व्यंग्य - कुछ फेयर और हैंडसम प्रश्नोत्तर - आलोक पुराणिक

सवाल-महिलाओं के लिए फेयर एंड लवली क्रीम थी पर पुरुषों के लिए फेयर एंड हैंडसम क्रीम आयी है। क्या पुरुषों को लवली नहीं होना चाहिए। उनका काम सिर्फ हैंडसम होने से चल जाता है क्यों।

जवाब- हैंडसम का मतलब है हैंड में सम यानी रकम, तब ही पुरुष का मामला जमता है। उनका काम सिर्फ लवली होने से नहीं चलता। वैसे अब तो महिलाओं का भी हैंडसम होना जरुरी है। सिर्फ लवली के बाजार भाव बहुत डाऊन हैं। हैंड में सम हो बंदे के तो कुछ और होने की जरुरत ही नहीं है। 

सवाल-जो पुरुष फेयर एंड हैंडसम नहीं लगाते, वे क्या हैंडसम नहीं होते।

जवाब-नहीं चुपके से लगाते होंगे। बताते नहीं है, क्या पता बाद में बतायें। जैसे बरसों तक अमिताभ बच्चन की शानदार एक्टिंग देख कर सब समझते रहे कि अमिताभजी की मेहनत-समर्पण इसके पीछे है। पर उन्होने अब जाकर बताया कि वो वाला तेल, ये वाली क्रीम, ये वाला कोल्ड ड्रिंक, वो वाला च्यवनप्राश इसके लिए जिम्मेदार हैं। असली बात लोग बाद में बताते हैं जी। चुपके-चुपके कई आइटम इस्तेमाल करके महान बन जाते हैं, बाद में जैसा मौका आता है, उस हिसाब से बताते रहते हैं कि वो वाली क्रीम, वो वाला पाऊडर उनके उत्थान के लिेए जिम्मेदार है। 

सवाल-पुरुष हैंडसम हो जाये, तो क्या होता है।

जवाब-बेटा क्लियर है, ज्यादा कन्याएं उसकी ओर आकर्षित होती हैं।
सवाल-क्या पुरुष के जीवन का एकमात्र लक्ष्य यही है कि कन्याएं उसकी ओर आकर्षित हों।

जवाब-नहीं इमरान हाशमी की तमाम फिल्में देखकर पता लगता है कि पुरुषों का लक्ष्य दूसरों की पत्नियों, विवाहिताओं को आकर्षित करना भी होता है।

सवाल-मैं अगर फेयर एंड हैंडसम लगाऊं और फिर भी सुंदरियां आकर्षित न हों, तो क्या मैं कंपनी पर दावा ठोंक सकता हूं।

जवाब-नहीं, तमाम इश्तिहारों के विश्लेषण से साफ होता है कि सुंदरियां सिर्फ क्रीम लगाने भर से आकर्षित नहीं होतीं। इसके लिए वह वाला टायर भी लगाना पड़ता है। इसके लिए वो वाली बीड़ी भी पीनी पड़ती है। इसके लिए वो वाली सिगरेट भी पीने पड़ती है। इसके लिए वो वाली खैनी भी खानी पड़ती है। इसके लिए वो वाला टूथपेस्ट भी यूज करना पड़ता है। इसके वो वाला कोल्ड ड्रिंक भी पीना पड़ता है। सुंदरियों को क्या इतना बेवकूफ समझा है कि सिर्फ क्रीम लगाने भर से आकर्षित हो जायेंगी।

सवाल-बंदा सुबह से शाम तक कोल्ड ड्रिंक, क्रीम, खैनी, बीड़ी में बिजी हो जायेगा, तो फिर वह और दूसरा काम क्या करेगा।

जवाब-हां,यह सब इश्तिहारों में नहीं बताया जाता कि सुंदरियों को आकर्षित करना पार्ट-टाइम नहीं फुल टाइम एक्टिविटी है। तमाम आइटमों के इश्तिहारवालों की इच्छा यह है कि बंदा  सिर्फ एक ही काम में लगा रहे,सुंदरियों को आकर्षित करने में।

सवाल-तमाम इश्तिहार पुरुषों से आह्वान करते हैं कि वे ये खरीद कर या वो खऱीद कर सुंदरियों को आकर्षित करें, पर सुंदरियों से यह आह्वान नहीं किया जाता कि वे ये वाला टायर खरीदकर या वो वाली सिगरेट पीकर या बीड़ी पीकर या टूथपेस्ट यूज करके पुरुषों को आकर्षित करें। इसका क्या मतलब है।

जवाब –इसका यह मतलब है कि इस देश की महिलाएं बहुत बिजी रहती हैं। सुबह परिवार के लिए खाना बनाकर नौकरी करने जाती हैं। फिर नौकरी से लौटकर बच्चों का होमवर्क कराकर खाना बनाती हैं। उन्हे फुरसत नहीं है कि फोकटी में फालतू में पुरुषों को आकर्षित करती बैठें। इस देश के पुरुष निहायत ठलुए हैं, सुबह से रात तक सिर्फ सुंदरियों को आकर्षित करने के काम में लगने में उन्हे कोई गुरेज नहीं होता।

इस लेख से हमें यह शिक्षा मिलती है कि इस देश की महिलाएं बहुत ही इंटेलीजेंट और कर्मठ हैं और पुरुष निहायत ही निठल्ले और बेवकूफ हैं।
      
आलोक पुराणिक

मोबाइल-9810018799

व्यंग्य - संदेसे आते हैं, हमें फुसलाते हैं! - नीरज बधवार

एक ज़माने में ईश्वर से जो चीज़ें मांगा करता था, आज वो सब मेरी चौखट पर लाइन लगाए खड़ी हैं। कभी मेल तो कभी एसएमएस से दिन में ऐसे सैंकड़ों सुहावने प्रस्ताव मिलते हैं। लगता है कि ईश्वर ने मेरा केस मोबाइल और इंटरनेट कम्पनियों को हैंडओवर कर दिया है। पैन कार्ड बनवाने से लेकर, मुफ्त पैन पिज़्ज़ा खाने तक के न जाने कितने ही ऑफर हर पल मेरे मोबाइल पर दस्तक देते हैं! इन कम्पनियों को दिन-रात बस यही चिंता खाए जाती है कि कैसे नीरज बधवार का भला किया जाए?

