हाइपरटेक्स्ट और आलोचना - जगदीश्वर चतुर्वेदी

[लेखक ने यह आलेख 4 साल पहले लिखा था]


हाइपरटेक्स्ट और आलोचना- इलैक्ट्रोनिक पुस्तक और कागज की पुस्तक में बहुत थोड़ा फर्क रह गया है। बल्कि सच्चाई यह है कि कागज की पुस्तक अपरिवर्तनीय होती है। इलैक्ट्रोनिक पुस्तक परिवर्तनीय होती है। इलैक्ट्रोनिक पेज को बदल सकते हैं, स्पर्श कर सकते हैं। ''नए माध्यम की विशेषता है नयी वस्तु, प्रिंट स्थिर रहता है, इलैक्ट्रोनिक पाठ स्वयं को बदलता है।'' प्रिंट सुनिश्चित है, हम जानते हैं। इलैक्ट्रोनिक किताब की खूबी यह है कि यदि इसे सुनिश्चित रूप में देखना चाहते हैं तो इसकी कीमत अदा करनी पड़ेगी। असल में इलैक्ट्रेनिक लेखन हमारी व्यक्तिगत जरूरतों को आत्मसात् करता है। जबकि प्रिंट जन-उत्पादन की जरूरतों को आत्मसात् करता है। स्क्रीन पाठ यदि देखने में अच्छा नहीं लगता तो आप इसे इच्छानुसार बदल सकते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि स्क्रीन के परिवर्तन रूप ,परिवर्तन सॉफ्टवेयर , परिवर्तनीय मीडिया के कारण भावी पीढ़ी के पास साहित्य पहुँचने में बाधा पैदा हो रही है। पुस्तक के पास पाठक होता है। वह उसका संरक्षण करता है।अनुकरण करता है। किंतु इलैक्ट्रोनिक पाठ की मुश्किल यह नहीं है। यह सरल है। इसे अपडेट कर सकते हैं। नया साफ्टवेयर बना सकते हैं। नयी प्रति तैयार कर सकते हैं। नए मीडिया में देख सकते हैं। हाइपर टेक्स्ट की विशेषता है कि इसमें लेखक और पाठक संवाद कर सकते हैं। इसे जन-उत्पादन के कारखाने सेतैयार होकर आने की जरूरत नहीं है।
 
