14 दिसंबर 2011

आस्माँ होने को था - पुस्तक समीक्षा


आसमाँ  होने को था अखिलेश तिवारी

लोकायत प्रकाशन
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एम डी रोड , जयपुर -302004 ( राजस्थान )
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बेशतर शायर गज़ल को  तलाश करते हैं लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता है कि ग़ज़ल भी किसी शायर को तलाश करती है । आस्मां होने को था”  के प्रकाशन के बाद ग़ज़ल अनिवार्य रूप से शायर अखिलेश तिवारी का और अधिक शिद्दत से इंतज़ार करेगी हर मुशायरे में हर अदबी रिसाले में हर परिचर्चा में और जहाँ जहाँ भी ग़ज़ल की बात होगी वहाँ  । 


ग़ज़ल शाइर की अभिव्यक्ति और अनुभूति की  नदी होती है इसका सफ़र शाश्वत सत्य के  समन्दर की ओर है यानी पानी का गहरे पानियों की ओर सफ़र । शाइर की अभिव्यक्ति  एक मुसल्सल तिश्नगी है जो सैराब होना चाहती है  और मुख़्तलिफ़ मिज़ाज  की ज़मीनों पर खुद की आज़माइश कश्मकश और ज़द्दोज़हद  करती रहती है इस प्रक्रिया मे यह अपने किनारों को काटती रहती है और नि:सन्देह अपने संसर्ग में आने वाली ज़मीनों को उर्वरता , नमी और वह भीगा अहसास दे जाती है जो कि हर व्यक्ति को  दरकार होते  हैं ।यह पुस्तक अन्य पुस्तकों से इस मायने में भिन्न है कि इसका प्रकाशन औपचारिकता भी थी और आवश्यकता भी । यह पुस्तक औपचारिकता इसलिये है कि ग़ज़ल की दुनिया में अखिलेश का नाम जाना पहचाना और सम्मान के साथ लिया जाने वाला नाम है क्योंकि अखिलेश की ग़ज़लें पिछले 15 -16 बरसो से पत्रिकाओं मुशायरों और अदब के अन्य मंचों दूरदर्शन आकाशवाणी इत्यादि में पूरे शबाब और असर के साथ गूँजती रही हैं।  यह  पुस्तक आवश्यक इसलिये थी  कि यह इनका पहला संकलन है  और अदबी सफ़र  के मरहलों में इंतख़ाब शुमार होते हैं और मंज़िले- मक़्सूद  पर आपका दीवान तैयार होता है । यानी यह एक मरहला उन्होंने सर किया है । 

अपने ऊंचे मेयार , संश्लिष्ट भाषा , पुरअसर बयान और विविध रंगों के कारण पुस्तक विशिष्ट बन गयी है और लम्बे अर्से तक ग़ज़ल की दुनिया में रेखाँकित  की जायेगी । ग़ज़ल  ने अपने शताब्दियों के सफ़र के बाद अपने पुराने परम्परागत ढाँचे को तोड़ कर ज़िन्दगी के विराट क्षितिज के विविध आयामों को जब छुआ तब अपने अनुशासित व्याकरण और अपने विश्वव्यापी  पासबानों के चलते यह परम्परा न केवल  निखर गयी बल्कि  आज कोई भी इस विधा के जादू से अछूता नहीं है । चूँकि  ग़ज़ल की पाबन्दियाँ ही ग़ज़ल की शक्तियाँ भी हैं इसलिये कामिल  शायर बनने और मुक़म्मल   ग़ज़ल कहने के लिये एक तपस्या करनी पडती है जो कि समर्पण और निष्ठा चाहती है और इसकी निशान देही शायर के बयान के सिवा और कोई चीज़ नहीं कर सकती कि आपकी ग़ज़ल के प्रति आपकी निष्ठा और आपका  समर्पण किस स्तर का है इस पैमाने पर  अखिलेश की पुस्तक उनको अव्वल पाँत का शायर साबित करती है । 