कुछ समय पहले ही किन्हीं पीटर फूलन ने मेल से सूचित किया कि मेरा ईमेल आईडी दो लाख डॉलर के इनाम के लिए चुना गया है। हफ्ते भर में पैसा अकाउंट में ट्रांसफर कर दिया जाएगा। सिर्फ दो हज़ार डॉलर की मामूली प्रोसेसिंग फीस जमा करवा मैं ये रक़म पा सकता हूं। ये जान मैं बेहद उत्साहित हो गया। कई दिनों से न नहाने के चलते बंद हो चुका मेरा रोम-रोम, इस मेल से खिल उठा। इलाके की सभी कोयलें कोरस में खुशी के गीत गाने लगीं, मोर बैले डांस करने लगे। मैं समझ गया कि मेरी हालत देख माता रानी ने स्टिमुलस पैकेज जारी किया है।  

पहली फुरसत में मैंने ये बात बीवी को बताई। मगर खुश होने के बजाए वो सिर पकड़कर बैठ गई। फिर बोली...मैं न कहती थी आपसे कि अब भी वक़्त है... संभल जाओ....मगर आप नहीं माने...अब तो आपकी मूर्खता को भुनाने की अंतर्राष्ट्रीय कोशिशें भी शुरू हो गई हैं। मैंने वजह पूछी तो वो और भी नाराज़ हो गईं। कहने लगी कि आज के ज़माने में दुकानदार तक तो बिना मांगे आटे की थैली के साथ मिलने वाली मुफ्त साबुनदानी नहीं देता और आप कहते हैं कि किसी ने आपका ई-मेल आईडी सलेक्ट कर आपकी दो लाख डॉलर की लॉटरी निकाली है! हाय रे मेरा अंदाज़ा...आपकी जिस मासूमियत पर फिदा हो मैंने आपसे शादी की थी, मुझे क्या पता था कि वो नेकदिली से न उपज, आपकी मूर्खता से उपजी है!

दोस्तों, एक तरफ बीवी शादी करने का अफसोस जताती है तो दूसरी तरफ हर छठे सैकिंड मोबाइल पर शादी करने के प्रस्ताव आते हैं। बताया जाता है कि मेरे लिए सुन्दर ब्राह्मण, कायस्थ, खत्री जैसी चाहिए, वैसी लड़की ढूंढ ली गई है। बंदी अच्छी दिखती है और उससे भी अच्छा कमाती है। सेल के आख़िरी दिनों की तरह चेताया जाता है कि देर न करूं। मगर मैं बिना देर किए मैसेज डिलीट कर देता हूं। ये सोच कर ही सहम जाता हूं कि बिना ये देखे कि मैसेज कहां से आया है, अगर बीवी ने उसे पढ़ लिया तो क्या होगा?

और जैसे ये संदेश अपनेआप में तलाक के लिए काफी न हों, अब तो सुन्दर और सैक्सी लड़कियों के नाम और नम्बर सहित मैसेज भी आने लगे हैं। कहा जा रहा है कि मैं जिससे,जितनी और जैसी चाहूं, बात कर सकता हूं। बिना ये समझाए कि सुन्दर और सैक्सी लड़की के लालच का भला फोन पर बात करने से क्या ताल्लुक है। साथ ही मुझे बिकनी मॉडल्स के वॉलपेपर मुफ्त में डाउनलोड करने का अभूतपूर्व मौका भी दिया जाता है। मानो, इस ब्रह्माण्ड में जितने और जैसे ज़रूरी काम बचे थे, वो सब मैंने कर लिए हैं, बस यही एक बाकी रह गया है!

दोस्तों, ऐसा नहीं है कि ये लोग मेरा घर उजाड़ना चाहते हैं। इन बेचारों को तो मेरे घर बनाने की भी बहुत फिक्र है। नोएडा से लेकर गाज़ियाबाद और गुडगांव से लेकर मानेसर तक का हर बिल्डर मैसेज कर निवेदन कर कर रहा है कि सिर्फ मेरे लिए आख़िर कुछ फ्लैट बाकी हैं। ये सोच कभी-कभी खुशी होती है कि इतने बड़े शहर में आज इतनी इज्ज़त कमा ली है कि बड़े-बड़े बिल्डर पिछले एक साल से सिर्फ मेरे लिए आख़िर के कुछ फ्लैट खाली रखे हुए हैं। पिछली दिवाली पर शुरू किए सीमित अवधि के डिस्काउंट को सिर्फ मेरे लिए खींचतान कर वो इस दिवाली तक ले आए हैं। उनके इस प्यार और आग्रह पर कभी-कभी आंखें भर आती हैं। मगर मकान भरी आंखों से नहीं, भरी जेब से खरीदा जाता है। मैं खाली जेब के हाथों मजबूर हूं और वो मेरा भला चाहने की अपनी आदत के हाथों। वो संदेश भेज रहे हैं और मैं अफसोस कर रहा हूं। मकान से लेकर जैसी टीवी पर देखी, वैसी सोना बेल्ट खरीदने के एक-से-एक धमाकेदार ऑफर हर पल मिल रहे हैं। कभी-कभी सोचता हूं कि सतयुग में अच्छा संदेश सुन राजा अशर्फियां लुटाया करते थे, ख़ुदा न ख़ास्ता अगर उस ज़माने में वो मोबाइल यूज़ करते, तो उनका क्या हश्र होता.


नीरज बधवार - 9958506724

व्यंग्य पेड़ों से जुड़े उद्योग- एक ताज़ा रिपोर्ट - कमलेश पाण्डेय

पेड़ या वृक्ष देश के विशेष संसाधन हैं. इनका तना, इनकी छाल, शाखा और जड़ें सब देश की ही  संपत्ति हैं. पेड़ इतने उपयोगी पदार्थ हैं कि देश का इनके बिना चल ही नहीं सकता, हालांकि ये खुद बेचारे अपनी जड़ें थामे एक ही जगह तब तक खड़े रहते हैं जबतक कोई इन्हें काट कर आरा मशीन तक के सफ़र पर न ले जाए.

मनुष्य जाति के विकास में पेड़ सदियों से वरदान साबित हुए हैं. इन्हें काटने और उगाने दोनों क्रियाओं में विकास छुपा होता है. पेड़ आदमी के लिए प्रकृति और पर्यावरण से प्यार जताने का सबसे आसान जरिया हैं क्योंकि ये उनके आस-पास ही खड़े मिल जाते हैं. भारत में तो पेट-पूजा के बाद एक आम क्रिया है पेड़-पूजा. धर्म-ग्रंथों के अनुसार नन्हें-से तुलसी के झाड से लेकर विराट आकार के बरगद तक सब पूजनीय हैं. उधर आधुनिक विकास-ग्रंथों में भी लिखा है कि दो-चार पेड़ लगा देने से पर्यावरण के खिलाफ किये गए सारे पाप धुल जाते हैं. पेड़ ही आदमी के लिए गुलिस्तान रचते हैं, और पेड़ की ही किसी शाख पर बैठ कर एक उल्लू कभी-कभी उस गुलिस्तान को बर्बाद कर देता है. पेड़ शायरों के भी काम आते हैं जिनकी जुबान में इन्हें दरख़्त या शज़र वगैरह कहा जाता है. ज़ाहिर है पेड़ इश्क़-मुहब्बत को भी छाँव देते हैं. पेड़ों की छाल पर अपना नाम गोदने के अलावा प्रेमी लोग इसके गिर्द लिपटना या गाना भी पसंद करते हैं. 