हाइपर टेक्स्ट और हाइपर मीडिया ने अभिरूचियों का विस्फोट किया है। नए रूपों को जन्म दिया है। इन दिनों छोटे रूप और अल्प अवधि की चीजें ही स्मृति में रहती है। हाइपर टेक्स्ट में लघु कहानी पहली विधा है जो सबसे पहले आई है। इससे यह निष्कर्ष नहीं निकालना चाहिए कि हाइपर टेक्स्ट छोटा मीडियम है।इसका छोटा दिमाग है। क्षणिक उत्तेजना का माध्यम है। छोटा दिमाग पोगा पंडित का होता है वह स्क्रीन से डरता है। कुछ लोग यह तर्क देते रहे हैं कि हाइपर टेक्स्ट 'इनकोहरेंट' है।उसमें संरचना' का अभाव है। परंपरागतता का अभाव है। स्वेन बिर्किट्त्ज ने ''गुटेनवर्ग एलेगी '' में लिखा है कि '' मानवतावादी ज्ञान ... अंतत: सुसंगत कहानी की परंपरा पैदा करता है। अर्थपूर्ण अंतर्वस्तु पेश करता है। उसको विस्तार देता है।नए क्षेत्र खोलता है। खतरा तब पैदा होता है जब इसमें उभार आता है ,इसकी कहानी की कोई सीमा नहीं है।'' इसके दूसरे सिरे पर 'इनकोहरेंट उत्तर आधुनिकतावाद ' है। जो लोग कम्प्यूटर नापसंद करते हैं,परंपरावादी हैं, इससे अपरिचित हैं, वे सोचते हैं कि यह उनकी सरस्वती को भ्रष्ट कर देगा। नष्ट कर देगा। इसका असर हाइपर टेक्स्ट पर भी पड़ रहा है वह अपने को हल्का बनाता रहता है। हाइपर टेक्स्ट पर विचार करते समय साहित्यिक अतीत से मुक्त होकर सोचना होगा। साहित्यिक अतीत की यादें और धारणाएं पग-पग पर बाधाएं खड़ी करती हैं। हाइपर टेक्स्ट को कृत्रिम बुध्दि न मानकर कला रूप मानें तो ज्यादा बेहतर होगा। वेब और मल्टीमीडिया की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि यह पूर्वनिर्धारित चरित्रों पर निर्भर है। जबकि हाइपर टेक्स्ट मानवीय क्षमता पर निर्भर है। व्यक्तिगत अभिरूचि, विजडम ,कौशल आदि पर निर्भर है। हाल के वर्षों में बिल विली और टीना लार्सेन ने हाइपर टेक्स्ट के खुले जगत की चर्चा की है। इसी को मिशेल जॉय ने 'कंस्ट्रक्टिव हाइपर टेक्स्ट' कहा है। यह ऐसा कार्य है जिसे देखकर अन्य रचनाकार नया विजन महसूस करते हैं। इसमें हिस्सेदारी निभाने वाला गंभीरता से भाग लेता है। इसे हम प्रदर्शन की जगह समझें। यह बातचीत का आरामदायक स्थान नहीं है। कम्प्यूटर पर लिखी प्रत्येक चीज हाइपर टेक्स्ट नहीं है। बल्कि हाइपर टेक्स्ट वह है जिसमें पाठक के लिए लिंक संरचना दी गई हो। पाठक के लिए लिखने की जगह हो। इसे 'हास्पीटल ' कहते हैं। इस तरह के हाइपर टेक्स्ट में र्र्सशत्त लिंक होंगे। जिससे पाठक को संभावित मुश्किलों से बचाया जा सके। पाठक प्रत्येक लिंक का स्वतंत्र रूप में इस्तेमाल कर सके। प्रत्येक 'पाथ' का स्वतंत्र रूप से अनुकरण कर सके। पाठक का अतीत का चयन उसकी भावी रीडिंग में प्रभाव छोड़े। वह लौटकर 'हास्पीटल ' में आए। आरंभिक हाइपर टेक्स्ट में यह देखा जाता था कि पाठक कितनी बार लौटकर आता है। इससे हाइपर टेक्स्ट की पुष्टि होती थी। इसमें बदलाव की संभावनाएं भी पैदा होती थीं। किसी भी हाइपर टेक्स्ट में सिर्फ होम पेज होना एकदम निरर्थक चीज है। यदि वेब पर हाइपर टेक्स्ट को देखें तो पाएंगे कि कुछ चीजें क्रमानुवर्ती रूप में रखी हैं। कुछ आंतरिक लिंक हैं, कुछ मित्रों के लिंक हैं, कुछ ग्राहकों और सहकर्मियों के लिंक हैं। यह सामान्य संरचना मिलेगी।
 
हाइपर टेक्स्ट का पाठक सिर्फ पाठक ही नहीं है बल्कि सर्जक है। लेखक है। वह अपने काम को जैसा चाहे अंजाम दे सकता है। यह मूलत: उत्तर आधुनिक समझ है। हाइपर टेक्स्ट की जटिलताओं का इस समझ के आधार पर उद्धाटन संभव नहीं है। यदि पाठक ने कोई रचना लिखी है अथवा वह हाइपर टेक्स्ट में पाठक की बजाय लेखक बन जाता है तो हमें उसकी रचना की गुणवत्ता देखकर फैसला करना चाहिए कि क्या वह सृजन की कोटि में आती है ? असल में हमें अच्छी और बुरी रचना की केटेगरी से बचना होगा। असल में हाइपर टेक्स्ट के संदर्भ में हमें कला के उन नियमों की खोज करनी चाहिए जिनके आधार पर हम साहित्य के स्थापित मानकों, मान्यताओं,धारणाओं आदि को चुनौती देते हैं। हाइपर टेक्स्ट के आने से आलोचना और लेखक का अंत नहीं होगा। बल्कि ये दोनों समृध्द होंगे। यदि हम चाहते हैं कि हाइपर टेक्स्ट की परीक्षा अपनी शर्तों पर करें तो हमें कम से कम वे शर्तें बतानी होंगी। हमें अच्छे हाइपर टेक्स्ट को रेखांकित करना होगा। अच्छा हाइपर टेक्स्ट वह है जो मुद्रण से बेहतर रीडिंग अनुभव दे। हाइपर टेक्स्चुएलिटी को सिर्फ शोभा की चीज नहीं समझना चाहिए। जरूरी नहीं है कि हाइपर टेक्स्ट में साहित्य हो तो वह उच्चकोटि का ही हो। बल्कि इसकी संभावना ज्यादा है कि श्रेष्ठ या उच्च कोटि का साहित्य मुद्रित रूप में हो।
 
