प्रयास – कविता कोष - ललित कुमार

कविता कोश भारतीय भाषाओं के काव्य का सर्वप्रथम और सबसे विशाल ऑनलाइन विश्वकोश है। जुलाई 2006 में प्रारम्भ हुई इस ऐतिहासिक परियोजना ने अन्य कई परियोजनाओं के लिए भी प्रेरणा का काम किया है। कविता कोश के बाद साहित्यिक कोश बनाने के कई प्रयास आरम्भ हुए हैं। सरकारी व निजी संस्थाओं द्वारा इन नई परियोजनाओं को आर्थिक व अन्य सभी तरह के संसाधन उपलब्ध कराए गए हैं।

कविता कोश की खूबी है कि यह आरम्भ से ही स्वयंसेवा पर आधारित परियोजना रही है। कविता कोश को यहाँ तक पहुँचाने और एक राष्ट्रीय धरोहर बनाने में बहुत-से व्यक्तियों ने श्रमदान दिया और दिन-रात निस्वार्थ कार्य किया है। इन लोगों को अपनी अथक मेहनत का कोई वेतन नहीं मिलता लेकिन इसके बावजूद हमारा यह प्रयास नहीं रुका।

मैंने पिछले वर्षों के दौरान कई ऐसी असाधारण घटनाएँ देखी हैं जो इस कोश के प्रति लोगों के अपार स्नेह और कटिबद्धता को दर्शाती हैं। स्कूल जाने वाले एक विद्यार्थी ने एक बार अपनी पॉकेट-मनी देने का प्रस्ताव रखा ताकि कविता कोश को कुछ आर्थिक सहायता मिल सके। हमारे योगदानकर्ताओं के पास काम करने के लिए कम्प्यूटर नहीं था तो उन्होनें दोस्तों / रिश्तेदारों से रोज़ाना कुछ देर के लिए कम्प्यूटर मांग कर कोश के लिए काम किया है। बहुत से इलाके ऐसे हैं जहाँ रहने वाले योगदानकर्ताओं के घरों में केवल कुछ घंटे के लिए बिजली आती है। ये योगदानकर्ता बस इसी इंतज़ार में रहते हैं कि कब बिजली आए और कब वे अपना यथासंभव योगदान कविता कोश के विकास में दे सकें। हममें से कई लोग सुबह-सवेरे उठकर कोश पर काम शुरु करते हैं और आधी रात के बाद तक यह सिलसिला चलता रहता है। अपने व्यव्साय से बेहद कम आय प्राप्त करने वाले योगदानकर्ता भी इस बात से तनिक गुरेज़ नहीं करते कि वे अपने पारिवारिक खर्चों से बचाकर सौ-दो-सौ रुपए कोश के काम के लिए कुछ धन खर्च कर दें। समय के जो सुन्दर पल अपने परिवार व मित्रों के साथ बिताए जा सकते थे –कविता कोश के योगदानकर्ता वे पल को इस परियोजना को भेंट दे देते हैं। कई योगदानकर्ताओं ने अपने अच्छे-खासे करियर तक इस कोश के लिए त्याग दिए। ये कोई साधारण बातें नहीं हैं।

और लाखों पाठकों के लिए तो कविता कोश जीवन के एक अंग की तरह है ही!

हमारे पास काम करने के लिए न कार्यालय है, न आवश्यक धन है, और न ही हमें वेतन मिलता है... लेकिन हमारे पास लगन है... मेहनत करने का जुनून है... स्वयंसेवा करने की इच्छा है... हमारे पास भारत की भाषाओं, संस्कृति और साहित्य को पूरे विश्व में पहचान दिलाने का स्वप्न है... बस यही सब हमारे संसाधन हैं। अन्य परियोजनाओं की नींव धन पर रखी जाती है -लेकिन कविता कोश की नींव में केवल निस्वार्थ मेहनत भरी है... और कूट-कूट कर भरी है।