पेड़ बड़े प्रेरणा-दायी होते हैं. इनके विशाल, धीर और मज़बूती से जमे रहने की प्रकृति से लोग श्रद्धानुसार प्रेरित होते रहते हैं. एक नेता को अपनी जड़ें जमा कर बैठने और भीतर ही भीतर उन्हें फैलाते जाने का आईडिया पेड़ों से ही मिलता है. उधर गरीब जनता को भी पेड़ों की डालियों पर कब्ज़ा जमाये बैठे पशु-पक्षियों के घोंसले देख कहीं भी छप्पर डाल कर झोंपड़-पट्टी बना लेने की प्रेरणा मिलती है.

पेड़ का ढांचा लकड़ी का होता है, जिसकी डालियाँ अक्सर झूला झूलने जैसे दीगर किस्म के काम आती रही हैं. पर हमारे देश का कुटीर उद्योग तो मानों पेड़ों के हर अंग का मोहताज है. हमारे मकान के चौखट-दरवाज़े से लेकर कुर्सी-टेबल-पलंग सबमें ये लकड़ी ही काम आती है. फल-फूल, पत्ते, तिनके, छालें सब आदमी किसी न किसी काम के लिए समेट लेता है. इधर पेड़ सम्बन्धी उद्योग में एक जड़ता-सी आ रही थी कि अपने देश के एक प्रदेश में पेड़ की डाल का एक नया उपयोग देखने में आया. कुछ उद्यमियों ने इन डालियों पर लड़कियां लटकाने का व्यापक स्तर पर प्रयोग कर उद्योग को नई दिशा दी. इससे वहां समाज में काफी उत्साह का माहौल पैदा हुआ है. हालांकि इस उद्यम को कानूनी मान्यता नहीं है, पर उत्साही जन इसे चोरी-छुपे उसी तरह संपन्न कर रहे हैं जैसे हमारे देश में आम तौर पर लघु-उद्योग किये जाते हैं. आखिर एक उद्योग जमाने के लिए चाहिए क्या, ज़रा सी हिम्मत और थोडा पुलिस-प्रशासन का सहयोग. सूत्रों के अनुसार प्रदेश सरकार इस नई गतिविधि में विकास की नई संभावनाएँ देख रही है. उसका मानना है कि इस उद्योग को कानूनी तौर पर प्रोत्साहन तो नहीं दिया जा सकता पर अगर कोई इसे करना ही चाहे तो कुछ विनियमन-नियंत्रण के अधीन कर ले. विकास के लिए प्रतिबद्ध और युवाओं को इसके लिए उकसाने को प्राथमिकता देने वाली सरकार मानती है कि युवाओं में काफी ऊर्जा होती है और उनकी गलतियों तक में विकास की संभावनायें छुपी होती है.

जैसा कि स्पष्ट है जिस पेड़ की डाली पर ये उद्यम किया जाता है उस पेड़ और आस-पास के इलाके के सार्वजनिक महत्त्व में ढेर सारी वृद्धि हो जाती है. इस पेड़ को उसे देखने वालों की भीड़ समेत टीवी और अखबारों पर लगातार दिखाया जाता है जिससे एक अन्यथा पिछड़े इलाके में वह एक अल्प-कालिक पर्यटन-स्थल की हैसियत पा लेता है. ये सरकार के संज्ञान में है कि कई ऐसे पेड़ों के आस-पास का स्थल मेले या पर्यटन के लिहाज से विकास के उपयुक्त नहीं होता है. इसलिए जहां-तहां इस उद्यम को संपन्न करने की बजाय यदि प्रशासन द्वारा प्राधिकृत पेड़ों को ही चुना जाय तो बेहतर होगा. इस काम के लिए हरेक जनपद में थानेदार की अध्यक्षता में एक अनौपचारिक प्राधिकरण बनाया जा सकता है. पेड़ चुनने का आधार सरल होगा- जैसे पेड़ किसी झुरमुट में न हो और उसके इर्द-गिर्द इतनी जगह हो कि बीस-तीस न्यूज़-चैनलों की गाड़ियां, दो-चार हज़ार लोगों का धरना और अफसोस जताने आये नेताओं और उनके समर्थक सब समा जाएँ. पास से कोई पक्की सड़क गुजरती हो तो ऐसे पेड़ को प्राथमिकता मिले. हमारे यहाँ सब प्रकार के उद्यमी मौजूद हैं. जैसे एक बड़ी फैक्टरी के गिर्द ढेरों छोटी फैक्टरियां उग आती हैं, यहाँ भी संभावना दिखते ही लोग काम-चलाऊ पर्यटन इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर लेंगे. अपने देश में जगह हो तो मेले और मजमें का समाँ कहीं भी बंध जाता है.

प्रदेश के शासकीय गलियारों में आशा व्यक्त की जा रही है कि वहां के युवा उद्यमी पुरुष अपने नेताओं से प्रेरणा लेकर नियमित रूप से निर्धारित पेड़ों पर लड़कियां लटकाने का उद्योग जारी रखेंगे, ताकि प्रदेश के विकास को नई दिशा और युवा की ऊर्जा को नया निकास मिल सके.