हाइपर टेक्स्ट की दो विशेषताएं हैं। पहली विशेषता है पाठ से पाठक संपर्क कर सकता है। दूसरी विशेषता है पाठ गैर -रेखीयता या बहुरेखीय संरचना है। ये दोनों विशेषताएं हम सबका हाइपर टेक्स्ट की ओर ध्यान खींचती हैं।

SP/2/2/4 चन्द्र दरस कों सुन्दरी, घूँघट लियो उघारि -डा. श्याम गुप्त

नमस्कार..... 

वर्तमान आयोजन में भी दो नये साथी जुड़ चुके हैं हमारे साथ। इस मञ्च पर पुराने लोग लाभान्वित होते रहते हैं और नये लोगों के लिये मार्ग प्रशस्त होता रहता है। कल अरुण जी से बात हो रही थी, उन्हों ने बड़े ही मर्म की बात कही कि हमें अपने अग्रजों से प्राप्त जानकारियाँ नयी पीढ़ी को सुपुर्द करनी है, नहीं तो यह जानकारियाँ हमारे साथ ही विलुप्त हो जायेंगी, बहुत अच्छा विचार रखा है आप ने अरुण जी। 

सन 2010 से इस मञ्च पर छन्द-सेवा शुरू होने से ले कर अब तक न जाने कितने ही बंदों ने सलाह दी कि इस से बेहतर तो आप क़िताब लिखिये, क़िताब लाइब्रेरियों में जायगी, विभिन्न सरकारी विभागों में जायगी, अकादमियों में जायगी पुरस्कार वग़ैरह का रास्ता खुलेगा आदि आदि। अब उन भले-मानुसों को कौन समझाये कि अगर लाइब्रेरियों, सरकारी विभागों में पुस्तकों के पहुँचने से कार्य-सिद्धि सम्भव थी; तो दीर्घ-काल से विभिन्न व्यक्तियों द्वारा अन्तर्जाल पर साहित्यिक प्रयत्न करने की आवश्यकता क्यूँ पड़ी। संग्रहालय और विभाग अपनी जगह हैं और अन्तर्जाल अपनी जगह। आने वाले साहित्य प्रेमियों को जानकारियाँ एक क्लिक पर मिल सकेंगी, इधर-उधर भटकने में खर्च होने वाला समय साहित्य की सेवा में लगा पायेंगे। तथा अनावश्यक रूप से उन्हें पराधीन रहने से भी मुक्ति मिलेगी।

विगत तीन सालों में जितने लोग इस मञ्च से लाभान्वित हुये हैं, स्वयं मञ्च भी लाभान्वित हुआ है, वह अब कागज़ों में दर्ज़ हो चुका है। समस्या-पूर्ति में अपनी रचनाएँ प्रस्तुत कर चुके साथियों को बताना चाहूँगा कि आप की पोस्ट्स आयोजन के उपरान्त भी निरन्तर पढ़ी जाती रहती हैं। विद्वतजन आइये आज की पोस्ट में पढ़ते हैं हम श्याम जी के दोहे:-

चन्द्र दरस कों सुन्दरी, घूँघट लियो उघारि
चित चकोर चितवत चकित, दो-दो चन्द्र निहारि

नित्य रूप रस जो पिए, प्रिय अँग-सँग रह श्याम ,
परमानन्द  मिले उसेजीवन  श्रेष्ठ  सकाम