सरकारी और निजी क्षेत्र ने इस परियोजना के प्रति बेरुखी दिखाई है और हमारी कोई सहायता नहीं की गई; लेकिन हमने अभी तक हार नहीं मानी है। कविता कोश के हम सब योगदानकर्ता गिनती में चाहे कम हों लेकिन इस परियोजना को हमसे जितना संभव होगा उतना आगे ले जाने की पूरी कोशिश अवश्य करेंगे।

यह परियोजना आप सब की अपनी परियोजना है और इससे जुड़ा हर व्यक्ति अपनी सीमाओं से भी आगे निकलकर इसके विकास हेतु अपना योगदान देता है।

हमें विश्वास है कि भारत, संस्कृति, भाषा और साहित्य से प्रेम करने वाला समाज हमारे वर्षों के त्याग, लगन और मेहनत को असफ़ल नहीं होने देगा। प्रचूर मात्रा में धन व अन्य संसाधन उपलब्ध हों तो कोई काम कठिन नहीं -लेकिन कविता कोश भारतीय समाज में स्वयंसेवा का एक चमकदार उदाहरण है। हमने धन नहीं बल्कि केवल मेहनत और इच्छा के बल पर इस कोश को तैयार किया है।

सभी व्यक्तियों व संस्थाओं से गुजारिश है कि इस परियोजना को अर्थ, ज्ञान या श्रम का सहयोग दें। लगातार बढ़ती और फैलती इस परियोजना को अब सहारे की आवश्यकता है।

कविता कोश जैसी सुन्दर परियोजना अथक श्रम द्वारा पल्लवित होने के बावज़ूद यदि संसाधनों के अभाव में दम तोड़ देगी तो यह एक सुन्दर स्वप्न के टूटने जैसा होगा... स्वप्न जो साकार हो सकता था... लेकिन संसाधन-सम्पन्न समाज की उदासीनता ने उसे साकार नहीं होने दिया।

कविता कोश के योगदानकर्ता अपना काम वर्षों से कर रहे हैं। अब समाज की बारी है कि वह भी अपन दायित्व निभाए।

ललित कुमार
संस्थापक, निदेशक

कविता कोश टीम

जीवन व्यवहार - सदाचार - आनन्द मोहनलाल चतुर्वेदी

जीवन व्यवहार

धर्म का  अनुसरण  करे वो धार्मिक

धार्मिक  जातिओं में अगर गिनती शुरू की जाये तो , सबसे पहले ब्राह्मण समाज की गिनती होती है | जो धार्मिक क्रिया कलापो पर ही जीवन यापन करते है  | मानव मात्र अपने आप को जानें कि हम किन  संस्कारी महात्माओं के अंश है , उनके जीवन का किस तरह रहन-सहन-बर्ताव - जीवन शैली, करने न करने योग्य जो भी बातें थी ,वो सब किसी-न-किसी ग्रन्थ में  उल्लखित हैं |
                        
जैसे -- स्मृतियाँ ( ४५) - पुराण  ( 19 ) - धर्मसूत्र ( ६ ) - गृह्यसूत्र  ( ३ ) - उपनिषद्( ३) - ज्योतिष (२)  - आयुर्वेद ( ४)  - तंत्र ( ४) - नीति  ( ७) - विविध ( १५) --  [{ १) महाभारत  , २) वाल्मीक रामायण , ३) श्रीमद्भगवतगीता ,४)  धर्मसिन्धु ,५)  निर्णयसिंधु , ६) भगवन्तरभास्कर , ७) यतिधर्मसंग्रह , ८) प्रायश्चित्तेन्दुशेखर ,९) भर्तृहरिशतक , १०) कौशिक रामायण , ११) गुरुगीता , १२) वृद्धसूर्यारुणकर्मविपाक , १३) सिद्धसिद्धांतसंग्रह ,१४) सर्ववेदांतसिद्धांतसारसंग्रह , १५) किरातार्जुनीयम }]   लगभग १०५ ग्रंथों में से कुछ सूत्र निकले गए हैं , जिन्हे सहज में अपने पितृ अपनाते थे | जिसे एक नाम दिया जा सकता है - ""आचार-संहिता""

