरती होती है, सुंदरता तो किसी भी विषय-वस्तु-स्थिति-भाव वगैरह में हो सकती है, यह कवि की क्षमता और कल्पना पर निर्भर करता है कि वह अपनी रचना में वर्णित सौन्दर्य को किस तरह भाव-प्रवण तथा अधिकतम लोगों के लिए स्वीकार्य बनाता है। कुछ का असहमत होना न सिर्फ़ स्वाभाविक बल्कि आवश्यक भी होता है, तभी तो उत्तरोत्तर श्रेष्ठतर रचनाएँ सामने आती हैं।

    वक्रोक्ति को व्यंग्योक्ति से भी जोड़ कर देखा जा रहा है, यदि ऐसा है तो तो फिर आचार्यों ने व्यंग्य एवं वक्र+उक्ति नामक दो प्रावधान क्यूँ किए?

    वक्र यानि टेढ़ा या उल्टा, उक्ति यानि बात - क्या इतना पर्याप्त नहीं है? संक्षेप में वक्रोक्ति यानि उल्टी / टेढ़ी बात..... पढ़ा तो मैंने भी है भाई, पर क्या बोलूँ? वक्रोक्ति को ले कर करीब दर्जन भर विचारधाराएँ पहले से ही अस्तित्व में है, सो अपनी तरफ़ से एक और विचारधारा का बोझ दौर के कमज़ोर कंधों पर लादने के बजाय एक प्रस्ताव रखता हूँ:-

    यदि वक्रोक्ति को तथाकथित रूप में ही समझा जाना है तो हम 'वक्रोक्ति' वाले संकेत को 'विरोधाभास' कह कर ही संबोधित कर देते हैं। इस से दोहाकारों को भी आसानी तो होगी ही, हम भी समय का सदुपयोग करते हुये क्रियात्मक हो पाएंगे, वही अधिक आवश्यक भी है।

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  21. ---सही तो कहा है प्रतुल जी स्वयं आपने ही.. ..... ठेस अस्थायी भाव है आवश्यकता नहीं कि वह टीस बने ..टीस जो ह्रदयंगम होकर रह जाती है... रति स्थाई भाव हो सकता है परन्तु ठेस थोड़े ही है उसी का स्थायीकरण टीस में हो जाता है...

    ----हाँ , वक्र का अर्थ उलटा नहीं होता सिर्फ टेडा ही होता है ....
    ---- खैर यह तो भाषा व शब्द के तात्विक विज्ञान की बात है...छोड़ ही दिया जाय ...

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  22. ----यदि सामान्य समष्टिगत कथन हो विपरीतार्थक...तो विरोधाभास ...वहीं यदि किसी उपस्थित कर्ता के प्रति उक्ति हो तो वक्रोक्ति ....

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  23. कबीरा खड़ा सराय में, चाहे सबकी खैर ,

    न काहू से दोस्ती ,न काहू से वैर .
    रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय ,

    टूटे से फिर न जुड़े ,जुड़े गांठ पड़ जाय .
    एक बात और भी स्पष्ट करना ज़ुरूरी।।।।।।(ज़रूरी )...... है कि संभव है कि इन दोहों में शिल्प को ले कर कुछ उन्नीस जैसा हो इसलिये हम इन दोहों से संकेत प्राप्त करने भर का प्रयास करें।

    बहुत बढ़िया चर्चा चल रही है .चर्चा क्या व्यापक विमर्श हो रहा है .हमें आप से बस एक शिकायत है दोहों के मूल स्वरूप के साथ छेड़छाड़ न करें हमें कितने ही दोहे कंठस्थ है हमारे दौर में अन्त्याक्षरी के लिए कवि आबंटित होते थे -जैसे प्राचीन ,संत ,सूफी ,मध्य-कालीन,आधुनिक आदि .

    हीरा "जनम" अमोल था का आपने "जन्म" कर दिया

    कई का तो आपने स्वरूप ही बदल दिया .हमने शुरुआत उनके शुद्ध रूप से ही की है .

    बहर सूरत आपने हमें 1961-1963 का दौर याद दिला दिया .इस दौर में वीर रस और हास्य /श्रृंगार के कवि एक ही मच पे शिरकत करते थे .कविता कविता होती थी चुटकला या देह मटकन लटकन नहीं .देव राज दिनेश जैसे वीर रस के कवि जब मंच से गर्जन करते थे एक जोश पैदा होता था .काका हाथरसी की तो दाढ़ी भी कविता पाठ करती थी .चूड़ीदार पायजामा और कुर्ता भी .नीरज जी तो मुद्राओं से भी मार देते थे और जय पाल सिंह जी तरंग के हाथों का कम्पन तो अभी भी याद है .संतोषा नन्दजी प्रेम वर्षन करते थे .गोपाल सिंह नेपाली का गीत -मेरी दुल्हन सी रातों को नौ लाख सितारों ने लूटा हम सस्वर गाते थे .कामायनी और "आंसू" भी .

    समीक्षा और विमर्श रोचक ज्ञानवर्धक .आभार .बधाई .

    31sVirendra Sharma ‏@Veerubhai1947
    ram ram bhai मुखपृष्ठ http://veerubhai1947.blogspot.com/ शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012 आखिर इतना मज़बूत सिलिंडर लीक हुआ कैसे ?र 2012 आखिर इतना मज़बूत सिलिंडर लीक हुआ कैसे ?