उनकी ग़ज़ल ने अपना सफ़र नदी जैसा ही रखा है यह शफ्फ़ाफ़ पानियों का सफ़र   है लेकिन उनकी कामयाबी यह है कि इस नदी ने अपने किनारे काटने के सफल प्रयास किये हैं और ग़ज़ल  की रिवायत से लिया कम है और उसे समृद्ध   अधिक किया है कई परम्परागत बिम्बों को नये शेडस देने में वो कामयाब रहे हैं उनके  शेर असरदार , धारदार ,फ़िक्रो - फ़न  की ऊँचाई की नुमान्दगी करने वाले और हिन्दी उर्दू की दूरी को कम करने का सफल प्रयास करने वाले शेर साबित हुये हैं यह ग़ज़ल  की एक बड़ी कामयाबी है । इस समय ग़ज़ल के जो स्वीकार्य नाम हैं उनमें मेयार की ऊँचाई तो है लेकिन चन्द ग़ज़लों के बाद उनमें से ज़ियादातर शायरो की ग़ज़लें एक ही मिज़ाज  की पुनरावृत्ति   करती प्रतीत होने लगती हैं और इससे शायर टाइप्ड हो जाता है । लेकिन अखिलेश की ग़ज़ल  नदी बनी रही है यानी कि उन्होंने अनुशासित सीमाओं में किनारों की तफ़्तीश की है और उन्होंने इस नदी को  कहीं भी नहर नहीं होने दिया है ।  अखिलेश की पुस्तक अपनी विविधता के कारण एक सतत उत्सुकता अंत तक जगाये रखती है और उनकी अगली पुस्तक के इंतज़ार की शिद्दत जगा देती है । 

अखिलेश की ग़ज़लों में आवारा मिज़ाजी  , माज़ी , खण्डर , चिराग़   , बादल , तनहाइयाँ , नदी , आइना दरख़्त सभी डाक्यूमेण्ट्री शैली में या स्वगत संवाद शैली में सामाजिक सरोकारों , निजी रिश्तों , और दौरे हाज़िर के अलमीयों की तफ़्तीश  शिद्दते अहसास के साथ करते हैं और उसी रवानी के साथ शिद्दते अहसास तक पहुँचते भी हैं । बिम्ब विधान वैचारिक विन्यास की पैरवी भी करता है और अल्फाज़ का प्रयोग वस्तुस्थिति को प्रखर और मुखर भी बनाता है । दरअस्ल ग़ज़ल  कहने वाले ही जानते हैं कि सात  शेर की ग़ज़ल  के लिये उन्हें वस्तुत: सात किताबे तराश कर शेर में  तब्दील करनी पड़ती हैं ।  बक़ौल  अखिलेश हों उंगलियाँ फिगार तो हों  आ न जाये बाल  / ये शाइरी मुआमला शीशागरी का है। हर शेर अपनी तफ़सील में एक तवील दास्तान होता है बशर्ते पढने वाले भी अहले नज़र हों । अखिलेश की ग़ज़लों में शिल्प की जो ऊँचाई है वह ग़ज़ल का मक़सद  नहीं बल्कि मर्क़ज़े –ख़याल का  सहायक तत्व  है इसलिये उनके बेशुमार शेर अरूज़े फ़िक्रो-फ़न  की कसौटी पर खरे उतरने के बावज़ूद महज़ इतने पर नहीं ठहर जाते बल्कि अपने बुनियादी अर्थ को नुमाया करने  का मुख्य कार्य भी उसी तत्परता के साथ करते हुये दिखाई देते है इससे क़ीमती शेर बेशक़ीमती हो जाता है । सपाटबयानी में अच्छा शेर कहने वालों के शेर की रसाई तो खूब होती है लेकिन वो शेर अदब की ज़ीनत नहीं बन पाते वहीं फ़िक्रो फ़न   पर मरने वाले शायर ताजमहल तो बना लेते हैं लेकिन ये शायरी सफेद हाथी की हैसियत रखती है चन्द रिसालो में महदूद हो कर रह जाती है प्रतिनिधि शेर वही है जो अदब और अवाम दोनो में एक गहराई तक अपनी पैठ बनाये कहने की ज़रूरत नहीं कि आसमाँ होने को था के बहुत से शेर प्रतिनिधि शेर होने  की हैसियत रखते हैं 

