5 सितंबर 2013

तीन ग़ज़लें - काशफ़ हुसैन गाइर

हर शाम दिलाती है उसे याद हमारी
इतनी तो हवा करती है इमदाद हमारी
इमदाद - मदद का बहुवचन [सहायताएँ]

कुछ हैं भी अगर हम तो गिरफ़्तार हैं अपने
ज़ंजीर नज़र आती है आज़ाद हमारी

यह शह्र नज़र आता है हमज़ाद हमारा
और गर्द नज़र आती है फ़रियाद हमारी
हमज़ाद - साथ पैदा होने वाला

यह राह बता सकती है हम कौन हैं क्या हैं
यह धूल सुना सकती है रूदाद हमारी
रूदाद - रोना, विलाप

हम गोशानशीनों से है मानूस कुछ इतनी
जैसे कि ये तनहाई हो औलाद हमारी
गोशा नशीन - एकान्तप्रिय, मानूस - मुहब्बत करने वाला, हिला-मिला हुआ

अच्छा है कि दीवार के साये से रहें दूर
पड़ जाये न दीवार पे उफ़्ताद हमारी
उफ़्ताद - बुरा साया के सन्दर्भ में

बहरे हजज़ मुसमन अखरब मकफूफ महजूफ
मफ़ऊलु मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन
221 1221 1221 122



मुझ से मनसूब है गुबार मेरा
क़ाफ़िले में न कर शुमार मेरा
मनसूब - प्रसिद्ध, गुबार - धूल

हर नई शाम मेरी उज्लत है
दिन बिताना ही रोज़गार मेरा
उज्लत - जल्दबाजी

ये तेरी जागती हुई आँखें
इन पे हर ख़्वाब हो निसार मेरा

कोई आता नहीं इधर फिर भी
ध्यान जाता है बार-बार मेरा

रात के साथ-साथ बढ़ता गया
इन चरागों पे एतबार मेरा
ऐतबार - भरोसा

वक़्त इतना कहाँ था वक़्त के पास
वरना करता वो इंतज़ार मेरा

नींद पर मेरी दस्तरस गाइर
और न ख़्वाबों पे इख्तियार मेरा
दस्तरस - पहुँच, इख्तियार - अधिकार

बहरे खफ़ीफ मुसद्दस मखबून. 
फ़ाएलातुन मुफ़ाएलुन फ़ालुन. 
2122 1212 22



इक दिन दुख की शिद्दत कम पड़ जाती है
कैसी भी हो वहशत कम पड़ जाती है
शिद्दत - प्रबलता , वह्शत - आदमियों से बिदकना, पागलपन, सब से अलग रहना

सहरा में आ निकले तो मालूम हुआ
तनहाई को वुसअत कम पड़ जाती है
वुसअत - विस्तार

अपने आप से मिलता हूँ मैं फुर्सत में 
और फिर मुझ को फुर्सत कम पड़ जाती है

कुछ ऐसी भी दिल की बातें होती हैं
जिन बातों को ख़ल्वत कम पड़ जाती है
ख़ल्वत - एकान्त

ज़िन्दा रहने का नश्शा ही ऐसा है
कितनी भी हो मुद्दत कम पड़ जाती है

काशफ़ गाइर दिल का क़र्ज़ चुकाने में
दुनिया भर की दौलत कम पड़ जाती है

:  काशफ़ हुसैन गाइर [पकिस्तान]
परिचय के लिये भाई अभिषेक शुक्ला का आभार 

8 टिप्‍पणियां:

  1. ये राह बता सकती है ,हम कौन हैं क्या हैं
    ये धूल सुना सकती है रूदाद हमारी ...

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  2. खूबसूरत इंतिखाब !
    तीनों गजलें न सिर्फ़ अच्छी हैं बल्कि ताज़गी का एहसास भी कराती हैं .

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति। ।

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  4. सहरा में आ निकले तो मालूम हुआ
    तनहाई को वुसअत कम पड़ जाती है ...

    हर कोई एक सहरा लिए फिरता है आज ओर उसका विस्तार कम नहीं होता ... बहुत समय बाद कुछ नए तरह के अशआर पढ़ने को मिले ... आनंद आ गया नवीन भाई ... शुक्रिया काशाफ़ साहब की गज़लों का ...

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