Shakeb Jalali |
शकेब जलाली [Oct'1, 1934 - Nov'12, 1966] नाम है उस शायर का जिस ने धारणाओं को बदला, अपनी पहिचान कायम की और अल्पायु में ही ज़ियादा शोरशराबा किये बिना अपने असली घर लौट गया। लफ़्ज़ के पाँचवें अंक से चुने हैं उन के चन्द अशआर। शकेब की शायरी में अधिकांश जगह पर श्रीमदभगवद्गीता की छाप दिखती है। गत का गहन चिंतन और आगत को ध्यान में रखते हुये उत्कृष्ट मूल्यांकन, विवेचन। यक़ीन न आये तो इस पोस्ट में 'जलवारेज़ - निगाहेशौक़' वाले शेर को पढ़ लीजिये। हालाँकि उन का हर एक मिसरा बार-बार अपनी तरफ़ लौटने को मज़बूर करता है, मगर आज़ जब सब कुछ माइक्रो होता जा रहा है, इतने अशआर भी काफ़ी हैं, अगर पढ़ लिये जायें तो ......
ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ-कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है
अब्र - बादल
दश्त - जंगल
तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
आँखों को अब न ढाँप, मुझे डूबते भी देख
क्या शाखेबासमर है, जो तकता है फ़र्श को
नज़रें उठा 'शकेब', कभी सामने भी देख
शाखेबासमर - फलों से लदी डाल
फ़र्श - ज़मीन
देख कर अपने दरोबाम लरज़ जाता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे
दर-ओ-बाम - दरवाज़ा और छत
लरज़ जाता हूँ - काँप जाता हूँ / सिहर उठता हूँ
हमसाये में - पड़ौस में
मैं साहिलों पे उतर कर 'शकेब' क्या लेता
अजल से नाम मेरा पानियों पे लिक्खा था
अजल - प्रारम्भ / आदिकाल
मेरे गिरफ़्त में आ कर निकल गई तितली
परों के रंग मगर रह गये हैं चुटकी में
मैं ख़ुद ही जलवारेज़ हूँ, ख़ुद ही निगाहेशौक़
शफ़्फ़ाफ़ पानियों पे झुकी डाल की तरह
जलवारेज़ - दृश्य
निगाहेशौक़ - देखने वाली आँख
शफ़्फ़ाफ़ - निर्मल
इन फ़ासलों के दश्त में रहबर वही बने
जिस की निगाह देख ले सदियों के पार भी
दश्त - जंगल
रहबर - पथ प्रदर्शक
किसी के सर पे कभी टूट के गिरा ही नहीं
इस आसमाँ ने हवा में क़दम जमाये बहुत
दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादिसा हुआ
फेंका था उस ने संग, गुलों में लपेट के
संग - पत्थर
गुलों में -फूलों में
छुड़ा के हाथ बहुत दूर बह गया है चाँद
किसी के साथ समन्दर में डूबता है कोई
वो ख़मोशी उँगलियाँ चटका रही थी ए 'शकेब'
या कि बूँदें बज रही थीं रात रौशनदान पर
हमजिंस अगर मिले न कोई आसमान पर
बेहतर है ख़ाक डालिये ऐसी उड़ान पर
हमजिंस - सजातीय, अपनी जाति वाला / मन्तव्य 'अपने जैसा'
सोचो तो सिलवटों से भरी है तमाम रूह
देखो तो इक शिकन भी नहीं है लिबास में
wah..!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब..
जवाब देंहटाएंशकेब साहब के सुन्दर शेरों का संकलन हुआ है.
जवाब देंहटाएंउद्धृत और शेरों से चाहे जो कहा जा रहा हो, इस एक ने तो बस चकित ही कर दिया -
वो ख़मोशी उँगलियाँ चटका रही थी ए 'शकेब'
या कि बूँदें बज रही थीं रात रौशनदान पर
इस पोस्ट के लिए धन्यवाद.
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जवाब देंहटाएंबहुत खूब ....
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