हिन्दू संस्कृति अत्यंत विलक्षण हैं | इसके सभी सिद्धांत पूर्णतः वैज्ञानिक और मानवमात्रकी लौकिक तथा पारलौकिक उन्नति करनेवाले है | मनुष्य मात्र का सुगमतासे एवं शीघ्रतासे कल्याण कैसे हो - इसका जितना गम्भीर विचार हिन्दू-संस्कृतिमें किया गया है, उतना अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता | जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त मनुष्य जिन-जिन वस्तुओं एवं व्यक्यिओं के संपर्क में आता है और जो-जो क्रियाएँ करता हैं , उन सबको हमारे क्रांतिदर्शी ऋषि-मुनियोंने  बड़े वैज्ञानिक ढंग से सुनियोजित, मर्यादित एवं सुसंस्कृत किया है और सबका पर्यवसान परमश्रेयकी प्राप्ति  में किया है | इसलिए भगवानने गीता में बड़ें स्पष्ट शब्दों में कहा है ----
                  
य:     शास्त्रविधिमुत्सुज्य    वर्तते    कामकारत:  |
न  स  सिद्धिमवाप्नोति  न  सुखं  न  परां गतिम्  ||
तस्माच्छास्त्रं  प्रमाणं  ते  कार्याकार्यव्यवस्थितौ
ज्ञात्वा   शास्त्रविधानोक्त्तं     कर्म     कर्तुमिहर्हसि ||  ( गीता १६/२३-२४ )
                  
" जो मनुष्य  शास्त्रविधिको छोड़कर  अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है , वह न सिद्धि (अन्तः करणकी सुद्धि) - को, न सुख (शान्ती) - को और न परमगति को ही प्राप्त होता है |. अतः तेरे लिये कर्तव्य-अकर्त्तव्यकी और व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है- ऐसा जानकर तू इस लोकमें शास्त्रविधिसे नियत कर्तव्य -कर्म करनेयोग्य है अर्थार्त तुझे शास्त्रविधिके अनुसार कर्त्तव्य -कर्म करने चाहीये|”

तात्पर्य है क़ि हम 'क्या करें, क्या न करें ? - इसकी व्य्वस्थामें शास्त्र को ही प्रमाण मानना चाहीये | जो शास्त्र के अनुसार आचरण करते हैं, वे 'नर' होते हैं और जो मनके अनुसार (मनमाना) आचरण करते हैं, वे 'वानरहोते हैं -

मतयो  यत्र  गच्छन्ति  तत्र  गच्छन्ति वानराः .|
शस्त्राणि यत्र गच्छन्ति तत्र गच्छन्ति ते नराः .||

गीतामें भगवानने ऐसे मनमाना आचरण करनेवाले मनुष्योंको  'असुरकहा हैं|
प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जन न विदुरासुरा: |  ( गीता १६/७)

वर्तमान समय में उचित शिक्षा , संग , वातावरण आदि का अभाव होने से समाज में उच्छ्रंखलता बहुत बढ़ चुकी है | शास्त्र के अनुसार क्या करना चाहीये और क्या नहीं करना चाहीये    -  इस नयी  पीढ़ी  के  लोग जानते  भी नहीं और जानना चाहते भी नहीं | जो   शास्त्रीय  व्यवहार  जानते है , वे बताना चाहे  तो उनकी बात  न मानकर उनकी हंसी उड़ाते हैं | लोगों क़ि अवहेलना के कारण हमारे अनेकधर्मग्रन्थ लुप्त होते जा रहे है | जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं , उनको पड़ने वाले भी बहुत कम हैं| पढ़ने की रुचि भी नहीं है और पढ़ने का समय भी नहीं है | शास्त्रों को जाननेवाले , बतानेवाले , और तदनुसार आचरण करने वाले सत्पुरुष दुर्लभ-से हो गए है | ऐसी परिस्थिति  में यह आवश्यक समझा गया क़ि एक ऐसे उपक्रम का का प्रयास किया जाये जिससे कि जिज्ञासु-जनों को शास्त्रों में आयी आचार-व्यवहार - सम्बन्धी आवश्यकबातों की जानकारी प्राप्त हो सके | इसी दिशा में यह प्रयत्न किया गया है |