घिरी परिजनों से प्रिया, बैठे हैं मन मार ,
पर नयनों से हो रहा, चितवन का व्यापार

माँ तेरे ही चित्र पर, नित प्रति पुष्प चढायँ
मिसरी सी वाणी मिले, मन्त्री पद पा जायँ

तेल पाउडर बेचते, झूठ बोल इठलायँ
बड़े महानायक बने, मिलें लोग हरषायँ

खींच-तान की ज़िन्दगी वे धनहीन बितायँ
खींच-तान की ज़िन्दगी, वे धन हेतु बितायँ

इक दूजे को लूटते, लूट मची चहुँ ओर
चोर सभी, समझें सभी, इक दूजे को चोर

धन साधन की रेल में, भीड़ खचाखच जाय
धक्का-मुक्की धन करे, ज्ञान कहाँ चढ़ पाय

अपनी लाज लुटा रही, द्रुपुद-सुता बाज़ार
इन चीरों का क्या करूँ, कृष्ण खड़े लाचार

ईश्वर अल्ला कब मिले हमें झगड़ते यार,
फिर मानव क्यों व्यर्थ ही, करता है तकरार

---दोहा..रौद्र, वात्सल्य, श्रृंगार .....

भौहें धनु-टंकार हैं, नैन  कटारी  बान ,
रौद्र रूप माँ ने किया, पुत्र प्रेम सनमान

ब्लॉग-जगत के अधिकतर ब्लॉगर श्याम जी से सु-परिचित हैं। बहुत सुन्दर दोहे प्रस्तुत किये हैं श्याम जी ने। पाठकों को इन दोहों में निहित रस व अलङ्कार का स्वयं आनन्द मिले इस लिये मैं कम लिख रहा हूँ। श्याम जी ने अपना काम कर दिया है, पाठक माई-बाप से प्रार्थना है कि वह अपने काम को अंज़ाम दें तब तक मैं तैयारी करता हूँ अगली पोस्ट की।

इस आयोजन की घोषणा सम्बन्धित पोस्ट पढ़ने के लिये यहाँ क्लिक करें
आप के दोहे navincchaturvedi@gmail.com पर भेजने की कृपा करें 
 
चलते-चलते अरुण निगम जी को उन की जीवन्त तथा रोचक टिप्पणियों हेतु बहुत-बहुत आभार। आप की आमद से आनन्द और बढ़ गया है। आप ने जिस अधिकार से आयोजन में देरी की शिकायत की वैसे ही अपना फर्ज़ समझते हुये रचनाओं पर अपने अमूल्य विचार भी प्रस्तुत कर रहे हैं। पुन: आभार।

SP/2/2/3 मौन साधतीं चूड़ियाँ..बिंदिया गिर गिर जाय - आदिक भारती


नमस्कार 

आयोजन के तीसरे दौर में हम पढ़ेंगे इस मंच के बयालीसवें [42] सहभागी श्री आदिक भारती साहब को। पेशे से डॉक्टर सोनीपत निवासी आदिक साहब इस से पहले वातायन की शोभा भी बढ़ा चुके हैं। ग़ज़ल और छन्द दौनों विधाओं में सिद्ध-हस्त आदिक साहब हिन्दी शब्दों से सुसज्जित ग़ज़लें [जी हाँ ग़ज़लें, गजलें नहीं] भी पेश कर चुके हैं। इस के अलावा आदिक साहब का मुझ से एक परिचय और भी है, आप मेरे गुरु भाई विकास शर्मा राज़ के शुरुआती दौर के उस्ताज़ भी रह चुके हैं।

मुशायरों तथा कवि-सम्मेलनों की यात्राओं में व्यस्त आदिक साहब ने हमारे निवेदन पर समस्या-पूर्ति के वर्तमान आयोजन के लिये दोहे भेजे हैं, आइये पढ़ते हैं आदिक साहब के दोहे :- 

दामन थामे सब्र का, बैठे हैं हम मौन
दिल से आख़िर उम्र-भर, खेल सका है कौन

लू में जले वियोग की, दो मानस दो गात
चाँद ग़ज़ल गाता रहा, छत पर सारी रात
गात - शरीर