कमलेश पाण्डेय - 9868380502

दो व्यंग्य आलेख - अनुज खरे

बावलों की खातिर हमें भी वर्ल्डकप में ले जाओ रे - अनुज खरे

हमें तो जंगली टाइप इस खेल से ही ऩफरत है, का करें..। पसीना बहाने को कोई खेल कहता है तो हम उसे पूरे नब्बे मिनट तक गरिया सकते हैं चाहे दो किलो पसीना फिजूल में निकल जाए। लेकिन भाई साब गंवारूपने की बातें अपन को बर्दाश्त ही नहीं हैं। तो इस काजे हम फुटबॉल नहीं खेलता हैं..! हमें तो क्रिकेट टीम को जिताने के चक्कर में दिनभर टीवी के सामने फैले रहने का मामला ही पुसाता है। 8 घंटे बाद साला नतीजा निकले कि 5 रन से हार गए। भले ही 100-150 ग्राम खून छनक जाए। बॉल टू बॉल ब्लड प्रेशर घटता-बढ़ता रहे। घरवाले जरूरी कामों को लेकर चिल्लाते रहें। नहाने का होश न रहे। नाश्ता खाना टीवी के सामने करना पड़े। भले ही केले खाकर छिलके जेब में ही रखना पड़ें। पूरे दिन मैच देखेंगे लेकिन 90 मिनट की भाग-दौड़ नहीं सहेंगे। 

 और इस खेल में है भी क्या साहब, फुटबॉल से ज्यादा किक तो एक दूसरे को ठोंकते हैं। कदम-कदम पर कोहनियों से दूसरे खिलाड़ी की पसलियों पर डौंचे मारते हैं। पलटियां खाते हैं। गिरते हैं। खड़े हो जाते हैं। सामने वाले से भिड़ जाते हैं। अरे मैं तो कहता हूं निहायत ही जाहिल तौर तरीके हैं साब..! ऊपर से नेमार-लेमार टाइप नाम भी रखते हैं। सामने वाला भिड़ने से पहले ही दहशत में आ जाए कि कहीं मार ही न दे...इधर देखो क्या गऊछाप नाम हैं हमारे वालों के राहुल.., लक्ष्मण...नाम से ही विनम्रता की बू आती है। सादगी टपकती है। लक्ष्मण है तो आज्ञाकारी ही होगा, बताने की जरूरत है कहीं...नहीं ना..! 


इसीलिए चाहे फुटबॉल वर्ल्डकप चले या कुछ और क्रिकेट के आगे हम इतना ही सोच पाते हैं बेगानी शादी में अब्दुल्ला टाइप लोग कौन हैं जो दूसरी टीमों के लिए लगे पड़े हैं। ऊपर से इनकी डिप्लोमेसी भी देखिए साहब, फैन भी उसी टीम के हैं जो जीत रही है। कई की च्वाइस तो फाइनल तक ओपन है। जो जीतेगा उसी के संग हैंगे। मुंहअंधेरे उठकर...पता नहीं किन मैसियों के पीछे अपनी नींद खराब कर रहे हैं। कई को तो `विला` ही हिला-हिला कर जगा रहे हैं भाई हम मैदान में आ गए हैं उठ बैठो। भाई लोग उठ बैठते हैं। अपन कई बार सोचते हैं कि जब कोई जोरदार गोल होता होगा तो इन बावलों के सीने में वो देसी हूक उठती होगी जो सचिन के छक्के पर उठती है। धांसू पास दिल में समा जाता होगा या पास से ही निकल जाता होगा? लहराते रोनाल्डो के साथ भावनाओं का वो लोकल वाला फ्लेवर आता होगा..?

शायद..! लेकिन एक हूक मेरे दिल में जरूर उठती है, सवा अरब का देश है 11 खिलाड़ी नहीं मिल रहे हैं जो इन मासूम बावलों की खातिर देश को फुटबॉल वर्ल्डकप में ले जा सकें। कम से कम सुबह जागने का सपना तो पूरा करा सकें..!!



बदलाव हो जाते हैं, आपको पता नहीं चल पाता है..! - अनुज खरे

`बदलाव लाओ..! कैसे भी लाओ! कहीं से भी लाओ! आई वांट बदलाव!` करारी आवाज। `सर वे बदलाव के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं..! निवेदन हुआ। 

`ठस लोगों को हटाओ, मैं कहता हूं बदलाव लाओ..!` इस बार दहाड़। `सर ढीट टाइप लोग हैं, दे कांट प्रिपेयर फॉर बदलाव..!` आवाज में विनम्रता का पुट। 

`आई वांट बदलाव एंड नॉथिंग एल्स, जो बदलाव के लिए तैयार नहीं हैं उन्हें व्यवस्था से उठाकर बाहर फेंको..!` गुस्सैल भाव-भंगिमा का अंदाजा बैठा लें। 

`सर उनकी जड़ें मजबूत हैं। उखाड़े नहीं उखड़ेंगी। बरसों से बदलाव के ऊपर कुंडली मारकर बैठे हैं। बदलाव को बकवास साबित करते रहते हैं..!` इस बार मिमियाने सा स्वर। `इसीलिए तो बदलाव चाहिए। संपूर्ण बदलाव चाहिए। हर हाल में चाहिए। तुरंत लाओ। भई जनता कब तक इंतजार करेगी..!` चिंता से भीगी आवाज। 

`सर, वैसे बदलाव में आपको क्या-क्या चाहिए..!` अधीनस्थ टाइप जिज्ञासाभरी आवाज। 

`बदलाव में हमें बदलाव चाहिए। न ज्यादा चाहिए। न कम चाहिए। बस, बदलाव चाहिए..!` सामने वाले के प्रति आंखों औऱ आवाज में तुच्छता भरे भाव की कल्पना लगेगी। 

`सर, फिर भी कुछ दिशानिर्देश बदलाव की दिशा में मिल जाते.., ड्रॉफ्टिंग में उपयोगी रहता..!` जिन आवाजों का सरकारीकारण हो जाता है वैसा विचारें।    

`आप बरसों से काम कर रहे हैं और आप बदलाव नहीं समझ पा रहे हैं..!

`सर..! सर..! सर..!

`कुछ नहीं है, मैं कहता हूं कुछ नहीं है, एकमात्र शाश्वत है बदलाव। बाकी सब बातें हैं। आई वांट बदलाव। बदलाव स्थायी भाव है। जाकर बदलाव लाओ। आज से ही जुट जाओ, समझे..!` `सर, फिर भी कुछ डायरेक्शन मिल जाता तो पाइंट बनाने में सुविधा..`  

`तुम खुद नहीं सोच सकते। खैर, सोच सकते तो सरकार में होते क्या..! `हें...हें...हम भी बदल जाएंगे सर, अच्छा सर, बदलाव की शुरूआत तो नीतिगत बदलाव के साथ ही होगी, लिखवा दीजिए ना..! 

`हां लिखो, शुरूआत हमें करनी चाहिए इन बड़े कमरों के पर्दों में बदलाव से, बल्कि पर्दे हटा ही दो..!` `सर, कमरे में पर्दों के बदलाव से..!

`हां, पर्दे हटेंगे तो नीतियों में पर्याप्त मात्रा में प्राकृतिक प्रकाश पड़ेगा। तभी तो उन पर जमी पुरातन धूल झाड़ी जा पाएगी, समझे..!