शास्त्र अथाह समुद्र की भांति है| जो शास्त्र उपलब्ध हुए, उनका अवलोकन करके अपनी सीमितसामर्थ्य-समझ-योग्यता और समयानुसार जानकारी प्रस्तुत की गयी है| जिन बातों की जानकारी लोगों को कम है, उन बातों को मुख्यतय: प्रकाश में लाने की चेष्टा की गयी है| यद्यपि  पाठकों को कुछ बातें वर्तमान समय में अव्यवहारिक प्रतीत हो सकती है, तथापि अमुक विषय में शास्त्र क्या कहता हैं - इसकी जानकारी तो उन्हें हो  ही जायेगी| पाठकों से प्रार्थना है कि वे इन सूत्रो  को पढ़ें और इसमे आयी बातों को अपने जीवन में उतारने की चेष्टा करे| यह मात्र मेरा संकलन हैकोशिश की गयी है कि प्रत्येक क्रिया-कलाप, किये जाने वाले कर्म से सम्बंधित सूत्र एक साथ एकत्रित हो।

प्रथम कड़ी - सदाचार

1 शिक्षा , कल्प , निरुक्ति, छंद,व्याकरण और ज्योतिष - इन छ: अंगों सहित अध्यन किये  हुए  वेद भी आचारहीन मनुष्य को पवित्र नहीं कर सकते | मृत्युकाल मे आचारहीन मनुष्य को वेद वैसे ही छोड़ देते है ,जैसे पंख उगने पर पक्षी  अपने घौंसलेको | (वशिष्ठ स्मृति ६|, देवी भागवत ११ सदाचार - प्रशंसा /२/१)

2. मनुष्य आचार से आयु, अभिलषित संतान एवम अक्षय धन को प्राप्त करता है और आचार से अनिष्ट लक्षण को नष्ट कर देता है| (मनु स्मृति ४/१५६)

3. दुराचारी पुरुष संसार में निन्दित , सर्वदा दु:ख भागी , रोगी और अल्पायु होता है | (मनु स्मृति ४/१५७ ;वशिष्ठ स्मृति ६/६)

4. आचार ही धर्म को सफल बनाता है , आचार ही धनरूपी फल देता है, आचारसे मनुष्य को संपत्ति प्राप्त होती है और आचारही अशुभ लक्षणो का नाश कर देता है | (महाभारत, उद्धयोग . ११३/15)

5. " गौओं , मनुष्यों और धन से सम्पन्न होकर भी जो कुल सदाचार से हीन हैं, वे अच्छे कुलोंकी गणना में नहीं आ सकते | परन्तु थोड़े धनवाले कुल भी यदि सदाचार से सम्पन्न है तो वे अच्छी कुलोंकीगणनामें आ जाते हैं और महान यश प्राप्त करते है. (महाभारत उद्योग. ३६/२८-२९)

6.  " सदाचर की रक्षा यत्न पूर्वक करनी चाहिए | धन तो आता और जाता रहता है | धन क्षीण हो जानेपर भी सदाचारी मनुष्य क्षीण नहीं माना जाता ; किन्तु जो सदाचार से भ्रष्ट हो गया, उसे तो नष्ट ही समझाना चाहिए" | (महाभारत उद्योग. ३६/३०)

7. " मेरा ऐसा विचार है कि सदाचार से हीन मनुष्यका केवल ऊँचा कुल मान्य नहीं हो सकता; क्योकि नीच कुलमें उत्पन्न मनुष्यों का सदाचार श्रेष्ठ माना जाता है, | (महाभारत उद्योग ३४/४१)