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  24. आ. वीरेंद्र कुमार शर्मा जी उर्फ़ वीरुभाई नमस्कार

    आप की शिकायत दूर करने का मौक़ा देते हुये हमें मेल के माध्यम से बताने की कृपा करें कि किन-किन दोहों में अशुद्धियाँ हो गई हैं, हम उन्हें समझ कर सुधारने का प्रयास करेंगे।

    सहभागिता के लिए सहृदय आभार। आप के दोहों की भी प्रतीक्षा है।

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  25. @ आदरणीय नवीन जी, आपने मन की उलझन को सुलझा दिया ... सब में इस तरह की काबलियत नहीं होती कि वे जन-सामान्य के अनुभूतजन्य आसपास के सहज उदाहरणों से उलझे प्रश्नों को रास्ता दिखाएँ। वाह ... साधू।

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  26. @ आदरणीय डॉ. गुप्त जी,

    कठिन बातों को बहुत संक्षेप से समझाना आपको बाखूबी आता है। ... नत-मस्तक हूँ।

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  27. वक्रोक्ति-
    परिभाषा- श्रोता द्वारा वक्ता के कथन का उसके आशय से भिन्न अथवा काकु से अन्य अर्थ किये जाने पर वक्रोक्ति अलंकार होता है.
    स्पष्टीकरण- वक्रोक्ति का शाब्दिक अर्थ वक्र = टेढ़ा (विदग्धता पूर्ण) कथन है. इसमें वक्ता कोई बात किसी अभिप्राय से कहता है और श्रोता उससे भिन्न अभिप्राय अपनी रुचि अथवा परिस्थिति के अनुसार ग्रहण करता है.श्रोता विभिन्न अर्थ की कल्पना श्लेष या काकु से करता है अर्थात वक्रोक्ति अलंकार दो प्रकार का होता है-
    1.श्लेष वक्रोक्ति 2. काकु वक्रोक्ति.
    क्रमश:....

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  28. श्लेष वक्रोक्ति- इसमें शब्द के श्लेषार्थ के द्वारा श्रोता वक्ता के कथन से भिन्न अर्थ अपनी रुचि या परिस्थिति के अनुकूल अर्थ ग्रहण करता है.जैसे -
    "गिरिजे तुव भिक्षु आज कहाँ गयो,
    जाइ लखौ बलिराज के द्वारे ||
    वह नृत्य करे नित ही कित है,
    ब्रज में सखि सूर-सुता के किनारे ||
    पशुपाल कहाँ ? मिलि जाहि कहूँ,
    वह चारत धेनु अरण्य मंझारे ||"

    लक्ष्मी ने पार्वती के पति को भिक्षुक कहा. पार्वती ने श्लेष व्यंग्य से उत्तर देते हुए कहा कि भिखारी तुम्हारा पति है जो बलिराज के द्वार पर खड़ा हुआ तीन पग पृथ्वी मांग रहा होगा. लक्ष्मी ने पार्वती के पति को नर्तक कहा( शिवजी तांडव नृत्य करते हैं).पार्वती ने उनके पति को यमुना के तट पर रास करनी वाले कृष्ण को सबसे बड़ा नर्तक कह दिया. पशुपाल शिवजी का एक नाम है. लक्ष्मी पार्वती के पति को पशुपाल कहती है. पार्वती व्यंग्य से इसका अर्थ पशु चराने वाला लेकर लक्ष्मी के पति कृष्ण (कृष्ण को विष्णु का अवतार माना गया है) को ब्रज के वन में गायें चराने वाला कहती हैं.
    क्रमश:

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  29. काकु वक्रोक्ति- "इसमें वक्ता के कथन से कण्ठ ध्वनि से दूसरा अर्थ लिया जाता है." जैसे-
    "मैं सुकुमारि नाथ बन जोगू | तुमहिं उचित तप मोकहुं भोगू | राम साधु तुम साधु सुजाना | राम मातु मैं सब पहिचाना ||"
    काकु वक्रोक्ति में व्यंग्य-ध्वनि रहती है. "मैं सुकुमारि......भोगू" का सीधा वाच्यार्थ निकलता है कि मैं सुकुमारी हूँ, नाथ बन के योग्य हैं और तुमको तपस्या करना उचित हाइ और मुझे भोग करना उचित है.परंतु काकु-ध्वनि से इनका अर्थ निम्न प्रकार है-
    'जब आप वन के कठोर दु:खों को सह सकते हैं तो मैं भी इतनी सुकुमार्ब्नहीं हूँ कि वन की आपदाओं को सहन न कर सकूँ. यदि तुमको तपस्या उचित है तो मैं भी तपस्या कर सकती हूँ और भोग में पड़ी नहीं सकती. इसी प्रकार कैकेयी के कथन'राम साधु.....पहिचाना' का काकु-ध्वनि से अर्थ होगा कि 'राम साधु और तुम सुजान साधु हो और राम की माता को मैंने भली प्रकार से पहिचान लिया है अर्थात् सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हो.'
    काकु-ध्वनि से कथन का अर्थ लेने में काकु वक्रोक्ति होती है.
    (वक्रोक्ति पर जैसा पढ़ा,प्रसंगवश वैसा ही उतार दिया)

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