`जी, सर आगे..!` `हां, तो आगे, लिखो- हमें कुर्सियां भी बदलना चाहिए..!` `सर कुर्सियां भी..!` `हां, नई में बैठेंगे तभी पुरानी मानसिकता से निकल बदलाव ला पाएंगे, समझे..!` `जी सर, लिखा और..!`

`और हमें पुरानी गाड़ियां हटाकर एकदम नई गाड़ियां भी ले आना चाहिए..!` `सर, नई गाड़ियां क्यों..?` 

`अरे ताकि रफ्तार दिखाई दे। यूथ रफ्तार पसंद करता है, रफ्तार समझे, और सुनो, कमरों के बाहर बैठने वाले चपरासियों को भी बदल देना चाहिए..!` `क्यों सर इसमें क्या पॉलिसी छुपी है..!

`भाई ताकि फ्रेश विचार बेरोकटोक भीतर आ सकें, समझे..!

`जी सर, समझ गया, ठस व्यवस्था में बदलाव इन्हीं क्रांतिकारी उपायों के माध्यम से ही आएगा..!
`एक्सीलेंट, तो जाओ काम में जुट जाओ, हमें बदलाव में देरी बर्दाश्त नहीं...!`

`जी सर..!`

सो मित्रो, बड़ी व्यवस्था में बदलाव ऐसे ही पैकेज में होता है। वहां तो क्रांति हो भी जाती है। कसूर तो आपका है, आप ही समझने में सक्षम नहीं होते