8.  आचार से धर्म प्रकट होता है और धर्म के स्वामी भगवान विष्णु हैं | अत: जो अपने आश्रमके आचार में संलग्न है, उसके द्वारा भगवान श्रीहरि सर्वदा पूजित होते हैं | ( नारद पुराण , पूर्व. ४/२२)

9.  सदाचारी मनुष्य इहलोक और परलोक दौनौं को ही जीत लेता है | "सत" शब्दका अर्थ साधू है और साधू वही है, जो  दोषरहित हो | उस साधु पुरुष का जो आचरण होता है, उसीको सदाचार कहते हैं | ( विष्णु पुराण ३/११/२-३)

10.  आचारहीन मनुष्य संसार में निन्दित होताहै और परलोक मैं भी सुख नहीं पाता | इसलिए सबको आचारवान होना चाहिए | (शिवपुराण वा. उ. १४/५६)

11. "आचार से ही आयु , संतान तथा प्रचुर अन्न की उपलब्धि होती है | आचार संपूर्ण पातकों को दूर कर देता है| मनुष्यों के लिए आचार को कल्याणकारक परम धर्म माना गया है | आचारवान मनुष्य इस लोक में सुख भोगकर परलोक में सुखी होता है | (देवी भागवत ११/१/१०-११)

12. " (भगवान नारायण बोले -) नारद ! आचारवान मनुष्य सदा पवित्र, सदा सुखी, और सदा धन्य है - यह सत्य है, सत्य है |  ( देवी भागवत ११/२४/९८)


विनीत --  आनंद मोहनलाल चतुर्वेदी  ( नंदा ) 9022588880

छन्दालय - 9 मात्रा वाले छन्द - आ. सञ्जीव वर्मा 'सलिल'

हिंदी के मात्रिक छंद : २
९ मात्रा के आंक जातीय छंद : गंग / निधि

विश्व वाणी हिंदी का छांदस कोश अप्रतिम, अनन्य और असीम है। संस्कृत से विरासत में मिले छंदों  के साथ-साथ अंग्रेजी, जापानी आदि विदेशी भाषाओँ तथा पंजाबी, मराठी, बृज, अवधी आदि आंचलिक भाषाओं/ बोलिओं के छंदों को अपनाकर तथा उन्हें अपने अनुसार संस्कारित कर हिंदी ने यह समृद्धता अर्जित की है। हिंदी छंद शास्त्र के विकास में  ध्वनि विज्ञान तथा गणित ने आधारशिला की भूमिका निभायी है।

विविध अंचलों में लंबे समय तक विविध पृष्ठभूमि के रचनाकारों द्वारा व्यवहृत होने से हिंदी में शब्द विशेष को एक अर्थ में प्रयोग करने के स्थान पर एक ही शब्द को विविधार्थों में प्रयोग करने का चलन है। इससे अभिव्यक्ति में आसानी तथा विविधता तो होती है किंतु शुद्घता नहीँ रहती। विज्ञान विषयक विषयों के अध्येताओं तथा हिंदी सीख रहे विद्यार्थियों के लिये यह स्थिति भ्रमोत्पादक तथा असुविधाकारक है। रचनाकार के आशय को पाठक ज्यों  का त्यो ग्रहण कर सके इस हेतु हम छंद-रचना में प्रयुक्त विशिष्ट शब्दों के साथ प्रयोग किया जा रहा अर्थ विशेष यथा स्थान देते रहेंगे।