अफ़वाह  के  झोंकों  से लरज़ती है इमारत
फिर कैसे यक़ीं आये कि बुनियाद सा कुछ है

हमारे समय की विश्वसनीयता की अस्थिरता को बहुत खूबसूरती से उभारा है ( अफ़वाह  के झोंको से लरज़ती है इमारत यह भाषा शेर में ही कही जा सकती है और शेर की यही  भाषा भी है )

घर में बाज़ार में बस्ती में गली कूचों में
चीख़ते   चीख़ते बीमार  हुयी  ख़ामोशी

ये जब तवक़्क़ो ही मिट गयी ग़ालिब क्यो किसी का गिला करें कोई का एक नया और बेहतरीन कैंवास है नाउमीदी की ज़िन्दा तस्वीर -- लेकिन बीमार”  लफ़्ज़ शेर मे एक ऐसा शेड  जोड़ रहा है जिसने शेर को लाजवाब बना दिया है ।

जाने क्यों पिजरे की छत को आसमाँ कहने लगा
वो  परिन्दा  जिसका सारा आसमाँ होने को था

पुस्तक का उनवान इस शेर से लिया गया है हम अपनी सम्भावनाओं से नितांत अपरिचित हैं अपने सीमित विश्वास तंत्र के कारण जबकि मनुष्य की परिधियाँ अनन्त तक जाती हैंइस विचार को बहुत ही बेहतरीन बिम्ब दे कर शेर मे कहा गया  है ।

ज़माने भर  से मुझे होशियार करता था
अगर्चे खुद वही मेरा शिकार  करता था

ये उन व्यक्तित्वों की ओर संकेत है जो शातिर चालाक और धूर्त हैं और भेस बदल कर शोषण की व्यवस्था में कहीं न कहीं शरीक   हैं लेकिन इस शेर की रवानी ने इसे ज़ुबान का शेर बना दिया है ।

आदमीयत का बस इक बोझ उन्हें भारी था
लादे फिरते थे जो काँधे पे खुदाई अक्सर

बदल कर फ़क़ीरों   का हम भेस ग़ालिब  // तमाशा ए  अहले करम देखते हैं जहाँ ग़ालिब  पड़ताल का अंजाम नहीं बताते सिर्फ “ तमाशा”  लफ़ज़ से आहट भर  देते है वहीं अखिलेश का शेर निष्कर्ष तक पहुँच गया  है ।

रोज़ बढती जा रही इन खाइयों का क्या करें
भीड़  में उगती हुयी तनहाइयों का क्या करें

एक मौसम भूख का जीते रहे जो उम्र भर
वो मचलती रुत जवाँ पुरवाइयो का क्या करें

इन अश आर की आसानी और वैचारिक सामर्थ्य मिलकर इन्हें इनकी भाषा और विचार से भी आगे का दर्ज़ा  देती है ।

मुहब्बत की निशानी ढूँढता हूँ
मैं सहराओ में पानी ढूँढता हूँ

बेहद आसान ज़ुबान में बेहद गहरा शेर है छोटी बहर की भी संकलन मे कुछ ग़ज़लें  है जो कि सभी ख़ासी असरदार है ।

वक्त  कर  दे  न पाएमाल मुझे
अब किसी शक्ल में तो ढाल मुझे 
 ( स्वीकृति की पीड़ा )

आज  को कल पे टालते रहना
कोई  सूरत  निकालते  रहना 
( असमर्थता को शब्दाडम्बर का जामा पहनाने वालों पर व्यंग्य )  

हम समझे थे रब का है
वो तो बस मज़्हब का है

जो कि बहुत ही जानदार शेर है क्योंकि बेशतर मज़हब ईश्वर की राह का सेतु बनने के बजाय उस रास्ते की दीवार बन गये इस शेर को कहने के लिये साहस चाहिये।  और इस साहस का अंजाम भी एक शेर मे