अनुज खरे - 8860427755

व्यंग्य - निमंत्रण से धन्य हुआ सुदामा - मधुवन दत्त चतुर्वेदी

सुषमा जी ने बुलाया था। प्रभु का कोई विशेष कार्य सौंपेंगी कदाचित । ब्राह्मणी नहीं चाहती थी सुदामा जाये। डपट दिया सुदामा ने -"धीरज धरम मित्र अरु नारी, आपद काल परखिये चारी । जानती नहीं क्या ? मित्र हूँ मित्र ने बुलाया है तो जाऊंगा अवश्य।"
-"मित्र ने तो राज प्रासाद में बुलाया नहीं आजतक आप चले हैं मित्रता निवाहने । मत जाओ स्वामी ! मुझे अनिष्ट की आशंका सता रही है ।"
-"व्यर्थ आशंका है तेरी भागवान । तू भी बहक रही है मूर्ख प्रजाजनों की तरह । अवतारी पुरुष का कार्य सिद्ध करने में कोई जोखिम नहीं हो सकती ।"
एक न चली बेचारी की । चला गया सुदामा ।
अत्यंत मृदुता के साथ सत्कार किया सुषमा जी ने । अति की मिठास से अरुचि तो हुई पर प्रभु कृपा का स्मरण करते ही तिरोहित हो गयी ।
-"प्रभु का क्या अभीष्ठ है ताई ? अकिंचन सुदामा क्या प्रयोजन सिद्ध करने के योग्य है ?"
-"तुम सुदामा बड़े अनुभवी भिक्षुक हो । प्रभु को तुम्हारे कौशल और अनुभव की आवश्यकता है । न तो नहीं कहोगे न ? यदि कार्य विशेष में सफल रहे तो कृतज्ञ राष्ट्र तुम्हें भिक्षुक-शिरोमणि की उपाधि से सम्मानित करेगा ।"
-"अनुभव तो है पर ये कौशल समझ नहीं आया ताई । मैंने किसी विद्याश्रम में भिक्षा की शिक्षा तो ली नहीं है।"
-"कोई बात नहीं ।कुशलता का शिक्षा से कोई सम्बन्ध नहीं होता । अपनी स्मृति जी को ही देखो । शिक्षा का पूर्ण प्रभार संभाल रही हैं न कुशलता से । कल कह रहीं थीं यदि सुदामा कार्य सिद्ध कर ले तो भिक्षाटन को पाठ्यक्रम में शामिल कर लेंगी ।भविष्य में राष्ट्र को योग्य भिक्षुकों की आवश्यकता भी है और फिर भिक्षावृत्ति भी तो वृत्ति है । अगली जनगणना में राष्ट्र के भिक्षुको को चिन्हित कर लेंगे । उन्हें बेरोजगारों की सूची से हटा दिया जायेगा। प्रभु की अगली सरकार आयेगी तब तक देश में उच्च शिक्षित भिक्षुओ की भरमार होगी । सुदामा , तुम प्रभु कार्य सिद्ध कर दो तो प्रभु से मैं तुम्हारी अगली पीढ़ी को भिक्षाटन की शिक्षा के लिए क्षात्रवृत्ति की शिफारिश कर दूंगी । और छात्रवृत्ति तुम्हारे ही नाम पर रखवा दूंगी ।"
सुदामा का मन व्यथित हुआ । पर मौन रहा ।कार्य पूछा ।
-" तुम न सुदामा ! कल जुमा अलविदा पर ईराक जाओ । वहां खलीफा अबू बकर अल बग़दादी मिलेंगे । बड़े नेक इन्सान हैं । तुम भिक्षुकों को तो मंदिर-मस्जिद घाट-मजार हर स्थान पर मांगने की कला में महारत होती है न ? तो तुम उनसे ईद की ईदी मांगना । नये नए खलीफा हैं । मना नहीं करेंगे ।कहना कि आपकी दरियादिली के चर्चे हिन्द के गली कूचों में गूँज रहे हैं । आपने हिंदी नर्सों को बाअदब रुखसत कर दिया था । इस बार ईद पर हमारे उन 41 हिन्दी  भाइयों को आज़ाद कर दीजिये जिन्हें आपके पराक्रमी योद्धाओं ने 45 दिन पहले बंधक बनाया था ।"
-"क्या ?? तो नर्से उन्होंने अपनी दरियादिली से लौटाई थीं ।" चोंक गया सुदामा ,"पर ताई आप तो प्रभु पराक्रम का सुपरिणाम कहती थीं । क्या मेरे प्रभु..." गला रुंध गया गरीब का । सुषमा जी ने अपने कर कमलो से जल पिलाया । पीठ थपथपाई ।
-" नहीं सुदामा नहीं ! पराक्रम नहीं, बल्कि उनके प्रताप का परिणाम था । उनकी कीर्ति पताका चतुर्दिक फहर रही है और फिर अवतारी पुरुष का क्या कहना । यहीं से उनकी मति फेर दी ।"
"तो फिर अब मति क्यों नहीं फेर रहे हैं प्रभु , ताई?"
-"तुम न सुदामा ! तुम प्रश्न बहुत करने लगे हो प्रजाजनों की भांति । भूल गए क्या ? क्या प्रभु इच्छा से दुर्योधन हठ त्याग कर पांडवो को हक न देता ? पर लोक में अपने भक्तों को सुयश देने के लिए प्रभु उनसे उद्यम कराते हैं । जीतते तो वही हैं श्रेय भक्त को मिलता है । यह कृपा है उनकी कि ये श्रेय तुम्हें दे रहे हैं ।"
सुदामा को पाप बोध हुआ । भक्ति में कमी आयी है , यह प्रभु कृपा की कमी के कारन ही हुआ होगा । बारम्बार प्रभु की छवि का स्मरण कर मन ही मन कोटि कोटि प्रणाम किये ।
-"मैं अवश्य जाऊंगा । ताई आप कहना प्रभु से , मैं अवश्य जाऊँगा । मैं जाकर अपने पूर्ण कौशल से वहां गिड़गिड़ा कर भिक्षा मांगूंगा । विश्व मेरे साथ-साथ मेरे राष्ट्र की भिक्षावृत्ति को इतिहास में स्वर्णाक्षरो से अंकित करेगा । हाँ यह प्रभु की ही कृपा से संभव है । प्रभु की जय हो !"
कहा सुदामा ने और भक्ति में मुदित चल दिया लचकदार चाल से ।
सुदामा स्वप्न देखता चला आ रहा था । आने वाले दिनों में 'भिक्षा राजनय' को राजनीति शास्त्र के पाठ्यक्रम में स्थान मिलेगा । लिखा जायेगा कि बिषय प्राचीन है परन्तु जनतान्त्रिक भारत में इसके प्रयोग का श्रेय सुषमा और सुदामा को जाता है । इन दोनों व्यक्तित्वों ने इस राजनय के सफल उपयोग से 41 अपहृत भारतीयों को ईराक के खूंख्वार आतंकी सगठन के कब्जे से 45 दिन बाद सकुशल-ससम्मान रिहा कराने में सफलता पाई थी । देव संस्कृति का भाग रहा है भिक्षा राजनय । देवराज इंद्र कभी दधीच से तो कभी कर्ण से कुछ न कुछ भीख मांगते ही रहे हैं । कार्य सिद्ध होना चाहिए । पराक्रम जब पस्त हो तो भिक्षा काम आती है । असुर संस्कृति भी इस का प्रयोग कर चुकी है । स्वयं दशानन वैदेही को हरने भिक्षुक रूप में ही गया था । इधर विश्वविध्यालयो में भिक्षाटन का पाठ्यक्रम प्रारंभ होते ही न केबल स्नातक और स्नातकोत्तर भिक्षुक मिलने लगेंगे आपितु डाक्टरेट की उपाधियाँ गले में लटकाकर भीख मांगने वालों की भी जमात तैयार हो लेगी जिन्हें समय समय पर विदेश मंत्रालय विशेष अभियानों में आमंत्रित किया करेगा । सुदामा अमर हो जायेगा ।
 ऐसे ही सुखद स्वप्न बुनता संवारता सुदामा आ पंहुचा अपनी मडैया पर ।
 ब्राह्मणी आग बबूला खड़ी थी द्वार पर ही ।
-"कितनी बार कहा है पर मानते ही नहीं है । बाबा रामदेव तक ने कहा । बाबाजीयों को पर नारियों से दूर रहना चाहिए । आप हैं कि सुषमा जी ने न्यौता दिया और जा पहुंचे । जानते भी है, मैं मरी जा रही थी चिंता में ।"
-"व्यर्थ चिंता थी तेरी कल्याणी । भारतीय संस्कृति के ध्वज वाहको की सरकार है । मातृवत परदारेषु मेरा आदर्श है तो वे सब भी नारियों का सम्मान करते हैं।"
-"खाक सम्मान करते हैं स्वामी । सोनिया जी बहु हैं तो विदेशी हैं और सानिया बेटी है तो भी विदेशी ? अगर सोनिया अब भी इटली की है तो सानिया अब भारत की क्यों नहीं ? पाखंडियों की बात मत करो स्वामी । ये बताइए कि क्यों बुलाया था ? ये बड़े लोग यूँ ही तो बुला नहीं सकते ।"
-"प्रभु-काज का गुरुतर और ऐतिहासिक महत्त्व का कार्य सोंपा है । आज रात्रि ही आकाश मार्ग से प्रस्थान करना है । मेरे झोला-पथारी शीघ्र ला ।"
-"पहले बताइए कार्य क्या है?
-"ईराक जा रहा हूँ । भिक्षा मांगने ।"
-"क्यों, भारत बर्ष में अकाल पड़ा है क्या?"
-"नहीं । यह राजनय है, भिक्षा राजनय । खलीफा अबू बकर अल बग़दादी से अपहृत भारतीयों की रिहाई की भीख मांग कर लाऊंगा । राष्ट्रहित का कार्य है ।"
-"नहीं । कतई नहीं । जाने का प्रश्न ही नहीं है । जाओगे तो तब जब मैं जाने दूंगी । ऐसे खूंख्वार नर संहारक से भिक्षा मांगने जाओगे । आत्महत्या करनी है तो यहीं कर लीजिये ।"
-"मुर्ख हो तुम कल्याणी । उदारमना और चरित्रवान है वो । भयभीत नर्सें भूखी प्यासी अस्पताल के तहखाने में छुपी पड़ीं थीं । उन्हीने उन्हें मुक्त कर प्रभु प्रताप से रिहा किया था । सुषमा जी ने बताया है , प्रभु यहीं से अपनी अलौकिक शक्तियों का प्रयोग कर उसे मेरे अनुनय को स्वीकार करने की प्रेरणा दे देंगे । मुझे तो श्रेय देना चाह रहे हैं । मैं तो निमित्तमात्र हूँ । अवतारी हैं न ।"
-"व्यर्थ बात मत करो स्वामी । सुना है बग़दादी ने गैर मुसलमानों पर उनके क्षेत्र में रहने पर धर्म-कर लगाया है । जाते ही आपसे धर्म-कर मांग लेगा । क्या है तुमपर जो दोगे उसे ? ऐसा करो , मुझे ले चलो । हरिश्चंद्र ने काशी में बेचीं थी , तुम करबला में बेच देना ।" कहकर विफर उठी ब्राह्मणी । आँखों से अश्रुधार बह रही थी । अंग अंग में कम्पन हो रहा था । आपा खो बैठी ।
-"इस्लाम के उस नए खलीफा से भीख मांगने भेज रहे हैं जो निर्मम है स्वयं अपने स्वधर्मी भिन्न मताबलाम्बियों तक के प्रति । वाह री सुषमा वाह ! तेरे सैनिक तो यहाँ रोजेदार मुसलमान के मुहं में रोटी ठूँसें और तू खलीफा से भीख मंगवाए गी । उन पराक्रमियों को क्यों नहीं भेज देती बग़दाद ? उन्हें ही भेज दे जो गोधरा भूलने पर मुजफ्फर नगर की याद दिला रहे हैं मुसलमानों को । साफ सुनलो स्वामी , आप नहीं जायेंगे । किंचित भी नहीं । मेरा सुहाग मिला है बस उजाड़ने को ?"