अक्षर / वर्ण = ध्वनि की बोली या लिखी जा सकनेवाली लघुतम स्वतंत्र इकाई।
शब्द = अक्षरों का सार्थक समुच्चय।
मात्रा / कला / कल = अक्षर के उच्चारण में लगे समय पर आधारित इकाई।
लघु या छोटी  मात्रा = जिसके उच्चारण में इकाई समय लगे।  भार १, यथा अ, , , ऋ अथवा इनसे जुड़े अक्षर, चंद्रबिंदी वाले अक्षर
दीर्घ, हृस्व या बड़ी मात्रा = जिसके उच्चारण में अधिक समय लगे। भार २, उक्त लघु अक्षरों को छड़कर शेष सभी अक्षर, संयुक्त अक्षर अथवा उनसे जुड़े अक्षर, अनुस्वार (बिंदी वाले अक्षर)।
पद = पंक्ति, चरण समूह।
चरण = पद का भाग, पाद।
छंद = पद समूह।
यति = पंक्ति पढ़ते समय विराम या ठहराव के स्थान।
छंद लक्षण = छंद की विशेषता जो उसे अन्यों से अलग करतीं है।
गण = तीन अक्षरों का समूह विशेष (गण कुल ८ हैं, सूत्र: यमाताराजभानसलगा के पहले ८ अक्षरों में से प्रत्येक अगले २ अक्षरों को मिलाकर गण विशेष का मात्राभार  / वज़्न तथा मात्राक्रम इंगित करता है. गण का नाम इसी वर्ण पर होता है। यगण = यमाता = लघु गुरु गुरु = ४, मगण = मातारा = गुरु गुरु गुरु = ६, तगण = ता रा ज = गुरु गुरु लघु = ५, रगण = राजभा = गुरु लघु गुरु = ५, जगण = जभान = लघु गुरु लघु = ४, भगण = भानस = गुरु लघु लघु = ४, नगण = न स ल = लघु लघु लघु = ३, सगण = सलगा = लघु लघु गुरु = ४)।
तुक = पंक्ति / चरण के अन्त में  शब्द/अक्षर/मात्रा या ध्वनि की समानता ।
गति = छंद में गुरु-लघु मात्रिक क्रम।
सम छंद = जिसके चारों चरण समान मात्रा भार के हों।
अर्द्धसम छंद = जिसके सम चरणोँ का मात्रा भार समान तथा विषम  चरणों का मात्रा भार एक सा  हो किन्तु सम तथा विषम चरणोँ क़ा मात्रा भार समान न हों।
विषम छंद = जिसके चरण असमान हों।
लय = छंद  पढ़ने या गाने की धुन या तर्ज़।
छंद भेद =  छंद के प्रकार।
वृत्त = पद्य, छंद, वर्स, काव्य रचना । ४ प्रकार- क. स्वर वृत्त, ख. वर्ण वृत्त, ग. मात्रा वृत्त, घ. ताल वृत्त।
जाति = समान मात्रा भार के छंदों का  समूहनाम।
प्रत्यय = वह रीति जिससे छंदों के भेद तथा उनकी संख्या जानी जाए। ९ प्रत्यय: प्रस्तार, सूची, पाताल, नष्ट, उद्दिष्ट, मेरु, खंडमेरु, पताका तथा मर्कटी।
दशाक्षर = आठ गणों  तथा लघु - गुरु मात्राओं के प्रथमाक्षर य म त र ज भ न स ल ग ।
दग्धाक्षर = छंदारंभ में वर्जित लघु अक्षर - झ ह  र भ ष। देवस्तुति में प्रयोग वर्जित नहीं।
गुरु या संयुक्त दग्धाक्षर छन्दारंभ में प्रयोग किया जा सकता है।
                                                                                   
नौ मात्रिक छंद / आंकिक छंद

जाति नाम आंक (नौ अंकों के आधार पर), भेद ५५संकेत: नन्द:, निधि:, विविर, भक्ति, नग, मास, रत्न, रंग, द्रव्य, नव दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु, कुंद:, गौ:,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार),
नवमी ९ वीं तिथि आदि।

वासव छंदों के ३४ भेदों की मात्रा बाँट लघु-गुरु मात्रा संयोजन के आधार पर ५ वर्गों में निम्न अनुसार होगी:

अ वर्ग. ९ लघु: (१)- १. १११११११११

आ वर्ग. ७ लघु १ गुरु: (८)- २. १११११११२ ३. ११११११२१, ४. १११११२११, ५. ११११२१११, ६. १११२११११, ७. ११२१११११, ८. १२११११११, ९. २१११११११