यही हर दौर का दस्तूर देखा
कि सूली पर चढा मंसूर देखा

अखिलेश की गज़ल के शेर परम्परा का सम्मान करते हुये ज़दीदियत के साथ चलते हैं भाषा गज़ल की स्वीकृत भाषा के बेहद नज़दीक होते  हुये भी प्रयोगधर्मिता से पूरा सम्बन्ध बनाये हुये हैं और रंगो की पैठ मंज़रकशी की ज़रूरत के मुताबिक है जिसने उनके अशआर  को प्रभावी और मोहक बना दिया है पिछले 40 बरसों से गज़ल एक भाषा तलाश रही है जो हिन्दुस्तान के अदबी हल्कों और अवाम दोनो को बराबर से स्वीकार्य हो और इसमें बशीर बद्र और निदा फाज़ली के अलावा कुछ अन्य शायर सफल रहे हैं वैचारिकता चाहे जो हो निजत्व गज़ल में स्वीकार्य नहीं होता यह इंसान , मुहब्बत , और दिल से बने किसी न किसी कैनवास पर ही कही जाती है । कहने की ज़रूरत नहीं अखिलेश की गज़ल के यही विषय हैं । 

मुलाहिज़ा हो मेरी भी उड़ान पिंजरे में
अता हुये हैं मुझे दो जहान पिंजरे में

बकौल गालिब हस्ती के मत फरेब में आ जाइयो असद // आलम तमाम हल्क़ ए दामे ख्याल है यानी कि सारा संसार ही विचार का जाल इसलिये अस्तित्व का भ्रम पालने के ज़रूरत नहीं यहाँ अखिलेश ने एक नई रदीफ़  लेकर ग़ज़ल कही है और यहाँ  पिंजरे मे  शब्द तफ़्सील में  बहु आयामी अर्थ रखता है आत्ममुग्ध दानाई की सीमितता पर तंज़ क्योंकि ज़ियादातर बुद्धिजीवी अपने विचार तंत्र में ही विचरण कर रहे हैं -

है सैरगाह भी और इसमें आबोदाना भी
रखा गया है मेरा कितना ध्यान पिंजरे में

क्या हम ईश्वरीय राजनीति के शिकार तो नहीं ?!! क्योंकि विराट के सापेक्ष पृथ्वी की परिधियाँ बेहद सीमित और बन्धनयुक्त है साथ ही शेर उन शोषित उपेक्षिताओं की ओर भी संकेत देता है जिनके जीवन के पंख  युगों से विकसित हुये मूल्यहीन मूल्यों ने इसलिये कतर दिये कि अधिकार की अनधिकृत व्यवस्था और अतिक्रमण शब्द को जामा पहनाया जा सके ।

कहने का आशय यह है कि यह शाइरी तहदार शाइरी है और तफ़्तीश  करने पर शेर का आभासी अर्थ वृहत्तर क्षितिजों तक पहुँचता है । और खुद शाइर का कहना है --

कैद  कर लेना तो आसां  है उन्हें पन्नों में
कितना  दुश्वार है लफ्ज़ों को मआनी देना

बहरहाल अल्फाज़ को खूब मानी  उन्होने दिये हैं और इस खूबसूरती से दिये हैं कि एक यादगार पुस्तक अदब को हासिल हो गयी है ।  

अगर मैं इस पुस्तक के सभी अच्छे शेर यहाँ क्वोट करूँगा तो यह पुस्तक ही यहाँ फिर से लिखनी पड़ेगी लिहाज़ा  आप से यह कहना है कि पुस्तक के बारे में तफ़्सील  में  मालूमात करने के लिये खुद शायर से मोबाइल – 91-9460434278 पर आप स्वयं सम्पर्क कर सकते हैं आपको पुस्तक से भी अधिक हासिल होगा एक ऐसे हस्सास इंसान से संवाद का सुख जिसने अदब ही नहीं अपने पाठकों और सामईन को भी बेपनाह मुहब्बत दी है

