29 सितंबर 2013

उफ़! मुशायरों की ये हालत - साजिद घायल

दोस्तो, दुबई में एक मुशायरा सुनने का मौक़ा मिला। सही मायनों में यह मेरा पहला एक्सपीरियन्स था। इस से पहले कभी ज़िन्दगी में ऐसा कोई मौक़ा नहीं आया था। बस यू ट्यूब पर ही देखा था बुजुर्गों को शायरी पढ़ते हुये और मस्त सामईन को मस्त होते हुये। बहुत कुछ एकस्पेक्ट कर रहा था इस ख़ूबसूरत महफ़िल से, और जब मुनव्वर राणा भाई मुशायरे की निज़ामत करने वाले हों, इक़बाल अशहर शेर पढ़ने वाले हों तो एक्सपेक्टेशन और भी ज़ियादा बढ़ जाती है। 

पर वहाँ जा कर मैंने जो माहौल देखा, जो मंज़र देखा उस ने मुझे यह फ़ैसला लेने पर मज़बूर कर दिया कि यह मेरा आख़िरी मुशायरा है। आज के बाद मैं ज़िन्दगी में कभी कोई मुशायरा सुनने नहीं जाऊँगा। इस मुशायरे को क़ामयाब मुशायरा बनाने के लिये हमारी असोसियेशन की टीम ने अपनी तरफ़ से कोई कसर नहीं छोड़ी थी। यह उन की मेहनतों का और नेक-नीयती का ही नतीज़ा था जो यहाँ दूर परदेश में ऐसी महफ़िल सजी थी। शायरों / कवियों का हुजूम भी देखने लायक था। ऐसा लग रहा था मानो आसमान के जगमगाते तारे ज़मीन पर उतर आये हों। 

लेकिन जिस तरह की बेहूदगी और गंदगी से एक बड़ी जमात ने यह मुशायरा सुना है, उस ने मेरी आँखें नम कर दीं। मुनव्वर भाई तक का मज़ाक बनाया जा रहा था, एक बड़ी भीड़ को यह तक पता नहीं था कि मुनव्वर भाई हैं कौन? और उन का मक़ाम क्या है? हर शायर और ख़ास कर शायरा को इस बेदर्दी से जलील किया जा रहा था कि मैं बयान नहीं कर सकता। ऐसे-ऐसे जुमले कसे जा रहे थे मानो हम किसी मुशायरे में नहीं बल्कि किसी तवायफ़ के कोठे पर बैठे हों। अरे मैं तो कहता हूँ कि कोठों पर भी एक अदब होता होगा, यहाँ तो वह भी नहीं था। सारे भाई जो यह तमाशा देख रहे थे वो सब यू. पी. से बिलोंग करते थे। यक़ीन जानिये उन की इतनी बड़ी भीड़ होने के बावजूद मैं यह कहने पर मज़बूर हो गया एक भाई से कि "किसी की बे-इज़्ज़ती कर के आप बड़े नहीं हो जाओगे मेरे भाई " 

मैं तो इसी नतीज़े पर पहुँचा हूँ अगर 10 शेरो-शायरी से मुहब्बत करने वाले लोग हों तो सिर्फ़ वही आपस में बैठें और एक दूसरे को सुनें - सुनाएँ। इस तरह के घटिया और गिरे हुये लोगों को बुला कर मुशायरा करना उर्दू को गाली देना है,  उर्दू को नंगा कर के उस से मुजरा करवाने जैसा है। और क्या-क्या बताऊँ - सीटियाँ बजाई जा रही थीं। एक शायर............. नाम याद नहीं आ रहा ............... उन्होंने गिड़गिड़ा कर कहा भी "भाई उर्दू वैसे ही बुरे दौर से गुजर रही है, प्लीज आप सब से गुजारिश है कि सीटियाँ न बजाएँ , यहाँ कोई नौटंकी नहीं हो रही" .... मगर किसी पर कुछ भी फ़र्क नहीं पड़ा। 

क्यूँ होते हैं यह मुशायरे? क्या मतलब रह गया है ऐसे मुशायरों का? छी: मुझे तो अब घिन आ गयी है। अगर मेरी बातों से किसी के दिल को कोई चोट पहुँची हो तो मुझे माफ़ कर दीजिएगा, यह मेरी और सिर्फ़ मेरी जाती राय है............... मैं ग़लत भी हो सकता हूँ  

आबू धाबी से साजिद घायल via email - sajidghayel@gmail.com

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपका दुख जायज है !बाहर मुशायरे के कद्रदान ही नही है....

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  2. इस मुशायरे में शरीक नहीं हो सका हालांकि इससे पहले कई मुशायदे देखें हैं दुबई में ... पर वो तो ऐसे नहीं थे ... शायर की कद्र है दुबई में मुझे तो ऐसा लगा था ...

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