विरह पीर परदेस में, जब प्रीतम मन छाय
मौन साधतीं चूड़ियाँ, बिंदिया गिर गिर जाय

देख किसी को कष्ट में, आँखें लेते मूँद
मानव के मस्तिष्क को, लगने लगी फफूँद

उम्र ढली तो तन-बदन, कजला गये ज़रूर
दिल है यूँ रौशन मगर, जैसे कोहेनूर

 
लू में जले वियोग की, दो मानस दो गात......... मौन साधतीं चूड़ियाँ, बिंदिया गिर-गिर जाय................. मानव के मस्तिष्क को, जैसे लगे फफूँद........... क्या बात है आदिक साहब क्या बात है, माहौल बना दिया आप ने, बहुत ख़ूब। जिस तरह जब कोई कवि शायरी करता है तो उस की शायरी में माटी की सौंधास स्पष्ट रूप से महसूस की जा सकती है, उसी तरह जब कोई शायरी करने वाला दोहा टाइप छन्द लिखता है तो उन दोहों में नज़ाकत आ ही जाती है, आदिक साहब का "चाँद ग़ज़ल गाता रहा" वाला दोहा इस बात की तसदीक़ करता है।

दोस्तो आप इन दोहों का आनन्द लीजिये, आदिक साहब को अपने सुविचारों से अवगत कराइये और मैं बढ़ता हूँ अगली पोस्ट की तरफ़। 

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SP/2/2/2 चल सजनी चूल्हा जला, बहुत हो चुकी प्रीत - मनोज कौशिक


क्रिकेट में रुचि लेने वाले बख़ूबी जानते हैं कि जब हम टिपिकल शॉट्स वाले गेम को देखते-देखते कुछ नए शॉट्स देखने के लिए लालायित होते हैं तो कभी सचिन, कभी सहवाग, कभी विराट कोहली तो कभी शिखर धवन सामने आ जाते हैं। दोहों में भी नए सुर की तलाश महसूस की जा रही है। परम्परा का सम्मान रखते हुये थोड़ी सी ताज़गी का एहसास लाज़िमी है। पिछले कुछ हफ़्तों से भाई मनोज कौशिक सम्पर्क में आए हैं। यह भी वरच्युअल रिलेशन है, शब्दों और वाक्यों से एक दूसरे के समीप आये हैं हम लोग। बक़ौल मनोज कौशिक - उन्होंने जीवन में पहली बार दोहे कहे हैं, और भाई पहली बार का यह प्रयास न सिर्फ़ ज़बर्दस्त बल्कि बड़ा ही धमाकेदार है। समस्या-पूर्ति मंच के इकतालीसवें [४१] सहभागी के रूप में अपने दोहे ले कर मनोज जी हाज़िर हो रहे हैं। आइये हम अपने परिवार के इस नये सदस्य का सहृदय स्वागत व उत्साह वर्धन करें 

भोर हुई तो बज उठा, कुदरत का संगीत
चल सजनी चूल्हा जला, बहुत हो चुकी प्रीत

फुरसत के लमहे मिलें, गिन-चुन कर दो-चार
रूप निहारूँ आप का, या देखूँ घर-बार

सूरज की कंदील ने, दिखलाया संसार
तरह-तरह के जीव और तरह-तरह के प्यार

आखिर दम सब ने कहा -  था ये बंदा नेक
साँसें गिनती रह गई, घड़ी पुरानी एक

भैया जी इस दौर में वही मूढ़ कहलाय
जो ख़ुद पी कर धूप को, पानी बाँटन जाय

आप भी संशय में होंगे चूँकि मैं भी चौंक गया था पहली बार लिखने बैठे बंदे के ऐसे दोहे पढ़ कर। पर मेधा के उदाहरण ऐसे ही होते हैं। इन दोहों की तारीफ़ में मैं सिर्फ़ इतना ही कहूँगा कि मनोज जी ने दोहा-साहित्य के मंच पर उपस्थिति दर्ज़ करवाने के लिये इस मंच को चुन कर मुझे अनुग्रहीत किया है।

तो साथियो आनन्द लीजिये इन दोहों का, आप के सुविचारों का लाभ मनोज जी तक अवश्य पहुँचने दें, तब तक मैं तैयारी करता हूँ अगली पोस्ट की।

प्रणाम...... 


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