अखिलेश की शाइरी ही नहीं शायर अखिलेश भी लाजवाव इंसान हैं और जो ख़ुलूस  , ज़हानत और शाइस्तगी उनकी तबीयत और तर्बियत में है उसने उनकी शख़्सीयत को समकालीन साहित्य जगत में एक अलग और विशिष्ट पहचान दी है । मुहब्बत , दिल और इंसानियत उनकी शायरी ही नहीं अहसास और अभिव्यक्ति के भी ज़िन्दा पहलू हैं । आप उनसे बात कर के इस बात की तस्दीक़  कर सकते हैं इस एक बार फिर मोबाइल न -- 91-9460434278
प्रेम और शुभकमनाओं के साथ
मयंक अवस्थी                               
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मुझे लगता है,
अपनी ज़िंदगी का बड़ा हिस्सा
समाज को सपर्पित करने वाले अपने हमराहियों को
एक SMS भेजने की प्रथा की शुरुआत तो
हम लोग कर ही सकते हैं|
यक़ीनन,
और भी अनेक जांबाज़
साहित्य सेवा के ज़रिये समाज सेवा
की इस मुहिम में शामिल होने की
हिम्मत जुटा पायेंगे
 : नवीन सी. चतुर्वेदी

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16 टिप्‍पणियां:

  1. हमने तो उड़ने का निश्चय किया था, हमें सीमाओं में बाँध दिया गया। सुन्दर परिचय कराने का आभार।

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  2. धन्यवाद प्रवीन जी !! बहुत सुन्दर शब्द हैं आपके !!

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  3. समीक्षा बेहद संतुलित और प्रभावशाली है !
    अखिलेश जी की ग़ज़लों के तेवर बारे में काफी कुछ जानने को मिला !
    इसके लिए मयंक अवस्थी जी का शुक्रिया !
    आभार !

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  4. प्रवीण भाई थोड़े से में ही बहुत कुछ कह जाते हैं

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  5. कैद कर लेना तो आसां है उन्हें पन्नों में
    कितना दुश्वार है लफ्ज़ों को मआनी देना

    इतना सुंदर परिचय और अखिलेश जी की उम्दा शायरी से तारुफ बहुत बढ़िया है. मयंक जी आभार इस प्रस्तुति के लिए.

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  6. श्री अखिलेश तिवारी जी के पुस्तक की समीक्षा पसंद आई।
    ग़ज़ल यूं ही पुष्पित-पल्लवित होती रहे।
    शुभकामनाएं।

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  7. जाने क्यों पिजरे की छत को आसमाँ कहने लगा
    वो परिन्दा जिसका सारा आसमाँ होने को था
    अच्छी पुस्तक समीक्षा...आभार|

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  8. ज्ञांनचन्द मर्मज्ञ जी !! समीक्षा पसन्द करने हेतु हार्दिक आभार !!

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  9. नवीन जी !! आभार !! मैं आपसे पूर्णत: सहमत हूँ !

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  10. रचना दीक्षित जी !! समीक्षा आपको पसन्द आयी !! बहुत बहुत आभार !!

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  11. mahendra verma !! महेन्द्र साहब !! कृतज्ञ हूँ आपके शब्दों के लिये !!

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  12. ऋता शेख़र "मधु" जी !! अत्यंत आभारी हूँ आपके शब्दों के लिये !!

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  13. आप सभी सुधी साहित्यकारों से निवेदन है कि शायर से यदि फोन पर सम्पर्क करेंगे तो आपको बहुत अश्वस्ति मिलेगी कि जो लिखा गया है वो सच है !!

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  14. गज़ब के शेरों को सब्तक पहुंचाने और इस परिचय केलिए बहुत बहुत शुक्रिया नवीन जी ... कुछ नगीने निकले हैं आपने पुस्तक से ...

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  15. दिगम्बर नासवा साहब !! बहुत बहुत धन्यवाद अपका !!

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  16. मयंक जी, पता नहीं कैसे आपकी ये पोस्ट नज़रों में नहीं आई...अखिलेश जी की शायरी और उनके बारे में कही आपकी बातों से मैं शत प्रतिशत सहमत हूँ...अखिलेश के साथ जब भी जयपुर जाता हूँ एक गोष्ठी के माध्यम से बहुत खूबसूरत वक्त गुज़रता है...वो जितने बढ़िया इंसान हैं उतनी ही बढ़िया उनकी शायरी है...उनकी इस किताब की चर्चा शीघ्र ही मेरी किताबों की दुनिया श्रृंखला में आने वाली है...



    नीरज

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