इ वर्ग. ५ लघु २ गुरु: (२१)- १०. १११११२२, ११. ११११२१२, १२. १११२११२, १३. ११२१११२, १४, १२११११२, १५. २१११११२, १६. २११११२१, १७. २१११२११, १८. २११२१११, १९. २१२११११, २०. २२१११११, २१. १२२११११, २२. ११२२१११, २३. १११२२११, २४. ११११२२१, २५.१२१२१११, २६. ११२१२११, २७.१११२१२१, २८.१२११२११, २९.११२११२१, ३०. १२१११२१

ई वर्ग. ३ लघु ३ गुरु: (२०) ३१. १११२२२, ३२. ११२१२२, ३३. ११२२१२, ३४. ११२२२१, ३५. १२१२२१, ३६. १२१२१२, ३७. १२११२२, ३८. १२२११२, ३९. १२२१२१, ४०. १२२१२११, ४१. २१११२२, ४२. २११२१२, ४३. २११२२१, ४४.२१२११२, ४५. २१२१२१, ४६. २१२२११, ४७. २२१११२, ४८. २२११२१, ४९. २२१२१२, ५०. २२२१११ 

उ वर्ग. १ लघु ४ गुरु: (५)  ५१.१२२२२, ५२. २१२२२, ५३. २२१२२, ५४. २२२१२, ५५. २२२२१

छंद की ४ या ६ पंक्तियों में विविध तुकान्तों प्रयोग कर और भी अनेक उप प्रकार रचे जा सकते हैं।

छंद-लक्षण: प्रति पंक्ति ९ मात्रा
लक्षण छंद:

आंक छंद रचें,
नौ हों कलाएं।
मधुर स्वर लहर
गीत नव गाएं।

उदाहरण:

सूरज उगायें,
तम को भगायें।
आलस तजें हम-
साफल्य पायें।
***
निधि छंद: ९ मात्रा
*
लक्षण: निधि नौ मात्रिक छंद है जिसमें चरणान्त में लघु मात्रा होती है. पद (पंक्ति) में चरण संख्या एक या अधिक हो सकती है.
लक्षण छंद:
नौ हों कलाएं,
चरणांत लघु हो
शशि रश्मियां ज्यों
सलिल संग विभु हो
उदाहरण :

१. तजिए न नौ निधि
   भजिए किसी विधि
   चुप मन लगाकर-
   गहिए 'सलिल' सिधि

२. रहें दैव सदय, करें कष्ट विलय
   मिले आज अमिय, बहे सलिल मलय
   मिटें असुर अजय, रहें मनुज अभय
   रचें छंद मधुर, मिटे सब अविनय

३. आओ विनायक!, हर सिद्धि दायक
   करदो कृपा अब, हर लो विपद सब
   सुख-चैन दाता, मोदक ग्रहण कर
   खुश हों विधाता, हर लो अनय अब 

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गंग छंद: ९ मात्रा
*
लक्षण: जाति आंक, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ९, चरणान्त गुरु गुरु

लक्षण छंद:
नयना मिलाओ, हो पूर्ण जाओ,
दो-चार-नौ की धारा बहाओ 
लघु लघु मिलाओ, गुरु-गुरु बनाओ
आलस भुलाओ, गंगा नहाओ

उदाहरण:

१. हे गंग माता! भव-मुक्ति दाता
   हर दुःख हमारे, जीवन सँवारो
   संसार की दो खुशियाँ हजारों
   उतर आस्मां से आओ सितारों
   ज़न्नत ज़मीं पे नभ से उतारो
   हे कष्टत्राता!, हे गंग माता!!

२. दिन-रात जागो, सीमा बचाओ
    अरि घात में है, मिलकर भगाओ
    तोपें चलाओ, बम भी गिराओ
    सेना अकेली न हो सँग आओ    

३. बचपन हमेशा चाहे कहानी
    हँसकर सुनाये अपनी जुबानी
    सपना सजायें, अपना बनायें
    हो ज़िंदगानी कैसे सुहानी?

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