ब्राह्मणी ने आवेश में सिर दे मारा चौखट पर । अचेत हो गयी । रक्त स्राव तीव्र था । सुदामा की एक न चली ।अस्पताल लेकर दौड़ा , तब तक बग़दाद की फ्लाईट जा चुकी थी ।

व्यंग्य - राष्ट्रीय मौसम - शरद सुनेरी

कई बार मैं बड़ी दुविधा में पड़ जाता हूँ कि पढ़ाते समय बच्चों को अपने देश में मौसमों की कितनी संख्या बताऊँ? बचपन से अब एक सामान्य भारतीय की तरह मेरा ज्ञान कहता है कि इस देश में तीन मुख्य ऋतुएँ- ग्रीष्म, शीत और वर्षा तथा छः उपऋतुएँ-वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत और शिशिर होती है। दो दशक पूर्व एक लोकप्रिय गीत ने मुझे नया ज्ञान दिया कि मौसम पाँच होते हैं-‘एक बरस के मौसम चार, पाँचवाँ मौसम प्यार का।ये पाँचवाँ मौसम यानी प्यार का मौसम, बारहमासी होता है। शेष तो उपऋतुओं के समान आते-जाते रहते हैं। प्यार का मौसम बगीचों, मंदिरो, तालाबों, नदियों-सागर के तटों अर्थात् यत्र-तत्र-सर्वत्र-सदैव हिलोरें मारता रहता है। जिस पर कंट्रा्ल करने के लिएमौसम-विभागनहींपुलिस-विभागकी आवश्कता पड़ती है। खैर, इस देश में आज़ादी के बाद एक मौसम स्थायी रूप से प्रति वर्ष आता है। इसके आने की न अवधि निश्चित है, ना तारीख। ये मौसम है-महँगाई का मौसम। हमारे देश की जनता की विशेषता है कि एक मौसम की अतिरेकता के पश्चात् वह अगले मौसम की प्रतीक्षा करने लगती है। किन्तु महँगाई का मौसम जाए तो कभी लौटकर ना आए, यह सबकी हार्दिक इच्छा होती है। लेकिन साब किसके बाप में दम है जो इस मौसम को रोक सके। ये हर बार नये रूप में पूरी तैयारी से आती है, और पिछली बार से ज्यादा धूम से आती है। कोई हीटर, कोई अलाव, कोई बरसाती, कोई छाता इसकी तीव्रता और प्रखरता में कमी नहीं कर सकता।
महँगाई क्या है? वस्तुकी कीमतों का बढ़ना। जी नहीं जनाब! हमारे सवा सौ करोड़ से अधिक आबादीवाले देश में महँगाई को इतने कम शब्दों में पारिभाषित करना महँगाई का अपमान है। इस पर तो पूरी चालीसा होनी चाहिए। हमारे देश में महँगाई एकदर्शनहै। जो प्रधानमंत्री से लेकर भिखारी, गृहस्थ से संन्यासी, बुद्धिजीवी से बुद्धिहीन, उत्पादक से उपभोक्ता, पोते से दादा, प्रेमिका से पत्नी और प्रेमी से पति तक सभी को दार्शनिक बना देती है। प्रधानमंत्री का हर साल गुजर जाता है। पर बेचारा संसद भवन में अपनी मंडली के साथ तय नहीं कर पाता कि-‘क्या करूँ कि कीमत कम हो और लोगों का गुजारा हो!’ भिखमंगा सोचता है किकुछ अधिक मिलेतो मेरा गुजारा हो!! संन्यासी, गृहस्थ को भगवद् प्राप्ति का शार्टकट दिखाना चाहता है मगर महँगाई गृहस्थ कोलक्ष्मीप्राप्ति के शार्टकट खोजने को प्रेरित करती है। बुद्धिमान और बुद्धिहीन दोनों महँगाई के मुद्दे पर एकमत होकर अपनी प्रतिभा पर भ्रमित हो जाते हैं। पत्नियाँ और प्रेमिका इस बार पिछली बार से अधिक महँगा उपहार लेने के मूड में होती हैं लेकिन महँगाई, पति और प्रेमी को उसकी औकात दिखा जाती है। पोते के सामने दादा जी की दादागिरी तब धराशायी हो जाती है जब दादा जी एक रूपयेवाली टाफी दिलाना चाहते और पोता पचास रूपयेवाली चाकलेट पसंद कर लेता है।
लोग महँगाई का संबंध अर्थशास्त्र से जोड़ते हैं। मूर्ख हैं! महँगाई तो भारतीयों को दार्शनिक बना देती है। उसका संबंध दर्शनशास्त्र से होना चाहिए। वह भारतवासी को आध्यात्मिक बना देती है। मेरा तो दावा है यदि महँगाई ना हो तो देशवासी भगवान को भी याद करना छोड़ दें। कहा भी है- ‘दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोई।दुख यानी क्या?- इस कलयुग में महँगाई से बड़ा दुख भला कोई हो सकता है? महँगाई इस देश को सर्वधर्म समभाव का संदेश देती है। हमारे देश में अनेक पंथ, धर्म, संप्रदाय, जातियाँ हैं जो सदियों से अपने-अपने विचारों को लेकर लड़ते रहते हैं और अपने अनुयायियों को भड़काते, उकसाते और बहकाते रहते हैं। किन्तु महँगाई सबके मतभेदों और मनभेदों को मिटाकरएकमतकर देती है। तभी तो कहा भी है कि-‘भेद बढ़ाते मंदिर-मस्ज़िद, बात समझ में ना आई! सब लोगों को साथ मे लाती,एक कराती महँगाई।
महँगाई हमारे देश की एकता की कड़ी है। ये हमारी राष्ट्रीय एकता और अस्मिता का प्रतीक है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक और थार के रेगिस्तान से अरुणाचल की वादियों तक हमारी भाषाएँ, भूषा, आचार-विचार, आहार-संस्कार, शिक्षा, तीज-त्यौहार, प्रथा-परंपरा भिन्न-भिन्न हो सकते हैं किन्तु महँगाई, महँगाई पर कोई विवाद नहीं। वह एक है। इस महँगाई को आतंकवाद, नक्सलवाद, जातिवाद, भाषावाद, प्रांतवाद के अलगाववादी युग में किसी वाद से कोई खतरा नहीं। अपितु इसने इन वादों को एकता के सूत्र में पिरो रखा है। यहाँ तक कि एक-दूजे का परस्पर मुँह ना देखनेवाले कट्टर विरोधी राजनैतिक दल भी एक होकर समकालीन सरकार की टाँग खीचने लगते है। महँगाई राजनैतिक विचारों को जोड़नेवाली मज़बूत कड़ी है। महँगाई, हमारे देश की आत्मा है और आत्मा अमर है, इतना तो हम जानते हैं। इसलिए वह न सूखती है, न गीली होती है और न ही जलती है। बल्कि देश के सूखने, गीले होने और जलने पर इस आत्मा का और रूप निखर जाता है। वह अपना दिव्यत्व प्राप्त कर लेती है। सोचिए, यदि महँगाई इस देश से निकल गई तो भारत निष्प्राण हो जाएगा। फिर हम किसके बारे में चिंतन करेंगे? महँगाई ही है जो हमें पेट भरने के लिए विवश करती है। यदि पेट भरने की चिंता न होगी तो कोई क्यों काम करेगा? महँगाई, जनता को ऊर्जा प्रदान करती है और देश को ऊर्जावान बनाती है। हमारे देश का ऊर्जा सूर्य से नहीं, महँगाई से मिलती है। महँगाई देश को विकास के लिए प्रेरित करती है किआओ, हिम्मत है तो मुझे हराओ।ये हमेशा विकासशील रहती है, कभी विकसित नहीं होती। इसलिए भारत शताब्दियो से एक विकासशील राष्ट्र है।
महँगाई, हमारे देश को विश्व में अस्मिता और पहचान प्रदान करती है। विश्व के विकसित देशों के लिए, हम इसलिए तो पूजित हैं। वेलक्ष्मी जीकी पूजा नहीं करते। वे हमारे देश की पूजा करते हैं। हमारे कारण ही तो इन देशों का अस्तित्व है। हमारे कारण ही तो इन देशों का चूल्हा जलता है। इन्हें तो हमारे देश की महँगाई का अहसानमंद होना चाहिए। महँगाई ना होती तो इनके डालर, पाउण्ड, येन, लीरा सब मुँह तकते रह जाते।
मैंने मौसम से बात आरंभ की थी। महँगाई का मौसम आते ही लाल टमाटर आग का गोला लगने लगते हैं। प्याज के कारण लोग आँखों से आँसू बरसाने लगते हैं। डीजल, पेट्रोल और गैस के दाम खून जमाने लगते हैं। एक महँगाई एक बार में सारे मौसमों का मज़ा दे जाती है। इसे तो सरकार कोराष्ट्रीय मौसमघोषित कर देना चाहिए। महँगाई का अर्थ जो भी हो लेकिन वह अनर्थ कर देती है। ये ईमानदारों को बेईमान बना देती है। गरीबों को अपनी लाज का सौदा करने देने को विवश कर देती है। कभी जीवन का आधार छीन लेती है तो कभी तलवारों से धार छीन लेती है। इतना ही नहीं वह इंसान से भगवान तक छीन लेती है-
वह ज़रुरत बहुत बड़ी होगी, जो उसूलों से लड़ पड़ी होगी
चोरी, भूखे ने कर ली मंदिर में, भूख भगवान से बड़ी होगी

शरद सुनेरी – 9421803149 

दो कवितायें - सञ्जीव निगम

जब मौन को शब्द मिले .....



हमने  कुछ शब्द कहे - आपस में,
और फिर देर तक सन्नाटा पसरा रहा 
हमारे बीच में,
हम  मौन हो तकते रहे,
सामने बैठे हुए - फिर अचानक ,
धीरे से रखा उसने अपना हाथ मेरे हाथ पर,
और सारा मौन मुखरित हो उठा.

और जब शब्दों से बना  मौन ...
कॉफ़ी हाउस के कोलाहल के बीच,
हम कर रहे थे बातें ,इसकी , उसकी ,
चीन की, जापान की,
सारे दुनिया जहान की ,
पर न उसने छुआ मेरा प्याला,
न मैंने हाथ लगाया उसके सैंडविच में,
इतने शोर शराबे में सिर्फ हमीं जानते थे कि 
घूँट घूँट कॉफ़ी के साथ, उतर रहा था सन्नाटा,
हमारे बीच में




सम्वेदनाएँ अभी मरी नहीं हैं

हर दिन जब हम एक दूसरे के पास से
चुपचाप गुज़रते हैं,
परिचय अपरिचय का धूपछाँही आभास लिए,
मेरे मन के छोटे से गमले में \
कितने ही सवालों की कोंपलें फूट पड़ती हैं.
कहीं ऐसे ही कुछ सवाल 
तुम्हारे मन में भी तो नहीं?

हर दिन जब हम एक दूसरे की ओर 
चले आ रहे होते हैं,
मुझे महसूस होता है कि 

मैं अच्छा और अच्छा ,
सुन्दर और सुन्दर होता जा रहा हूँ,

इस विश्वास के साथ कि 
मुझमे ऐसा बहुत कुछ है 
जो मुझे तुमसे जोड़ सकता है.
कहीं इसी जुड़ाव का विश्वास 
तुम्हारी कल्पनाओं में भी तो नहीं?


हर दिन जब घड़ी की सुस्त रफ़्तार सुईयाँ
बड़ी देर बाद ,
तुम्हारे आने के सुखद क्षण संजोने लगती हैं,
मेरे शरीर के भीतर एक सुनहली कंपकंपी 
रेशमी जाल  बुनने लगती है.
आँखों के आगे उगने लगता है तुम्हारा रूप,
अच्छा, और अच्छा,
सुन्दर ,और सुन्दर,
पवित्र ,और पवित्र बनकर.


कहीं ऐसे ही किसी मधुर आभास की 
चमक तुम्हारी आँखों में भी तो नहीं?


हाँ , यदि सचमुच ऐसा है तो
यह मानना पड़ेगा कि 
हमारी संवेदनाएं

अभी जिंदा हैं.


हमारी कल्पनाओं में
अभी चटख रंग बाकी हैं.
हमारे जिस्मों में
जीवन की मीठी गर्मी की तपन 
अभी शेष है.

और, अविश्वास,अजनबीपन व अनैतिकता से भरे 
इस बर्बर जंगल में रहते हुए भी ,


हम अभी तक मनुष्य हैं.

 सञ्जीव निगम

9821285194